"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 162 श्लोक 1-16" के अवतरणों में अंतर

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सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन   
 
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द्विषष्टयधिकशततम (162) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: द्विषष्टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! ब्राह्मण, ॠषि, पितर और देवता- ये सब सत्‍यभाषणरूप धर्म की प्रशसा करते है; अत: अब मैं यह सुनना चाहता हूं कि सत्‍य क्‍या है? उसे मुझे बताइये। राजन्! सत्‍य का लक्षण क्‍या है? उसकी प्राप्ति कैसे हेाती है? सत्‍य का पालन करने से क्‍या लाभ होता है? और कैसे होता है? यह बताइये। भीष्‍मजी ने कहा- भरतनंदन! ब्राह्मण आदि चारों वर्णों के जो धर्म हैं, उनका परस्‍पर सम्मिश्रण अच्‍छा नहीं माना जाता है। निर्विकार सत्‍य सभी वर्णों में प्रतिष्ठित है। सत्‍पुरूषों में सदा सत्‍यरूप धर्म का पालन हुआ है। सत्‍य ही सनातन धर्म है। सत्‍य को ही सदा सिर झुकाना चाहिये; क्‍योंकि सत्‍य ही जीवकी परम गति है। सत्‍य ही धर्म, तप और योग है, सत्‍य ही सनातन ब्रह्म है, सत्‍य को ही परम यज्ञ कहा गया है तथा सब कुछ सत्‍य पर ही टिका हुआ है। अब मैं तुम्‍हें क्रमश: सत्‍य के आचार और लक्षण ठीक–ठीक बताऊंगा। साथ ही यह भी बता देना चाहता हूं कि उस सत्‍य की प्राप्ति कैसे होती है? तुम ध्‍यान देकर सुनो। भारत! सम्‍पूर्ण लोकों में सत्‍य के तेरह भेद माने गये हैं। राजेन्‍द्र! सत्‍य, समता, दम, मत्‍सरता का अभाव, क्षमा, लज्‍जा, तितिक्षा (सहनशीलता), अनसूया, त्‍याग, परमात्‍मा का ध्‍यान, आर्यता (श्रेष्‍ठ आचरण), निंरतर स्थिर रहनेवाली धृति (धैर्य) तथा अंहिसा- ये तेरह सत्‍य के रूप ही स्‍वरूप हैं, इसमें संशय नहीं है। नित्‍य एकरस, अविनाशी ओर अविकारी होना ही सत्‍य का लक्षण है । समस्‍त धर्मों के अनुकूल कर्तव्‍य–पालनरूप योग के द्वारा इस सत्‍य की प्राप्ति होती है। अपने प्रिय मित्र में तथा अप्रिय शत्रु में भी समानभाव रखना ‘समता’ है। इच्‍छा (राग), द्वेष, काम और क्रोध को मिटा देना ही समता की प्राप्ति का उपाय है। किसी दूसरे की वस्‍तु को लेने की इच्‍छा न करना, सदा गम्‍भीरता और धीरता रखना, भय को त्‍याग देना तथा मन के रोगों को शान्त कर देना- यह ‘दम’ (मन और इन्द्रियों के संयम) का लक्षण है। इसकी प्राप्ति ज्ञान से होती है। दान और धर्म करते समय मन पर संयम रखना अर्थात् इस विषय में दूसरों से ईर्ष्‍या न करना इसे विद्वान् लोग ‘मत्‍सरताका अभाव’ कहते हैं । सदा सत्‍य का पालन करने से ही मनुष्‍य मत्‍सरता से रहित हो सकता है। जो सहने और न सहने योग्‍य व्‍यवहारों तथा प्रिय एवं अप्रिय वचनों को भी समान रूप से सहन कर लेता है, वही सर्वसम्‍मत क्षमाशील श्रेष्‍ठ पुरूष है। सत्‍यवादी पुरूष को ही उत्‍तम रीति से क्षमाभाव की प्राप्ति होती है। जो बुद्धिमान पुरूष भलीभांति दूसरों का कल्‍याण करता है और मन में कभी खेद नहीं मानता, जिसकी मन–वाणी सदा शांत रहती है, वह लज्‍जाशील माना जाता है। यह लज्‍जा नामक गुण धर्म के आचरण से प्राप्‍त होता है। धर्म और अर्थ के लिये मनुष्‍य जो कष्‍ट सहन करता है, उसकी वह सहनशीलता ’तितिक्षा’ कहलाती है। लोगों के सामने आदर्श उपस्थित करने के लिये उसका अवश्‍य पालन करना चाहिये । तितिक्षा की प्राप्ति धैर्य से होती है। ( दूसरों के दोष न देखना ‘अनसूया’ है)।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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