"महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 163 श्लोक 1-14": अवतरणों में अंतर

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१३:२२, २० जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

त्रिषष्‍टयधिकशततम (163) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: त्रिषष्‍टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर का विद्या, बल ओर बुद्धि की अपेक्षा भाग्‍य की प्रधानता बताना और भीष्‍मजी द्वारा उसका उत्‍तर

युधिष्ठिर ने कहा- पितामह! भाग्यहीन मनुष्य बलवान हो तो भी उसे धन नहीं मिलता और जो भाग्यवान है, वह बालक एवं दुर्बल होने पर भी बहुत-सा धन प्राप्त कर लेता है। जबतक धनकी प्राप्ति समय नहीं आता तबतक विशेष यत्न करने पर भी कुछ हाथ नहीं लगता, किंतु लाभका समय आने पर मनुष्य बिना यत्न के बहुत बड़ी सम्पत्ति पा लेता है । ऐसे सैकड़ों मनुष्य देखे जाते हैं, जो धनकी प्राप्ति के लिये यत्न के ही दिनों-दिन बढ़ रहा है। भरतभूषण! यदि प्रयत्न करने पर सफलता मिलनी अनिवार्य होती तो मनुष्य सारा फल प्राप्त कर लेता, किंतु जो वस्तु प्रारब्‍धवश मनुष्य के लिये अलभ्य है, वह उद्योग करने पर भी नहीं मिल सकती है। प्रयत्न करने वाले मनुष्य भी असफल देखे जाते है। कोई सैकड़ों उपायकरके धनकी खोज करता रहता है कोई कुमार्गपर ही चलकर धनकी दृष्टि से सुखी दिखायी देता है। कितने ही मनुष्य अनेक बार कुकर्म करके भी निर्धन ही देखे जाते है। कितने ही अपने धर्मानुकुल कर्तव्‍यका पालन करके धनवान हो जाते है और कोई निर्धन ही रह जाते है। कोई मनुष्य नीतिशास्त्र का अध्ययन करके भी नीतियुक्त नहीं देखा जाता और कोई नीति से अनभिज्ञ होने पर मंत्री के पद पर पहुँच जाता है। इसका क्या कारण है? कभी-कभी विद्वान और मूर्ख दोनों एक जैसे धनी दिखायी देते हैं। कभी खोटी बुद्धिवाले मनुष्य तो धनवान हो जाते हैं (और अच्छी बुद्धि रखने वाले मनुष्य को थाड़ा-सा धन भी नहीं मिलता)। यदि विद्या पढ़कर मनुष्य अवश्य ही सुख पा लेता तो विद्वान को जीविका के लिये किसी मूर्ख धनी का आश्रय नहीं लेना पड़ता। जिस प्रकार पानी पीने से मनुष्य की प्यास अवश्य बुझ जाती है, उसी प्रकार यदि विद्या से अभीष्ट वस्तु की सिद्धि अनिवार्य होती तो कोई भी मनुष्य विद्या की उपेक्षा नहीं करता। जिसकी मृत्यु का समय नहीं आया है, वह सैकड़ों बाणों से बिंधकर भी नही मरता, परंतु जिसका काल आ पहुँचा है, वह तिनके के अग्रभाग से छू जाने पर भी प्राणों का परित्‍यागकर देता है। भीष्मजी ने कहा-बेटा! यदि नाना प्रकार की चेष्टा तथा अनेक उद्योग करने पर भी मनुष्य धन न पा सके तो उसे उग्र तपरुप करनी चाहिये, क्योंकि बीज बोये बिना अंकुर नहीं पैदा होता। मनीषी पुरुष कहते हैं कि मनुष्य दान देने से उपभोग की समग्र पाता है। बड़े-बूढ़ों की सेवा से उसको उत्तम बुद्धि प्राप्त होती है और अहिंसा धर्म के पालन से वह दीर्घजीवी होता है। इसलिये स्वयं दान दे, दूसरों से याचना न करे, धर्मात्मा पुरुषों की पूजा करे, उत्तम वचन बोले, सबका भला करे, शान्तभाव से रहे और किसी भी प्राणी की हिंसा न करे। युधिष्ठिर! डाँस, कीड़े और चींटी आदि जीवों को उन-उन योनियों में उत्पन्न करके उन्हें सुख-दु:ख की प्राप्ति कराने में उनका अपने किये हुए कर्मानुसार बना हुआ स्वभाव ही कारण है। यह सोचकर स्थिर हो जाओ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्तर्गत दानधर्मपर्व में धर्म की प्रशंसाविषयक एक सौ तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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