"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 23 श्लोक 30-45" के अवतरणों में अंतर

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तेईसवां अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: तेईसवां अध्याय: श्लोक 28-51 का हिन्दी अनुवाद

राजन्! जो ब्राह्मण उन्नत होकर तत्काल ही अवनत और अवनत होकर उन्नत हो जाता है एवं किसी जीवकी हिंसा नहीं करता है, वह थोड़ा दोषी हो तो भी उसे श्राद्धमे निमंत्रण देना उचित है। भरतश्रेष्ठ! जो दम्भरहित, व्यर्थ तर्क-वितर्क न करनेवाला तथा सम्पर्क स्थापित करनेके योग्य घरसे भिक्षा लेकर जीवन-निर्वाह करनेवाला है, वह ब्राह्मण निमंत्रण पानेका अधिकारी है। राजन्! जो व्रतहीन,धूर्त,चोर,प्राणियोंका क्रय-विक्रय करनेवाला अर्थात् वणिक्-वृतिसे जीविका चलानेवाला होकर भी पीछे यज्ञका अनुष्ठान करके उसमें सोमरसका पान कर चुका है, वह भी निमंत्रण पानेका अधिकारी है।नरेष्वर! जो पहले कठोर कर्मोद्वारा भी धनका उपार्जन करके पीछे सब प्रकारसे अतिथियोंका सेवक हो जाता है, वह श्राद्धमें बुलाने योग्य है। जो धन वेद बेचकर लाया गया हो या स्त्रीकी कमाईसे प्राप्त हुआ हो अथवा लोगोंके सामने दीनता दिखाकर मांग लाया गया हो, वह श्राद्धमें ब्राह्मणोंको देने योग्य नहीं है। भरतश्रेष्ठ! जो ब्राह्मण श्राद्धकी समाप्ति होनेपर ’अस्तु स्वधा’ आदि तत्कालोचित वचनोंका प्रयोग नहीं करता है, उसे गायकी झूठी शपथ खानेका पाप लगता है। युधिष्ठिर! जिस दिन भी सुपात्र ब्राह्मण,दही,घी, अमावास्या तिथि जंगली कन्द, मूल और फलोंका गूदा प्राप्त हो जाय, वही श्राद्धका उत्‍तम काल है। दिनका प्रथम तीन मुहूर्त प्रातःकाल कहलाता है। उसमें ब्राह्मणोंको जप और ध्यान आदिके द्वारा अपने लिये कल्याणकारी व्रत आदिका पालन करना चाहिये। उसके बादका तीन मुहूर्त सगंव कहलाता है तथा संगवके काल बाद तीन मुहूर्त मध्याहन कहलाता है। संगवकालमें लौकिक कार्य देखना चाहिये और मध्याहनकालमें स्नान-संध्यवन्दन आदि करना उचित है।। मध्याहनके बादका तीन मुहूर्त अपराहन कहलाता है। यह दिनका चौथा भाग पितृकार्यके लिये उपयोगी है उसके बादका तीन मुहूर्त सायाहन कहा गया है। इसे विद्वानोंने दिन और रातके बीचका समय माना है।। ब्राह्मणके यहां श्राद्ध समाप्त होनेपर ’स्वधा सम्पद्यताम्’ इस वाक्यका उच्चारण करनेपर पितरोंको प्रसन्नता होती है। क्षत्रियके यहां श्राद्धकी समाप्तिमे ‘पितरः प्रीयन्ताम’ पितर तृप्त हो जाये इस वाक्यका उच्चारण करना चाहिये। भारत! वैश्यके घर श्राद्धकर्मकी समाप्तिपर ‘अक्षयमस्तु’ (श्राद्धका दान अक्षय हो) कहना चाहिये औरशूद्रके श्राद्धकी समाप्तिके अवसरपर ‘स्वस्ति’ (कल्याण हो) इस वाक्यका उच्चारण करना उचित है। इसी तरह जब ब्राह्मणके यहां देवकार्य होता हो, तब उसमें पुण्यावाचनका विधान है अर्थात् ‘पुण्याहं भवन्तो बु्रवन्तु-आपलोग पुण्याहवाचन करें’ ऐसा यज्ञमानके कहनेपर ब्राह्मणोंको पुण्याहम् कहना चाहिये। यही वाक्य क्षत्रिय के यहां बिना काकरके उच्चारण करना चाहिये। वैश्यके घर देवकर्ममें ‘प्रीयन्तां देवताः’ इस वाक्यका उच्चारण करना चाहिये। अब क्रमश तीनों वर्णोके कर्मानुष्ठानकी विधि सुनो । भरतवंशी युधिष्ठिर! तीनों वर्णोमें जातकर्म आदि समस्त संस्कारोंका विधान है। ब्राह्मण,क्षत्रिय, और वैश्य तीनोंके सभी संस्कार वेद-मंत्रोंके च्चारणपूर्वक होने चाहिये। युधिष्ठिर! उपनयनके समय ब्राह्मणको मूंजकी, क्षत्रियको प्रत्यंचाकी और वैश्यको शणकी मेखला धारण करनी चाहिये। यही धर्म है। ब्राह्मणका दण्ड पलाशका, क्षत्रियके लिये पीपलका और वैश्यके लिये गूलरका होना चाहिये। युधिष्ठिर! ऐसा ही धर्म है।। अब दान देने और दान लेनेवालेके धर्माधर्मका वर्णन सुनो। ब्राह्मणको झूठ बोलनेसे जो अधर्म या पातक बताया गया है उससे चौगुना क्षत्रियको और आठगुना वैश्यको लगता है। यदि किसी ब्राह्मणने पहलेसे ही श्राद्धका निमंत्रण दे रखा हो तो निमंत्रित ब्राह्मणको दूसरी जगह जाकर भोजन नहीं करना चाहिये। यदि वह कहता है तो छोटा समझा जाता है ओर उसे पशुसिंहके समान पाप लगता है। यदि उसे क्षत्रिय या वैश्यने पहलेसे निमंत्रण दे रखा हो और वह कहीं अन्यत्र जाकर भोजन कर ले तो छोटा समझे जानेके साथ हीवह पशुसिंहके आधे पापका भागी होता है। नरेश्वर! जो ब्राह्मण ब्राह्मणादि तीनों वर्णोके यहां देवयज्ञ अथवा श्राद्धमें स्नान किये बिना ही भोजन करता है, उसे गौकी झूठी शपथ खानेके समान पाप लगता है। राजन्! जो ब्राह्मण अपने घरमें अशौच रहते हुए भी लोभवश जान-बुझकर दूसरे ब्राह्मण आदिके यहां श्राद्धका अन्न ग्रहण करता है उसे भी गौकी झूठी शपथ खानेका पाप लगता है। भरतनन्दन! राजेन्द्र! जो तीर्थयात्रा आदि दूसरा प्रयोजन बताकर उसीके बहाने अपनी जीविकाके लिये धन मांगता है अथवा ’मुझे अमुक (यज्ञादि) कर्म करनेके लिये धन दीजिये’ ऐसा कहकर जो दाताको अपनी ओर अभिमुख करता है उसके लिये भी वही झूठी शपथ खानेका पाप बताया गया है। युधिष्ठिर! जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्व वेदव्रतका पालन न करनेवाले ब्राह्मणों श्राद्धमें मंत्रोच्चारणपूर्वक अन्न परोसते हैं, उन्हें भी गायकी झूठी शपथ खानेका पाप लगता है। युधिष्ठिरने पूछा-पितामह! देवयज्ञ अथवा श्राद्ध-कर्ममें जो दान दिया जाता हैं, वह कैसे पुरूषोंको देनेसे महान् फलकी प्राप्ति करानेवाला होता है ? मैं इस बातको जानना चाहता हूं। भीष्मजीने कहा-युधिष्ठिर! जैसे किसान वर्षाकी बाट जोहता रहता है, उसी प्रकार जिनके घरोंकी स्त्रियां अपने स्वामीके खा लेनेपर बचे हुए अन्नकी प्रतीक्षा करती रहती है (अर्थात् जिनके घरमें बनी हुई रसोईके सिवा और अन्नका संग्रह न हो), उन निर्धन ब्राह्मणोंको तुम अवश्य भोजन कराओ। राजन्! जो सदाचारपरायण हों, जिनकी जीविकाका साधन नष्ट हो गया हो और इसीलिये भोजन न मिलनेके कारण जो अत्यन्त दुर्बल हो गये हों, ऐसे लोग यदि याचक होकर दाताके पास आते हैं तो उन्हें दिया हुआ दान महान् फलकी प्राप्ति करानेवाला होता है। नरेश्वर! जो सदाचारके ही भक्त हैं, जिनके घरमें सदाचारका ही पालन होता है, जिन्हें सदाचारका ही बल है तथा जिन्होंने सदाचारका ही आश्रय ले रखा है, वे यदि आवश्यकता पड़नेपर याचना करते हैं तो उनको दिया हुआ दान महान् फलकी प्राप्ति करानेवाला होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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