"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 105 श्लोक 1-12": अवतरणों में अंतर
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पन्चाधिकशततम (105) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
- बड़े और छोटे भाई के पारस्परिक बर्ताव तथा माता-पिता, आचार्य आदि गुरूजनों के गौरव का वर्णन
युधिष्ठिर ने पूछा- भरतश्रेष्ठ। बड़ा भाई अपने छोटे भाइयों के साथ कैसा बर्ताव करे? और छोटे भाइयों का बड़े भाई के साथ कैसा बर्ताव होना चाहिये? यह मुझे बताईये । भीष्मजी ने कहा- तात भरतनन्दन। तुम अपने भाइयों में सबसे बड़े हो; अतः सदा बड़े के अनुरूप ही बर्ताव करो। गुरू को अपने शिष्य के प्रति जैसा गौरव युक्त बर्ताव होता है, वैसा ही तुम्हें भी अपने भाइयों के साथ करना चाहिये । यदि गुरू अथवा बड़े भाई का विचार शुद्ध न हो तो शिष्य या छोटे भाई उसकी आज्ञा के अधीन नहीं रह सकते। भारत। बड़े के दीर्धदर्शी होने पर छोटे भी दीर्घदर्शी होते हैं । बड़े भाई को चाहिये कि वह अवसर अनुसार अन्ध, जड़ और विद्वान बने अर्थात यदि छोटे भाईयों से कोई अपराध हो जाये तो उसे देखते हुए भी न देखे। जानकर भी अनजान बना रहे और उनसे ऐसी बाते करे, जिससे उनकी अपराध करने की प्रवृति दूर हो जाये । यदि बड़ा भाई प्रत्यक्ष रूप से अपराध का दण्ड देता है तो उसके छोटे भाइयों का हृदय छिन्न-भिन्न हो जाता है। और वे उस दुर्व्यवहार का लोगों में प्रचार कर देते हैं, तब उनके एश्वर्य को देखकर जलने वाले कितने ही शत्रु उनमें मतभेद पैदा करने की इच्छा करने लगते हैं । जेठा भाई अपनी अच्छी नीति से कुल को उन्नतिशील बनाता है, किन्तु यदि वह कुनिति का आश्रय लेता है तो उसे विनास के गर्त में डाल देता है। जहां बड़े भाई का विचार खोटा हुआ, वहां वह उसमें उत्पन्न हुआ है, अपने उस समस्त कुल को ही चौपट कर देता है । जो बड़ा भाई होकर छोटे भाइयों के साथ कुटिलता पूर्ण बर्ताव करता है, वह न तो ज्येष्ठ कहलाने योग्य है और न ज्येठान्स पाने का ही अधिकारी है। उसे तो राजाओं द्वारा दण्ड मिलना चाहिये । कपट करने वाला मनुष्य निःसंदेह पापमय लोकों (नरक)- में जाता है। उसका जन्म पिता के लिये बेत के फूलों की भांति निरर्थक ही माना गया है । जिस कुल में पापी पुरूष जन्म लेता है, उसके लिये वह सम्पूर्ण अनर्थों का कारण बन जाता है। पापात्मा मनुष्य कुल में कलंक लगाता ह और उसके सुयश का नाश करता है । यदि छोटे भाई भी पाप कर्म में लगे रहते हों तो वे पैतृक धन का भाग पाने के अधिकारी नहीं है। छोटे भाइयों को उनका उचित भाग दिये बिना बड़े भाई को पैतृक-सम्पत्ति का भाग ग्रहण नहीं करना चाहिये । यदि बड़ा भाई पैतृक धन को हानि पहुंचाये बिना ही केवल जांघों के परिश्रम से परदेश में जाकर धन पैदा करे तो वह उसके निजी परिश्रम की कमाई है। अतः यदि उसकी इच्छा न हो तो वह उस धन में से भाइयों को नहीं दे सकता है । यदि भाइयों के हिस्से का बटवारा न हुआ हो और सबने साथ-ही- साथ व्यापार आदि के द्वारा धन की उन्नति की हो, उस अवस्था में यदि पिता के जीते-जी सब अलग होना चाहें तो पिता को उचित है कि वह कभी किसी को कम और किसी को अधिक धन दे अर्थात वह सब पुत्रों को बराबर-बराबर हिस्सा दे ।
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