"महाभारत आदि पर्व अध्याय 36 श्लोक 1-17" के अवतरणों में अंतर

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==षट्-त्रिंश (36 ) अध्‍याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)==
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदि पर्व: षट्-त्रिंश अध्‍याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदिपर्व: षटत्रिंशो अध्‍याय: श्लोक 1- 26 का हिन्दी अनुवाद</div>
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शौनकजी ने पूछा—तात सूतनन्दन ! आपने महापराक्रमी और दुर्धर्ष नागों का वर्णन किया। अब यह बताइये कि माता कद्रू के उस शाप की बात मालूम हो जाने पर उन्होंने उसके निवारण के लिये आगे चलकर कौन सा कार्य किया? उग्रश्रवाजी ने कहा—शौनक ! उन नागों से महायशस्व भगवान शेषनाग ने कद्रू का साथ छोड़कर कठोर तपस्या प्रारंभ की। वे केवल वायु पीकर रहते और संयमपूर्वक व्रत का पालन करते थे। अपनी इन्द्रियों को वश में करके सदा नियमपूर्वक रहते हुए शेष जी गन्धमादन पर्वत पर जाकर वदरिकाश्रम तीर्थ में तप करने लगे। तत्पश्चात गोकर्ण, पुष्कर, हिमालय तटवर्ती प्रदेश तथा भिन्न-भिन्न पुण्य तीर्थों और देवालयों में जाकर संयम- नियम के साथ एकान्तवास करने लगे।  ब्रह्माजी ने देखा, शेषनाग घोर तप कर रहे हैं। उसके शरीर का मांस, त्वचा और नाड़ियां सूख गयी हैं। वे सिर पर जटा और शरीर पर वलकल वस्त्र धारण किये मुनिवृत्ति से रहते हैं। उनमें सच्चा धैर्य है और वे निरन्तर तप में संलग्न हैं। यह सब देखकर ब्रह्माजी उनके पास आये और बोले—‘शेष ! तुम यह क्या कर रहे हो? समस्त प्रजा का कल्याण करो।' ‘अनघ ! इस तीव्र तपस्या के द्वारा तुम सम्पूर्ण प्रजा वर्ग को संतप्त कर रहे हो। शेषनाग ! तुम्हारे हृदय में जो कामना हो वह मुझसे कहो।' शेषनाग बोले—भगवन ! मेरे सब सहोदर भाई बडे़ मन्दबुद्धि हैं, अतः मैं उनके साथ नहीं रहना चाहता। आप मेरी इस इच्छा का अनुमोदन करें। वे सदा परस्पर शत्रु की भाँति एक-दूसरे के दोष निकाला करते हैं। इससे ऊबकर मैं तपस्या में लग गया हूँ; जिससे मैं उन्हें देख न सकूँ। वे विनता और उसके पुत्रों से डाह रखते हैं, इसलिये उनकी सुख सुविधा सहन नहीं कर पाते। आकाश में विचरने वाले विनता पुत्र गरूड़ भी हमारे दूसरे भाई ही हैं। किंतु वे नाग उनसे भी सदा द्वेष रखते हैं। मेरे पिता महात्मा कश्यप जी के वरदान से गरूड़ भी बड़े ही बलवान हैं। इन सब कारणों से मैंने यही निश्चय किया है कि तपस्या करके मैं इस शरीर को त्याग दूँगा, जिससे मरने के बाद भी किसी तरह उन दुष्टों के साथ मेरा समागम न हो। ऐसी बाते करने वाले शेषनाग से पितामह ब्रह्माजी ने कहा—‘शेष ! मैं तुम्हारे सब भाईयों की कुचेष्टा जानता हूँ।' ‘माता का अपराध करने के कारण निश्चय ही तुम्हारे उन सभी भाईयों के लिये महान भय उपस्थित हो गया है; परंतु भुजंगम ! इस विषय में जो परिहार अपेक्षित है, उसकी व्यवस्था मैंने पहले से ही कर रखी है।' ‘अतः अपने सम्पूर्ण भाइयों के लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये। शेष ! तुम्हें जो अभीष्ट हो, वह वर मुझसे माँग लो।' ‘तुम्हारे ऊपर मेरा बड़ा प्रेम है; अतः आज मैं तुम्हें अवश्य वर दूँगा। पत्रगोत्तम ! यह सौभाग्य की बात है कि तुम्हारी बुद्धि धर्म में दृढ़तापूर्वक लगी हुई है। मैं भी आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारी बुद्धि उत्तरोत्तर धर्म में स्थित रहे।' शेषजी ने कहा—देव ! पितामह !  परमेश्वर ! मेरे लिये यही अभीष्ट वर हैं कि मेरी बुद्धि सदा धर्म, मनोनिग्रह तथा तपस्या में लगी रहे।
  
शौनकजी ने पूछा—तात सूतनन्दन ! आपने महापराक्रमी और दुर्धर्ष नागों का वर्णन किया। अब यह बताइये कि माता कद्रू के उस शाप की बात मालूम हो जाने पर उन्होंने उसके निवारण के लिये आगे चलकर कौन सा कार्य किया? उग्रश्रवाजी ने कहा—शौनक ! उन नागों से महायशस्व भगवान् शेषनाग ने कद्रू का साथ छोड़कर कठोर तपस्या प्रारम की। वे केवल वायु पीकर रहते और संयम पूर्वक व्रत का पालन करते थे। अपनी इन्द्रियों को वश में करके सदा नियम पूर्वक रहते हुए शेष जी गन्धमादन पर्वत पर जाकर वदरिकाश्रम तीर्थ में तप करने लगें। तत्पश्चात् गोकर्ण, पुष्कर, हिमालय तटवर्ती प्रदेश तथा भिन्न-भिन्न पुण्य तीर्थो और देवालयों में जाकर संयम नियम के साथ एकान्तवास करने लगे।  ब्रह्माजी ने देखा, शेषनाग घोर तप कर रहे हैं। उसके शरीर का मांस, त्वचा और नाडि़याँ सूख गयी हैं। वे सिर पर जटा और शरीर पर बल्कल वस्त्र धारण किये मुनि वृत्ति से दहते हैं। उनमें सच्चा धैर्य है और वे निरन्तर तप में संलग्न हैं। यह सब देखकर ब्रह्माजी उनके पास आये और बोले—‘शेष ! तुम यह क्या कर रहे हो? समस्त प्रजा का कल्याण करो। ‘अनघ ! इस तीव्र तपस्या के द्वारा तुम सम्पूर्ण प्रजा वर्ग को संतप्त कर रहे हो। शेषनाग ! तुम्हारे हृदय में जो कामना हो वह मुझसे कहो’। शेषनाग बोले—भगवन् ! मेरे सब सहोदर भाई बडे़ मन्दबुद्धि हैं, अतः मैं उनके साथ नहीं रहना चाहता। आप मेरी इस इच्छा का अनुमोदन करें। वे सदा परस्पर शत्रु की भाँति एक-दूसरे के दोष निकाला करते हैं। इससे ऊबकर मैं तपस्या में लग गया हूँ; जिससे मैं उन्हें देख न सकूँ। वे विनता और उसके पुत्रों से डाह रखते हैं, इसलिये उनकी सुख सुविधा सहन नहीं कर पाते। आकाश में विचरने वाले विनता पुत्र गरूड़ भी हमारे दूसरे भाई ही हैं। किंतु वे नाग उनसे भी सदा द्वेष रखते हैं। मेरे पिता महात्मा कश्यप जी के वरदान से गरूड़ भी बड़े ही बलवान् हैं। इन सब कारणों से मैंने यही निश्चय किया है कि तपस्या करके मैं इस शरीर को त्याग दूँगा, जिससे मरने के बाद भी किसी तरह उन दुष्टों के साथ मेरा समागम न हो। ऐसी बाते करने वाले शेषनाग से पितामह ब्रह्माजी ने कहा—‘शेष ! मैं तुम्हारे सब भाईयों की कुचेष्टा जानता हूँ। ‘माता का अपराध करने के कारण निश्चय ही तुम्हारे उन सभी भाईयों के लिये महान् भय उपस्थित हो गया है; परंतु भुजंगम ! इस विषय में जो परिहार अपेक्षित है, उसकी व्यवस्था मैंने पहले से ही कर रखी है। ‘अतः अपने सम्पूर्ण भाईयों के लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये। शेष ! तुम्हें जो अभीष्ट हो, वह वर मुझसे माँग लो। ‘तुम्हारे ऊपर मेरा बड़ा प्रेम है; अतः आज मैं तुम्हें अवश्य वर दूँगा। पत्रगोत्तम ! यह सौभाग्य की बात है कि तुम्हारी बुद्धि धर्म में दृढ़ता पूर्वक लगी हुई है। मैं भी आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारी बुद्धि उत्तरोत्तर धर्म में स्थित रहे’। शेषजी ने कहा—देव ! पितामह !  परमेश्वर ! मेरे लिये यही अभीष्ट वर हैं कि मेरी बुद्धि सदा धर्म, मनोनिग्रह तथा तपस्या में लगी रहे। ब्रह्माजी बोले—शेष ! तुम्हारे इस इन्द्रिय संयम और मनोनिग्रह मैं बहुत प्रसन्न हूँ। अब मेरी आज्ञा से प्रजा के हित के लिये यह कार्य, जिसे मैं बता रहा हूँ, तुम्हें करना चाहिये। शेषनाग ! पर्वत, वन, सागर, ग्राम, विहार और नगरों सहित यह समूची पृथ्वी प्रायः हिलती-डोलती रहती है। तुम इसे भली भाँति धारण करके इस प्रकार स्थित रहो, जिससे यह पूर्णतः अचल हो जाय। शेषनाग ने कहा—प्रजापते ! आप वरदायक देवता, समस्त प्रजा के पालक, पृथ्वी के रक्षक, भूमि प्राणियों के स्वामी और सम्पूर्ण जगत् के अधिपति हैं। आप जैसी आज्ञा देते हैं, उसके अनुसार मैं इस पृथ्वी को इस तरह धारण करूँगा, जिससे यह हिले-डुले नहीं। आप इसे मेरे सिर पर रख दें। ब्रह्माजी ने कहा—नागराज शेष ! तुम पृथ्वी के नीचे चले जाओ। यह स्वयं तुम्हें वहाँ जाने के लिये मार्ग दे देगी। इस पृथ्वी को धारण कर लेने पर तुम्हारे द्वारा मेरा अत्यन्त प्रिय कार्य सम्पन्न हो जायगा। उग्रश्रवाजी कहते हैं—नागराज वासुकि के बड़े भाई सर्व समर्थ भगवान् शेष ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर ब्रह्माजी की आज्ञा शिरोधार्य की ओैर पृथ्वी के विवर में प्रवेश करके समुद्र से घिरी हुई इस वसुधादेवी को उन्होंने सब ओर से पकड़कर सिर पर धारण कर लिया (तभी से यह पृथ्वी स्तिर हो गयी)। तदनन्तर ब्रह्माजी बोले—नागोत्तम ! तुम शेष हो, धर्म ही तुम्हारा आरध्यदेव है, तुम अकेले अपने अनन्त फणों से इस सारी पृथ्वी को पड़कर उसी प्रकार धारण करते हो, जैसे मैं अथवा इन्द्र। उग्रश्रवाजी कहते हैं—शौनक ! इस प्रकार प्रतापी नगर भगवान् अनन्त अकेले ही ब्रह्माजी के आदेश से इस सारी पृथ्वी को धारण करते हुए भूमि के नीचे पाताल लोक में निवास करते है। तत्पश्चात् देवताओं में श्रेष्ठ भगवान् पितामह ने शेषनाग के लिये विनता नन्दन गरूड़ को सहायक बना दिया। अनन्त नाग के जाने पर नागों ने महावली वसुकि का नागराज के पद पर उसी प्रकार अभिषेक किया, जैसे देवताओं ने इन्द्र का देवराज के पद पर अभिषेक किया था।
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत आदि पर्व अध्याय 35 श्लोक 1-19|अगला=महाभारत आदि पर्व अध्याय 36 श्लोक 18-26}}
 
 
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत आदिपर्व अध्याय 35 श्लोक 1- 19|अगला=महाभारत आदिपर्व अध्याय 37 श्लोक 1- 34}}
 
  
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{महाभारत}}
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{{सम्पूर्ण महाभारत}}
  
 
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत अादिपर्व]]
 
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०७:५५, २३ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

षट्-त्रिंश (36 ) अध्‍याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: षट्-त्रिंश अध्‍याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

शौनकजी ने पूछा—तात सूतनन्दन ! आपने महापराक्रमी और दुर्धर्ष नागों का वर्णन किया। अब यह बताइये कि माता कद्रू के उस शाप की बात मालूम हो जाने पर उन्होंने उसके निवारण के लिये आगे चलकर कौन सा कार्य किया? उग्रश्रवाजी ने कहा—शौनक ! उन नागों से महायशस्व भगवान शेषनाग ने कद्रू का साथ छोड़कर कठोर तपस्या प्रारंभ की। वे केवल वायु पीकर रहते और संयमपूर्वक व्रत का पालन करते थे। अपनी इन्द्रियों को वश में करके सदा नियमपूर्वक रहते हुए शेष जी गन्धमादन पर्वत पर जाकर वदरिकाश्रम तीर्थ में तप करने लगे। तत्पश्चात गोकर्ण, पुष्कर, हिमालय तटवर्ती प्रदेश तथा भिन्न-भिन्न पुण्य तीर्थों और देवालयों में जाकर संयम- नियम के साथ एकान्तवास करने लगे। ब्रह्माजी ने देखा, शेषनाग घोर तप कर रहे हैं। उसके शरीर का मांस, त्वचा और नाड़ियां सूख गयी हैं। वे सिर पर जटा और शरीर पर वलकल वस्त्र धारण किये मुनिवृत्ति से रहते हैं। उनमें सच्चा धैर्य है और वे निरन्तर तप में संलग्न हैं। यह सब देखकर ब्रह्माजी उनके पास आये और बोले—‘शेष ! तुम यह क्या कर रहे हो? समस्त प्रजा का कल्याण करो।' ‘अनघ ! इस तीव्र तपस्या के द्वारा तुम सम्पूर्ण प्रजा वर्ग को संतप्त कर रहे हो। शेषनाग ! तुम्हारे हृदय में जो कामना हो वह मुझसे कहो।' शेषनाग बोले—भगवन ! मेरे सब सहोदर भाई बडे़ मन्दबुद्धि हैं, अतः मैं उनके साथ नहीं रहना चाहता। आप मेरी इस इच्छा का अनुमोदन करें। वे सदा परस्पर शत्रु की भाँति एक-दूसरे के दोष निकाला करते हैं। इससे ऊबकर मैं तपस्या में लग गया हूँ; जिससे मैं उन्हें देख न सकूँ। वे विनता और उसके पुत्रों से डाह रखते हैं, इसलिये उनकी सुख सुविधा सहन नहीं कर पाते। आकाश में विचरने वाले विनता पुत्र गरूड़ भी हमारे दूसरे भाई ही हैं। किंतु वे नाग उनसे भी सदा द्वेष रखते हैं। मेरे पिता महात्मा कश्यप जी के वरदान से गरूड़ भी बड़े ही बलवान हैं। इन सब कारणों से मैंने यही निश्चय किया है कि तपस्या करके मैं इस शरीर को त्याग दूँगा, जिससे मरने के बाद भी किसी तरह उन दुष्टों के साथ मेरा समागम न हो। ऐसी बाते करने वाले शेषनाग से पितामह ब्रह्माजी ने कहा—‘शेष ! मैं तुम्हारे सब भाईयों की कुचेष्टा जानता हूँ।' ‘माता का अपराध करने के कारण निश्चय ही तुम्हारे उन सभी भाईयों के लिये महान भय उपस्थित हो गया है; परंतु भुजंगम ! इस विषय में जो परिहार अपेक्षित है, उसकी व्यवस्था मैंने पहले से ही कर रखी है।' ‘अतः अपने सम्पूर्ण भाइयों के लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये। शेष ! तुम्हें जो अभीष्ट हो, वह वर मुझसे माँग लो।' ‘तुम्हारे ऊपर मेरा बड़ा प्रेम है; अतः आज मैं तुम्हें अवश्य वर दूँगा। पत्रगोत्तम ! यह सौभाग्य की बात है कि तुम्हारी बुद्धि धर्म में दृढ़तापूर्वक लगी हुई है। मैं भी आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारी बुद्धि उत्तरोत्तर धर्म में स्थित रहे।' शेषजी ने कहा—देव ! पितामह ! परमेश्वर ! मेरे लिये यही अभीष्ट वर हैं कि मेरी बुद्धि सदा धर्म, मनोनिग्रह तथा तपस्या में लगी रहे।


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