"राणा": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
('==जंगबहादुर, राणा (१८१६-१८७७)== {{लेख सूचना |पुस्तक नाम=ह...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
No edit summary
 
पंक्ति १: पंक्ति १:
==जंगबहादुर, राणा (१८१६-१८७७)==
==जंगबहादुर, राणा (1816-1877)==
{{लेख सूचना
{{लेख सूचना
|पुस्तक नाम=हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
|पुस्तक नाम=हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पंक्ति २५: पंक्ति २५:




नेपाल के प्रसिद्ध रक्षामंत्री भीमसिंह थापा के भ्रातृपौत्र। ये अपने पूर्वजों की अपेक्षा स्थायी शासन की स्थापना करने में सफल रहे। इन्हें अपने चाचा मातवरसिंह के मंत्रित्वकाल में सेनाध्यक्ष तथा प्रधान न्यायाधीश का पद सौंपा गया किंतु शीघ्र ही इनके चाचा की छलपूर्वक हत्या कर दी गई और फतेहजंग ने नया मंत्रिमंडल बनाया। इस नए मंत्रिमंडल में इन्हें सैन्य विभाग सौंपा गया। दूसरे वर्ष १८४६ ई. में शासन में एक संघर्ष छिड़ा। फलस्वरूप फतेहजंग और उनके साथ के ३२ अन्य प्रधान व्यक्तियों की कुटिलतापूर्वक हत्या कर दी गई। महारानी द्वारा राणा की नियुक्ति सीधे प्रधान मंत्री पद पर की गई। शीघ्र ही महारानी का विचार परिवर्तित हुआ और उनकी हत्या के षड्यंत्र भी रचे गए। परंतु रानी की योजना असफल रही। फलत: राजा और रानी दोनों को ही भारत में शरण लेनी पड़ी। अब राणा के मार्ग से सारी बाधाएँ परे हट चुकी थीं। शासन को व्यवस्थित और नियंत्रित करने में इन्हें पूर्ण सफलता मिली। यहाँ तक कि जनवरी, १८५० में वे निश्चिंत होकर इंग्लैंड गए और फरवरी, १८५१ तक वहीं रहे। लौटने पर इन्होंने अपने विरुद्ध रची गई हत्या की कुटिल योजनाओं को पूर्णत: विफल कर दिया। इसके बाद आप दंडसंहिता के सुधार कार्यों में तथा तिब्बत के सथ होनेवाले छिटपुट संघर्षों में उलझे रहे। इसी बीच उन्हें भारतीय सिपाही विद्रोह की सूचना मिली। राणा ने विद्रोहियों से किस प्रकार की बातचीत का विरोध किया और जुलाई, १८५७ को सेना की एक टुकड़ी गोरखपुर भेजी। यही नहीं, दिसंबर में इन्होंने १४,००० गोरखा सिपाहियों की एक सेना लखनऊ की ओर भी भेजी थी जिसने ११ मार्च, १८५८ को लखनऊ की घेरेबंदी में सहयोग दिया। जंगबहादुर राणा को इस कार्य के लिए जी.बी.सी. (ग्रेट कमांडर ऑव ब्रिटेन) के पद से सम्मानित किया गया। नेपाल को उसका एक भूखंड लौटा दिया गया और अन्य अनेक सीमाविवादों का अंत कर दिया गा। १८७५ में राणा ने इंग्लैंड के लिए प्रस्थान किया किंतु बंबई में घोड़े से गिर जाने पर घर लौट आए। ६१ वर्ष की अवस्था में २५ फरवरी को इनका देहांत हो गया। इनकी तीन विधवाएँ भी इनके सथ ही चिता को समर्पित हो गई।
नेपाल के प्रसिद्ध रक्षामंत्री भीमसिंह थापा के भ्रातृपौत्र। ये अपने पूर्वजों की अपेक्षा स्थायी शासन की स्थापना करने में सफल रहे। इन्हें अपने चाचा मातवरसिंह के मंत्रित्वकाल में सेनाध्यक्ष तथा प्रधान न्यायाधीश का पद सौंपा गया किंतु शीघ्र ही इनके चाचा की छलपूर्वक हत्या कर दी गई और फतेहजंग ने नया मंत्रिमंडल बनाया। इस नए मंत्रिमंडल में इन्हें सैन्य विभाग सौंपा गया। दूसरे वर्ष 1846 ई. में शासन में एक संघर्ष छिड़ा। फलस्वरूप फतेहजंग और उनके साथ के 32 अन्य प्रधान व्यक्तियों की कुटिलतापूर्वक हत्या कर दी गई। महारानी द्वारा राणा की नियुक्ति सीधे प्रधान मंत्री पद पर की गई। शीघ्र ही महारानी का विचार परिवर्तित हुआ और उनकी हत्या के षड्यंत्र भी रचे गए। परंतु रानी की योजना असफल रही। फलत: राजा और रानी दोनों को ही भारत में शरण लेनी पड़ी। अब राणा के मार्ग से सारी बाधाएँ परे हट चुकी थीं। शासन को व्यवस्थित और नियंत्रित करने में इन्हें पूर्ण सफलता मिली। यहाँ तक कि जनवरी, 1850 में वे निश्चिंत होकर इंग्लैंड गए और 6 फरवरी, 1851 तक वहीं रहे। लौटने पर इन्होंने अपने विरुद्ध रची गई हत्या की कुटिल योजनाओं को पूर्णत: विफल कर दिया। इसके बाद आप दंडसंहिता के सुधार कार्यों में तथा तिब्बत के सथ होनेवाले छिटपुट संघर्षों में उलझे रहे। इसी बीच उन्हें भारतीय सिपाही विद्रोह की सूचना मिली। राणा ने विद्रोहियों से किस प्रकार की बातचीत का विरोध किया और जुलाई, 1847 को सेना की एक टुकड़ी गोरखपुर भेजी। यही नहीं, दिसंबर में इन्होंने 14000 गोरखा सिपाहियों की एक सेना लखनऊ की ओर भी भेजी थी जिसने 11 मार्च, 1858को लखनऊ की घेरेबंदी में सहयोग दिया। जंगबहादुर राणा को इस कार्य के लिए जी.बी.सी. (ग्रेट कमांडर ऑव ब्रिटेन) के पद से सम्मानित किया गया। नेपाल को उसका एक भूखंड लौटा दिया गया और अन्य अनेक सीमाविवादों का अंत कर दिया गा। 1875 में राणा ने इंग्लैंड के लिए प्रस्थान किया किंतु बंबई में घोड़े से गिर जाने पर घर लौट आए। 61 वर्ष की अवस्था में 25 फरवरी को इनका देहांत हो गया। इनकी तीन विधवाएँ भी इनके सथ ही चिता को समर्पित हो गई।
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
 
[[Category:हिन्दी विश्वकोश]]
[[Category: भारत के राजवंश]]
__INDEX__

१२:१४, २३ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

जंगबहादुर, राणा (1816-1877)

लेख सूचना
राणा
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पृष्ठ संख्या 335
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक राम प्रसाद त्रिपाठी
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक कमलनाथ गुप्त.


नेपाल के प्रसिद्ध रक्षामंत्री भीमसिंह थापा के भ्रातृपौत्र। ये अपने पूर्वजों की अपेक्षा स्थायी शासन की स्थापना करने में सफल रहे। इन्हें अपने चाचा मातवरसिंह के मंत्रित्वकाल में सेनाध्यक्ष तथा प्रधान न्यायाधीश का पद सौंपा गया किंतु शीघ्र ही इनके चाचा की छलपूर्वक हत्या कर दी गई और फतेहजंग ने नया मंत्रिमंडल बनाया। इस नए मंत्रिमंडल में इन्हें सैन्य विभाग सौंपा गया। दूसरे वर्ष 1846 ई. में शासन में एक संघर्ष छिड़ा। फलस्वरूप फतेहजंग और उनके साथ के 32 अन्य प्रधान व्यक्तियों की कुटिलतापूर्वक हत्या कर दी गई। महारानी द्वारा राणा की नियुक्ति सीधे प्रधान मंत्री पद पर की गई। शीघ्र ही महारानी का विचार परिवर्तित हुआ और उनकी हत्या के षड्यंत्र भी रचे गए। परंतु रानी की योजना असफल रही। फलत: राजा और रानी दोनों को ही भारत में शरण लेनी पड़ी। अब राणा के मार्ग से सारी बाधाएँ परे हट चुकी थीं। शासन को व्यवस्थित और नियंत्रित करने में इन्हें पूर्ण सफलता मिली। यहाँ तक कि जनवरी, 1850 में वे निश्चिंत होकर इंग्लैंड गए और 6 फरवरी, 1851 तक वहीं रहे। लौटने पर इन्होंने अपने विरुद्ध रची गई हत्या की कुटिल योजनाओं को पूर्णत: विफल कर दिया। इसके बाद आप दंडसंहिता के सुधार कार्यों में तथा तिब्बत के सथ होनेवाले छिटपुट संघर्षों में उलझे रहे। इसी बीच उन्हें भारतीय सिपाही विद्रोह की सूचना मिली। राणा ने विद्रोहियों से किस प्रकार की बातचीत का विरोध किया और जुलाई, 1847 को सेना की एक टुकड़ी गोरखपुर भेजी। यही नहीं, दिसंबर में इन्होंने 14000 गोरखा सिपाहियों की एक सेना लखनऊ की ओर भी भेजी थी जिसने 11 मार्च, 1858को लखनऊ की घेरेबंदी में सहयोग दिया। जंगबहादुर राणा को इस कार्य के लिए जी.बी.सी. (ग्रेट कमांडर ऑव ब्रिटेन) के पद से सम्मानित किया गया। नेपाल को उसका एक भूखंड लौटा दिया गया और अन्य अनेक सीमाविवादों का अंत कर दिया गा। 1875 में राणा ने इंग्लैंड के लिए प्रस्थान किया किंतु बंबई में घोड़े से गिर जाने पर घर लौट आए। 61 वर्ष की अवस्था में 25 फरवरी को इनका देहांत हो गया। इनकी तीन विधवाएँ भी इनके सथ ही चिता को समर्पित हो गई।

टीका टिप्पणी और संदर्भ