"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 13 श्लोक 45-56" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध:  त्रयोदशोऽध्यायः श्लोक 45-56 का हिन्दी अनुवाद </div>

१३:३७, २३ जुलाई २०१५ का अवतरण

दशम स्कन्ध: त्रयोदशोऽध्यायः(13) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रयोदशोऽध्यायः श्लोक 45-56 का हिन्दी अनुवाद

जिस प्रकार रात के घोर के अन्धकार में कुहरे के अन्धकार का और दिन के प्रकाश में जुगनू के प्रकाश का पता नहीं चलता, वैसे ही जब क्षुद्र पुरुष महापुरुषों पर अपनी माया का प्रयोग करते हैं, तब वह उनका तो कुछ बिगाड़ नहीं सकती, अपना ही प्रभाव खो बैठती है । ब्रम्हाजी विचार कर ही रहे थे कि उनके देखते-देखते उसी क्षण सभी ग्वालबाल और बछड़े श्रीकृष्ण के रूप में दिखायी पड़ने लगे। सब-के-सब सजल जल धर के समान श्यामवर्ण, पीताम्बरधारी, शंख, चक्र, गदा और पद्म से युक्त—चतुर्भुज। सबके सिरपर मुकुट, कानों में कुण्डल और कण्ठों में मनोहर हार तथा वन्मालाएँ शोभायमान हो रहीं थीं । उनके वक्षःस्थल पर सुवर्ण की सुनहली रेखा—श्रीवत्स, बाहुओं में बाजूबंद, कलाइयों में शंखाकार रत्नों से जड़े कंगन, चरणों में नुपुर और कड़े, कमर में करधनी तथा अँगुलियों में अंगूठियाँ जगमगा रहीं थीं । वे नख से शिख तक समस्त अंगों में कोमल और नूतन तुलसी की मालाएँ, जो उन्हें बड़े भाग्यशाली भक्तों ने पहनायी थीं, धारण किये हुए थे । उनकी मुसकान चाँदनी के समान उज्जवल थी और रतनारे नेत्रों की कटाक्षपूर्ण चितवन बड़ी ही मधुर थी। ऐसा जान पड़ता था मानों वे इस दोनों के द्वारा सत्वगुण और रजोगुण को स्वीकार करके भक्तजनों के ह्रदय में शुद्ध लालसाएँ जगाकर उनको पूर्ण कर रहे हैं । ब्रम्हाजी ने यह भी देखा कि उन्हीं के जैसे दूसरे ब्रम्हा से लेकर तृण तक सभी चराचर जीव मूर्तिमान् होकर नाचते-गाते अनेक प्रकार की पूजा-सामग्री से अलग-अलग भगवान् के उन सब रूपों की उपासना कर रहे हैं । उन्हें अलग-अलग अणिमा-महिमा आदि सिद्धियाँ, माया-विद्या आदि विभूतियाँ और महतत्व आदि चौबीसों तत्व चारों ओर से घेरे हुए है । प्रकृति में क्षोभ उत्पन्न करने वाला काल, उसके परिणाम का कारण स्वाभाव, वासनाओं को जगाने वाला संस्कार, कामनाएँ, कर्म, विषय और फल—सभी मूर्तिमान् होकर भगवान् के प्रत्येक रूप की उपासना कर रहें हैं। भगवान् की सत्ता और महत्ता के सामने उन सभी की सत्ता और महत्ता अपना अस्तित्व खो बैठी थी । ब्रम्हाजी ने यह भी देखा कि वे सभी भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल के द्वारा सीमित नहीं हैं, त्रिकालाबाधित सत्य हैं। वे सब-के-सब स्वयं प्रकाश और केवल अनन्त आनन्द स्वरुप हैं। उनमें जड़ता अथवा चेतना का भेदभाव नहीं है। वे सब-के-सब एक-रस हैं। यहाँ तक कि उपनिषद्दर्शी तत्वज्ञानियों की दृष्टि भी उनकी अनन्त महिमा का स्पर्श नहीं कर सकती । इस प्रकार ब्रम्हाजी ने एक साथ ही देखा कि वे सब-के-सब उन परब्रम्ह परमात्मा श्रीकृष्ण के ही स्वरुप हैं, जिनके प्रकाश से यह सारा जगत् प्रकाशित हो रहा है ।

यह अत्यन्त आश्चर्यमय दृश्य देखकर ब्रम्हाजी तो चकित रह गये। उनकी ग्यारहों इन्द्रियाँ (पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय और एक मन) क्षुब्ध एवं स्तब्ध रह गयीं। वे भगवान् के तेज से निस्तेज होकर मौन हो गये। उस समय वे ऐसे स्तब्ध होकर खड़े रह गये, मानों वज्र के अधिष्ठातृ-देवता के पास एक पुतली खड़ी हो ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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