"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 141 श्लोक 1-21" के अवतरणों में अंतर

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== एक सौ इकतालीसवाँ अध्‍याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)==
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==एकचत्‍वारिंशदधिकशततम (141) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)==
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: एकचत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद </div>
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत उद्योगपर्व: एक सौ इकतालीसवाँ अध्याय: श्लोक 1- 34 का हिन्दी अनुवाद </div>
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कर्णका दुर्योधन के पक्षमें रहनेके निश्चित विचार का प्रतिपादन करते हुए समरयज्ञकेरूपकका वर्णन करना
  
कर्णका दुर्योधन के पक्षमें रहनेके निश्चित विचार का प्रतिपादन करते हुए समरयज्ञकेरूपकका वर्णन करना
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कर्ण ने कहा- केशव ! आपने सौहार्द, प्रेम, मैत्री और मेरे हितकी इच्छादसे जो कुछ कहा है, यह नि:संदेह ठीक है। श्रीकृष्णक ! जैसा कि आप मानते है, धर्मशास्त्रों के निर्णय के अनुसार मैं धर्मत: पाण्‍डुका ही पुत्र हूँ । इन सब बातोंको मैं अच्छीर तरह जानता और समझता हूँ। जनार्दन ! कुन्तीमने कन्यारवस्थार में भगवान सूर्यके संयोगसे मुझे गर्भमें धारण किया था और मेरा जन्मर हो जानेपर उन सूर्यदेवकी आज्ञासे ही मुझे जलमें विसर्जितकर दिया था। श्रीकृष्णा ! इस प्रकार मेरा जन्मक हुआ है । अत: मैं धर्मत: पाण्डु का ही पुत्र हूँ; परंतु कुन्तीँदेवीने मुझेइस तरह त्या ग दिया, जिससे मैं सकुशल नही रह सकता था। मधुसूदन ! उसके बाद अधिरथ नामक सूत मुझे जलमें देखते ही निकालकर अपने घर ले आये और बड़े स्नेुहसे मुझे अपनी पत्नीध राधाकी गोदमें दे दिया।  उस समय मेरे पति अधिक स्नेपहके कारण राधाके स्तशनोंमें तत्कानल दूध उतर आया । माधव ! उस अवस्थाू में उसीने मेरा मल-मूत्र उठाना स्वीनकार किया। अत: सदा धर्मशास्त्रों के श्रवणमें तत्प र रहनेवाला मुझ जैसा धर्मज्ञ पुरूष राधा के मुखका ग्रास कैसे छीन सकता है ? ( उसका पालन-पोषण न करके उसे त्या‍ग देनेकी क्रूरता कैसे कर सकता है ? )। अधिरथ सूत भी मुझे अपना पुत्र ही समझते हैं और मैं भी सौहार्दवश उन्हेंो सदासे अपना पिता ही मानता आया हूँ।  माधव ! उन्हों ने मेरे जातकर्म आदि संस्काेर करवाये तथा जनार्दन ! उन्होंरने ही पुत्रप्रेमवश शास्त्रीरय विधिसे ब्राह्राणोंद्वारा मेरा ‘वसुषेण’ नाम रखवाया। श्रीकृष्णक ! मेरी युवावस्थार होने पर अधिरथने सूतजातिकी कई कन्यादओंके साथ मेरा विवाह करवाया । अब उनसे मेरे पुत्र और पौत्र भी पैदा हो चुके है । जनार्दन ! उन स्त्रियोंमें मेरा हृदय कामभावसे आसक्त रहा है। गोविन्द  ! अब मैं सम्पूउर्ण पृथिवीका राज्यू पाकर, सुवर्णकी राशियाँ लेकर अथवा हर्ष या भयके कारण भी वह सब सम्ब न्‍ध मिथ्या। नही करना चाहता। श्रीकृष्णर ! मैंने दुर्योधनका सहारा पाकर धृतराष्ट्रके कुलमें रहते हुए तेरह वर्षोतक अकण्टतक राज्य।का उपभोग किया है। वहाँ मैंने सूतोके साथ मिलकर बहुत-से यज्ञोंका अनुष्ठा न किया है तथा उन्हींट के साथ रहकर अनेकानेक कुलधर्म एवं वैवाहिक कार्य सम्पान्नह किये हैं। वृष्णिनन्दहन श्रीकृष्णह ! दुर्योधनने मेरे ही भरोसे हथियार उठाने तथा पाण्डवोंके साथ विग्रह करनेका साहस किया है। अत: अच्युनत ! मुझे द्वेरथ युद्धमें सव्युसाची अर्जुनके विरूद्ध लोहा लेने तथा उनका सामना करनेके लिये उसने चुन लिया है। जनार्दन ! इस समय मैं वध, बन्धयन, भय अथवा लोभसे भी बुद्धिमानधृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनके साथ मिथ्याि व्युवहार नही करना चाहता। हृषीकेश ! अब यदि मैं अर्जुनके साथ द्वैरथ युद्ध न करूँ तो यह मेरे और अर्जुन दोनोंके लिये अपयशकी बात होगी। मधुसूदन ! इसमें संदेह नहीं कि आप मेरे हितके लिये ही ये सब बातें कहते हैं । पाण्डकव आपके अधीन है; इसलिये आप उनसे जो कुछ भी कहेंगे, वह सब वे अवश्यत ही कर सकते है। परंतु मधुसूदन ! मेरे और आपके बीचमें जो यह गुप्तक परामर्श हुआ है, उसे आप यही तर्क सीमित रक्खें  । यादवनन्दतन ! ऐसा करनेमें ही मैं यहाँ सब प्रकारसे हित समझता हूँ। अपनी इन्द्रियोंको संयममें रखनेवाले धर्मात्मक राजा युधिष्ठिर यदि यह जान लेंगे कि मैं (कर्ण) कुन्तीरका प्रथम पुत्र हूँ, तब वे राज्य ग्रहण नही करेंगे।  
कर्ण ने कहा- केशव ! आपने सौहार्द, प्रेम, मैत्री और मेरे हितकी इच्छादसे जो कुछ कहा है, यह नि:संदेह ठीक है। श्रीकृष्णक ! जैसा कि आप मानते है, धर्मशास्त्रों के निर्णय के अनुसार मैं धर्मत: पाण्‍डुका ही पुत्र हूँ । इन सब बातोंको मैं अच्छीर तरह जानता और समझता हूँ। जनार्दन ! कुन्तीमने कन्यारवस्थार में भगवान सूर्यके संयोगसे मुझे गर्भमें धारण किया था और मेरा जन्मर हो जानेपर उन सूर्यदेवकी आज्ञासे ही मुझे जलमें विसर्जितकर दिया था। श्रीकृष्णा ! इस प्रकार मेरा जन्मक हुआ है । अत: मैं धर्मत: पाण्डु का ही पुत्र हूँ; परंतु कुन्तीँदेवीने मुझेइस तरह त्या ग दिया, जिससे मैं सकुशल नही रह सकता था। मधुसूदन ! उसके बाद अधिरथ नामक सूत मुझे जलमें देखते ही निकालकर अपने घर ले आये और बड़े स्नेुहसे मुझे अपनी पत्नीध राधाकी गोदमें दे दिया।  उस समय मेरे पति अधिक स्नेपहके कारण राधाके स्तशनोंमें तत्कानल दूध उतर आया । माधव ! उस अवस्थाू में उसीने मेरा मल-मूत्र उठाना स्वीनकार किया। अत: सदा धर्मशास्त्रों के श्रवणमें तत्प र रहनेवाला मुझ जैसा धर्मज्ञ पुरूष राधा के मुखका ग्रास कैसे छीन सकता है ? ( उसका पालन-पोषण न करके उसे त्या‍ग देनेकी क्रूरता कैसे कर सकता है ? )। अधिरथ सूत भी मुझे अपना पुत्र ही समझते हैं और मैं भी सौहार्दवश उन्हेंो सदासे अपना पिता ही मानता आया हूँ।  माधव ! उन्हों ने मेरे जातकर्म आदि संस्काेर करवाये तथा जनार्दन ! उन्होंरने ही पुत्रप्रेमवश शास्त्रीरय विधिसे ब्राह्राणोंद्वारा मेरा ‘वसुषेण’ नाम रखवाया। श्रीकृष्णक ! मेरी युवावस्थार होने पर अधिरथने सूतजातिकी कई कन्यादओंके साथ मेरा विवाह करवाया । अब उनसे मेरे पुत्र और पौत्र भी पैदा हो चुके है । जनार्दन ! उन स्त्रियोंमें मेरा हृदय कामभावसे आसक्त रहा है। गोविन्द  ! अब मैं सम्पूउर्ण पृथिवीका राज्यू पाकर, सुवर्णकी राशियाँ लेकर अथवा हर्ष या भयके कारण भी वह सब सम्ब न्‍ध मिथ्या। नही करना चाहता। श्रीकृष्णर ! मैंने दुर्योधनका सहारा पाकर धृतराष्ट्रके कुलमें रहते हुए तेरह वर्षोतक अकण्टतक राज्य।का उपभोग किया है। वहाँ मैंने सूतोके साथ मिलकर बहुत-से यज्ञोंका अनुष्ठा न किया है तथा उन्हींट के साथ रहकर अनेकानेक कुलधर्म एवं वैवाहिक कार्य सम्पान्नह किये हैं। वृष्णिनन्दहन श्रीकृष्णह ! दुर्योधनने मेरे ही भरोसे हथियार उठाने तथा पाण्डवोंके साथ विग्रह करनेका साहस किया है। अत: अच्युनत ! मुझे द्वेरथ युद्धमें सव्युसाची अर्जुनके विरूद्ध लोहा लेने तथा उनका सामना करनेके लिये उसने चुन लिया है। जनार्दन ! इस समय मैं वध, बन्धयन, भय अथवा लोभसे भी बुद्धिमानधृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनके साथ मिथ्याि व्युवहार नही करना चाहता। हृषीकेश ! अब यदि मैं अर्जुनके साथ द्वैरथ युद्ध न करूँ तो यह मेरे और अर्जुन दोनोंके लिये अपयशकी बात होगी। मधुसूदन ! इसमें संदेह नहीं कि आप मेरे हितके लिये ही ये सब बातें कहते हैं । पाण्डकव आपके अधीन है; इसलिये आप उनसे जो कुछ भी कहेंगे, वह सब वे अवश्यत ही कर सकते है। परंतु मधुसूदन ! मेरे और आपके बीचमें जो यह गुप्तक परामर्श हुआ है, उसे आप यही तर्क सीमित रक्खें  । यादवनन्दतन ! ऐसा करनेमें ही मैं यहाँ सब प्रकारसे हित समझता हूँ। अपनी इन्द्रियोंको संयममें रखनेवाले धर्मात्मक राजा युधिष्ठिर यदि यह जान लेंगे कि मैं (कर्ण) कुन्तीरका प्रथम पुत्र हूँ, तब वे राज्या ग्रहण नही करेंगे। शत्रुदमन मधुसूदन ! उस दशामें मैं उस समृद्धिशाली विशाल राज्य्को पाकर भी दुर्योधनको ही सौंप दूँगा। मैं भी यही चाहता हूँ कि जिनके नेता ह्रषीकेश और योद्धा अर्जुन हैं, वे धर्मात्माक युधिष्ठिर ही सर्वदा राजा बने रहें। माधव ! जनार्दन ! जिनके सहायक महारथी भीम, नकुल, सहदेव, द्रौपदी के पाँचों पुत्र, पांचाल राजकुमार धृष्टनघुम्न, महारथी सात्य कि,उत्तममौजा, युधामन्यु , सोमकवंशी सत्य –धर्मा, चेदिराज धृष्ट केतु,चेकितान, अपराजित वीर शिखण्डीझ, इन्द्रमगोपके समान वर्णवाले पाँचों भाई केकय-राजकुमार, इन्द्र धनुषके समान रंगवाले महामना कुन्तिभोज, भीमसेन के मामा महारथी श्ये्नजित विराटपुत्र शंख तथा अक्षयनिधिके समान आप हैं, उन्ही् युधिष्ठिरके अधिकारमें यह सारा भूमण्डयल तथा कौरव-राज्य  रहेगा। श्रीकृष्ण् ! दुर्योधनने यह क्षत्रियों का बहुत बड़ा समुदाय एकत्र कर लिया है तथा समस्ता राजाओंमें विख्यायत एवं उज्‍ज्‍वल यह कुरूदेशका राज्य भी उसे प्राप्तु हो गया है। जनार्दन ! वृष्णिनन्दखन ! अब दुर्योधनके यहाँ एक शस्त्र -यज्ञ होगा, जिसके साक्षी आप होंगे। श्रीकृष्णन ! इस यज्ञमें अध्वहर्युका काम भी आपको ही करना होगा । कवच आदिसे सुसज्जित कपिध्व,ज अर्जुन इसमें होता बनेंगे।  गाण्डी व धनुष स्त्रुअवाका काम करेगा और विपक्षी वीरोंका पराक्रम ही हवनीय घृत होगा । माधव ! सव्यसाची अर्जुन द्वारा प्रयुक्त् होनेवाले ऐन्द्रा, पाशुपत, ब्राह्रा और स्थूवणाकर्ण आदि अस्त्रद ही वेद-मन्त्रय होंगे। सुभद्राकुमार अभिमन्यु  भी अस्त्र विद्या में अपने पिताका ही अनुसरण करनेवाला अथवा पराक्रममें उनसे भी बढ़कर है ।वह इस शस्त्रकयज्ञमें उत्त म स्तोहत्रगान (उद्रातृकर्म) की पूर्ति  करेगा। अभिमन्युु ही उद्राता और महाबली नरश्रेष्ठ् भीमसेन ही प्रस्तोकता होंगे, जो रणभूमिमें गर्जना करते हुए शत्रुपक्षके हाथियोंकी सेनाका विनाश कर डालेंगे। वे धर्मात्माी राजा युधिष्ठिर ही सदा जप और होममें संलग्न् रहकर उस यज्ञमें ब्रह्राका कार्य सम्पहन्न। करेंगे।
 
  
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत उद्योगपर्व अध्याय 140 श्लोक 1- 29|अगला=महाभारत उद्योगपर्व अध्याय 141 श्लोक 35- 57}}
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 140 श्लोक 1-29|अगला=महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 141 श्लोक 22-47}}
  
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{महाभारत}}
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१५:१३, २४ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

एकचत्‍वारिंशदधिकशततम (141) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: एकचत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद

कर्णका दुर्योधन के पक्षमें रहनेके निश्चित विचार का प्रतिपादन करते हुए समरयज्ञकेरूपकका वर्णन करना

कर्ण ने कहा- केशव ! आपने सौहार्द, प्रेम, मैत्री और मेरे हितकी इच्छादसे जो कुछ कहा है, यह नि:संदेह ठीक है। श्रीकृष्णक ! जैसा कि आप मानते है, धर्मशास्त्रों के निर्णय के अनुसार मैं धर्मत: पाण्‍डुका ही पुत्र हूँ । इन सब बातोंको मैं अच्छीर तरह जानता और समझता हूँ। जनार्दन ! कुन्तीमने कन्यारवस्थार में भगवान सूर्यके संयोगसे मुझे गर्भमें धारण किया था और मेरा जन्मर हो जानेपर उन सूर्यदेवकी आज्ञासे ही मुझे जलमें विसर्जितकर दिया था। श्रीकृष्णा ! इस प्रकार मेरा जन्मक हुआ है । अत: मैं धर्मत: पाण्डु का ही पुत्र हूँ; परंतु कुन्तीँदेवीने मुझेइस तरह त्या ग दिया, जिससे मैं सकुशल नही रह सकता था। मधुसूदन ! उसके बाद अधिरथ नामक सूत मुझे जलमें देखते ही निकालकर अपने घर ले आये और बड़े स्नेुहसे मुझे अपनी पत्नीध राधाकी गोदमें दे दिया। उस समय मेरे पति अधिक स्नेपहके कारण राधाके स्तशनोंमें तत्कानल दूध उतर आया । माधव ! उस अवस्थाू में उसीने मेरा मल-मूत्र उठाना स्वीनकार किया। अत: सदा धर्मशास्त्रों के श्रवणमें तत्प र रहनेवाला मुझ जैसा धर्मज्ञ पुरूष राधा के मुखका ग्रास कैसे छीन सकता है ? ( उसका पालन-पोषण न करके उसे त्या‍ग देनेकी क्रूरता कैसे कर सकता है ? )। अधिरथ सूत भी मुझे अपना पुत्र ही समझते हैं और मैं भी सौहार्दवश उन्हेंो सदासे अपना पिता ही मानता आया हूँ। माधव ! उन्हों ने मेरे जातकर्म आदि संस्काेर करवाये तथा जनार्दन ! उन्होंरने ही पुत्रप्रेमवश शास्त्रीरय विधिसे ब्राह्राणोंद्वारा मेरा ‘वसुषेण’ नाम रखवाया। श्रीकृष्णक ! मेरी युवावस्थार होने पर अधिरथने सूतजातिकी कई कन्यादओंके साथ मेरा विवाह करवाया । अब उनसे मेरे पुत्र और पौत्र भी पैदा हो चुके है । जनार्दन ! उन स्त्रियोंमें मेरा हृदय कामभावसे आसक्त रहा है। गोविन्द ! अब मैं सम्पूउर्ण पृथिवीका राज्यू पाकर, सुवर्णकी राशियाँ लेकर अथवा हर्ष या भयके कारण भी वह सब सम्ब न्‍ध मिथ्या। नही करना चाहता। श्रीकृष्णर ! मैंने दुर्योधनका सहारा पाकर धृतराष्ट्रके कुलमें रहते हुए तेरह वर्षोतक अकण्टतक राज्य।का उपभोग किया है। वहाँ मैंने सूतोके साथ मिलकर बहुत-से यज्ञोंका अनुष्ठा न किया है तथा उन्हींट के साथ रहकर अनेकानेक कुलधर्म एवं वैवाहिक कार्य सम्पान्नह किये हैं। वृष्णिनन्दहन श्रीकृष्णह ! दुर्योधनने मेरे ही भरोसे हथियार उठाने तथा पाण्डवोंके साथ विग्रह करनेका साहस किया है। अत: अच्युनत ! मुझे द्वेरथ युद्धमें सव्युसाची अर्जुनके विरूद्ध लोहा लेने तथा उनका सामना करनेके लिये उसने चुन लिया है। जनार्दन ! इस समय मैं वध, बन्धयन, भय अथवा लोभसे भी बुद्धिमानधृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनके साथ मिथ्याि व्युवहार नही करना चाहता। हृषीकेश ! अब यदि मैं अर्जुनके साथ द्वैरथ युद्ध न करूँ तो यह मेरे और अर्जुन दोनोंके लिये अपयशकी बात होगी। मधुसूदन ! इसमें संदेह नहीं कि आप मेरे हितके लिये ही ये सब बातें कहते हैं । पाण्डकव आपके अधीन है; इसलिये आप उनसे जो कुछ भी कहेंगे, वह सब वे अवश्यत ही कर सकते है। परंतु मधुसूदन ! मेरे और आपके बीचमें जो यह गुप्तक परामर्श हुआ है, उसे आप यही तर्क सीमित रक्खें । यादवनन्दतन ! ऐसा करनेमें ही मैं यहाँ सब प्रकारसे हित समझता हूँ। अपनी इन्द्रियोंको संयममें रखनेवाले धर्मात्मक राजा युधिष्ठिर यदि यह जान लेंगे कि मैं (कर्ण) कुन्तीरका प्रथम पुत्र हूँ, तब वे राज्य ग्रहण नही करेंगे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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