"महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 22 श्लोक 1-16": अवतरणों में अंतर

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नासिका, नेत्र, जिह्वा, त्वचा और पाँचवाँ कान, मन और बुद्धि- ये सात होता अलग-अलग रहते हैं। यद्यपि येसभी सूक्षम शरीर में ही निवास करते हैं तो भी एक दूसरे को नहीं देखते हैं। शोभने! इन सात होताओं को तुम स्वभाव से ही पहचानों।
नासिका, नेत्र, जिह्वा, त्वचा और पाँचवाँ कान, मन और बुद्धि- ये सात होता अलग-अलग रहते हैं। यद्यपि येसभी सूक्षम शरीर में ही निवास करते हैं तो भी एक दूसरे को नहीं देखते हैं। शोभने! इन सात होताओं को तुम स्वभाव से ही पहचानों।
ब्राह्मणी ने पूछा- भगवन! जब सभ सूक्षम शरीर में ही रहते हैं, तब एक दूसरे को देख क्यों नहीं पाते? प्रभो! उनके स्वभाव कैसे हैं? यह बताने की कृपा करें।
ब्राह्मणी ने पूछा- भगवन! जब सभ सूक्षम शरीर में ही रहते हैं, तब एक दूसरे को देख क्यों नहीं पाते? प्रभो! उनके स्वभाव कैसे हैं? यह बताने की कृपा करें।
ब्राह्मण ने कहा- प्रिये! (यहाँ देखने का अर्थ है, जानता) गुणों को न जानना ही गणुवान को न जानना कहलाता है और गुणों को जानना ही गुणवान को जानना है। ये नासिका आदि सात होता एक दूसरे के गुणों को कभी नहीं जान पाते हैं (इसीलिये कहा गया है कि ये
ब्राह्मण ने कहा- प्रिये! (यहाँ देखने का अर्थ है, जानता) गुणों को न जानना ही गणुवान को न जानना कहलाता है और गुणों को जानना ही गुणवान को जानना है। ये नासिका आदि सात होता एक दूसरे के गुणों को कभी नहीं जान पाते हैं (इसीलिये कहा गया है कि ये एक दूसरे को नहीं देखते हैं)।
इस श्लोक का सारांश इस प्रकार समझना चाहिये- पहले आत्मा मन को उच्चारण करने के लिये प्रेरित करता है, तब मन जठराग्रि को प्रज्वलित करता है। जठराग्रि के प्रज्वलित होने पर उसके प्रभाव से प्राणवायु अपान वायु से जा मिलता है। उसके बाद वह वायु उदान वायु के प्रभाव से ऊपर चढ़कर मस्तक में टकराता है और फिर व्यान वायु के प्रभाव से कण्ठतालु आदि स्थानों में होकर वेग से वर्ण उत्पन्न कराता हुआ वैखरी रूप से मनुष्यों के कान में प्रविष्ट होता है। जब प्राणवायु का वेग निवृत्त हो जाता है, तब वह फिर समान भाव से चलने लगता है।एक दूसरे को नहीं देखते हैं)।
जीभ, आँख, कान, त्वचा, मन और बुद्धि- ये गन्धों को नहीं समझ पाते, किंतु नासिका उसका अनुभव करती है।
जीभ, आँख, कान, त्वचा, मन और बुद्धि- ये गन्धों को नहीं समझ पाते, किंतु नासिका उसका अनुभव करती है।
नासिका, कान, नेत्र, त्वचा, मन और बुद्धि- ये रसों का आस्वादन नहीं कर सकते। केवल जिह्वा उसका स्वाद ले सकती है।
नासिका, कान, नेत्र, त्वचा, मन और बुद्धि- ये रसों का आस्वादन नहीं कर सकते। केवल जिह्वा उसका स्वाद ले सकती है।
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१५:३०, २४ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

द्वाविंश (22) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: द्वाविंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


मन-बुद्धि और इन्द्रिय रूप सप्त होताओं का, यज्ञ तथा मन- इन्द्रिय संवाद का वर्णन

ब्राह्मण ने कहा- सुभगे! इसी विषय में इस पुरातन इतिहास का भी उदाहरण दिया जाता है। सात होताओं के यज्ञ का जैसा विधान है, उसे सुनो। नासिका, नेत्र, जिह्वा, त्वचा और पाँचवाँ कान, मन और बुद्धि- ये सात होता अलग-अलग रहते हैं। यद्यपि येसभी सूक्षम शरीर में ही निवास करते हैं तो भी एक दूसरे को नहीं देखते हैं। शोभने! इन सात होताओं को तुम स्वभाव से ही पहचानों। ब्राह्मणी ने पूछा- भगवन! जब सभ सूक्षम शरीर में ही रहते हैं, तब एक दूसरे को देख क्यों नहीं पाते? प्रभो! उनके स्वभाव कैसे हैं? यह बताने की कृपा करें। ब्राह्मण ने कहा- प्रिये! (यहाँ देखने का अर्थ है, जानता) गुणों को न जानना ही गणुवान को न जानना कहलाता है और गुणों को जानना ही गुणवान को जानना है। ये नासिका आदि सात होता एक दूसरे के गुणों को कभी नहीं जान पाते हैं (इसीलिये कहा गया है कि ये एक दूसरे को नहीं देखते हैं)। जीभ, आँख, कान, त्वचा, मन और बुद्धि- ये गन्धों को नहीं समझ पाते, किंतु नासिका उसका अनुभव करती है। नासिका, कान, नेत्र, त्वचा, मन और बुद्धि- ये रसों का आस्वादन नहीं कर सकते। केवल जिह्वा उसका स्वाद ले सकती है। नासिका, जीभ, कान, त्वचा, मन और बुद्धि- ये रूप का ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकते, किंतु नेत्र इनका अनुभव करते हैं। नासिका, जीभ, आँख, कान, बुद्धि और मन- ये स्पर्श का अनुभव नहीं कर सकते, किंतु त्वचा को उसका ज्ञान होता है। नासिका, जीभ, आँख, त्वचा, मन और बुद्धि- इन्हें शब्द का ज्ञान नहीं होता है, किंतु कान को होता है। नासिका, जीभ, आँख, त्वचा, कान और बुद्धि- ये संशय (संकल्प-विकल्प) नहीं कर सकते। यह काम मन का है। इसी प्रकार नासिका, जीभ, आँख, त्वचा, कान, और मन- वे किसी बात का निश्चय नहीं कर सकते। निश्चयात्मक ज्ञान तो केवल बुद्धि को होता है। भामिनि! इस विषय में इन्द्रियों और मन के संवादरूप एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। एक बार मन ने इन्द्रियों से कहा- मेरी सहायता के बिना नासिका सूँघ नहीं सकती, जीभ रस का स्वाद नहीं ले सकती, आँख रूप नहीं देख सकती, त्वचा स्पशर्् का अनुभव नहीं कर सकती और कानों को शब्द नहीं सुनायी दे सकता। इसलिये मैं सब भूतों में श्रेष्ठ और सनातन हूँ। ‘मेरे बिना समस्त इन्द्रियाँ बुझी लपटों वाली आग और सूने घर की भाँति सदा श्रीहीन जान पड़ती हैं।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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