"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 349 श्लोक 17-37" के अवतरणों में अंतर

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तीन सौ उनचासवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (मोक्षधर्मपर्व)

महाभारत: शान्तिपर्व : तीन सौ उनचासवाँ अध्याय: श्लोक 25-56 का हिन्दी अनुवाद


‘तुम संसार की सृष्टिरूप अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिये ब्रह्माजी के भीतर प्रवेश करो।’ ईश्वर का यह आदेश पाकर बुद्धि शीघ्र ही ब्रह्माजी में प्रवेश कर गयी। ‘जब ब्रह्माजी सृष्टि विषयकबुद्धि से संयुक्त हो गये, तब श्रीहरि ने पुनः उनकी ओर स्नेपूर्ण दृष्टि से देखा और फिर इस प्रकार कहा- ‘अब तुम इन नाना प्रकार की प्रजाओं की सृष्टि करो’। ‘तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर उन्होनेश्रीहरि की आज्ञा शिरोधार्य की। इस प्रकार उन्हें सृष्टि का आदेश देकर भगवान् वहीं अन्तर्धान हो गये। ‘तदनन्तर कुछ काल के बाद भगवान् के मन में फिर दूसरा विचार उठा। वे सोचने लगे, परमेष्ठी ब्रह्मा ने इन समसत प्रजाओें की सृष्टि तो कर दी। ‘किंतु दैत्य, दानव, गन्धर्व और राक्षसों से व्याप्त हुई यह तपस्विनी पृथ्वी भार से पीडि़त हो गयी है।। ‘इस पृथ्वी पर बहुत से ऐसे बलवान् दैत्य, दानव और राक्षस होंगे, जो तपस्या में प्रवृत्त हो उत्तमोत्तम वर प्राप्त करेंगे। ‘वरदान से घमंड में आकर वे समस्त दानव निश्चय ही देव समूहों तथा तपोधन ऋषियों को बाधा पहुँचायेंगे। ‘अतः अब मुण्े पृथ्वी पर क्रमशः नाना अवतार धारण करके इसके भार को उतारना उचित होगा। ‘पापियों को दण्ड देने और साधु पुरुषों पर अनुग्रह करने से यह तपस्विनी सत्य स्वरूपा पृथ्वी बल से टिकी रह सकेगी। ‘मैं पाताल में शेषनाग के रूप से रकहर इस पृथ्वी को धारण करता हूँ और मेरे द्वारा धारित होकर यह सम्पूर्ण चराचर जगत् को धारण करती है। ‘इसलिये मैं अवतार लेकर इस पृथ्वी की रक्षा अवश्य करूँगा। ऐसा सोच -विचार कर भगवान् मधुसूदन ने जगत् के लिये अवतार ग्रहण करने के निमित्त अपने अनेक रूपों की सृष्टि की अर्थात् वाराह, नरसिंह, वामन एवं मनुष्यरूपों का स्मरण किया। उन्होंने यह निश्चय किया था कि मुण्े इन अवतारों द्वारा उद्दण्ड दैत्यों का वध करना है। ‘तदनन्तर जगत्स्रष्टा श्रीहरि ने ‘भोः’ शब्द से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनित करते हुए सरस्वती (वाणी) का उच्चारण किया। इससे वहाँ सारस्वत का आविर्भाव हुआ। सरस्वती या वाणी से उत्पन्न हुए उस शक्शिाली पुत्र का नाम ‘अपान्तरतमा’ हुआ। ‘वे अपान्तरतमा भूत, वर्तमान और भविष्य के ज्ञाता, सत्सवादी तथा दृढ़ता पूर्वक व्रत का पालन करने वाले थे। मसतक झुकाकर खड़े हुए उस पुत्र से देवताओं के आदिकारण अविनाशी श्रीहरि ने कहा-। ‘बुद्धिमानों में श्रेष्ठ मुने ! तुम्हें वेदों की व्याख्या के लिये ऋक्, साम, यजुष् आदि श्रुतियों का पृथक्-पृथक् संग्रह करना चाहिये। अतः तुम मेरी आज्ञा के अनुसार कार्य करो। मुझे तुमसे इतना ही कहना है’। ‘अपान्तरतमा ने स्वासम्भु मन्वन्तर में भगवान् की आज्ञा के अनुसार वेदों का विभाग किया। उनके इस कर्म से तथा उनके द्वारा की हुई उत्तम तपस्या, यम और नियम से भी भगवान् श्रीहरि बहुत संतुष्ट हुए और बोले - ‘बेटा ! तुम सभी मन्वन्तरों में इसी प्रकार धर्म के प्रवर्तक होओगे’।। ब्रह्मन् ! तुम सदा ही अविचल एवं अजेय बने रहोगे। फिर द्वापर और कलियुग की संधि का समय आने पर भरतवंश में कुरुवंशी क्षत्रिय होंगे। वे महामनस्वी राजा समसत भूमण्डल में विख्यात होंगे।। ‘द्विजश्रेष्ठ ! उनमें से जो लोग तुम्हारी संतानों के वंशज होंगे, उनमें परस्पर विनाश के लिये फूट हो जायगी। तुम्हारे सहयोग के बिना उनमें विग्रह होगा। ‘उस समय भी तुम तपोबल से सम्पन्न हो वेदों के अनेक विभाग करोगे। उस समय कलियुग आ जाने पर तुम्हारे यारीर का वर्ण काला होगा। ‘तुम नाना प्रकार के धर्मों के प्रवर्तक, ज्ञानदाता औ तपस्वी होओगे, परंतु सर्वथा मुक्त नहीं रहोगे। ‘तुम्हारा पुत्र भगवान् महेश्वर की कृपा से वीतराग होकर परमात्मा स्वरूप हो जायगा। मेरी यह बात टल नहीं सकती। ‘जिन्हें ब्राह्मण लोग ब्रह्माजी का मानसपुत्र कहते हैं, जो उत्तम बुद्धि से युक्त, तपस्या की निधि एवं सर्वश्रेष्ठ वसिष्ठ मुनि के नाम से प्रसिद्ध हैं और जिनका तेज भगवान् सूर्य से भी बढ़कर प्रकाशित होता है, उन्हीं ब्रह्मर्षि वसिष्ठ के वंश में पराशर नाम वाले महान् प्रभावशाली महर्षि होंगे। वे वैदिक ज्ञान के भण्डार, मुनियों में श्रेष्ठ, महान् तपस्वी एवं तपस्या के आवास स्थान हांेगे। वे ही पराशर मुनि उस समय तुम्हारे पिता होंगे। ‘उन्हीं ऋषि से तुम पिता के घर में रहने वाली एक कुमारी कन्या के पुत्ररूप से जन्म लोगे और कानीगर्भ (कन्या की संतान) कहलाओगे। ‘भूत, वर्तमान और भविष्य के सभी विषयों में तुम्हारा संशय नष्ट हो जायगा। पहले जो सहस्त्र युगों के कल्प व्यतीत हो चुके हैं, उन सबको मेरी आज्ञा से तुम देख सकोगे और तपोबल से सम्पनन बने रहोगे। भविष्य में होने वाले अने कल्प भी तुम्हें दृष्टिगोचर होंगे। ‘मुने ! तुम निरन्तर मेरा चिन्तन करने से जगत् में मुझ अनादि और अनन्त परमेश्वर को चक्र हाथ में लिये देखोगे। मेरी यह बात कभी मिथ्या नहीं होगी। ‘महान् शक्तिशाली मुनीश्वर जगत् में तुम्हारी अनुपम ख्याति होगी। वत्स ! जब सूर्यपुत्र शनैश्चर मन्वन्तर के प्रवर्तक हो महामनु के पद पर प्रतिष्ठित होंगे, उस मन्वन्तर में तुम्हीं मेरे कृपाप्रसाद से मन्वादि गणों में प्रधान होओगे। इसमे संशय नहीं है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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