"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-26": अवतरणों में अंतर
[अनिरीक्षित अवतरण] | [अनिरीक्षित अवतरण] |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) छो (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}") |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) No edit summary |
||
(इसी सदस्य द्वारा किए गए बीच के २ अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति ५: | पंक्ति ५: | ||
उमा ने पूछा- भगवन्! देवदेवेश्वर! जीव अपने कर्म से यथायोग्य शुभाशुभ फल पाता है- यह निश्चय हुआ।दूसरों का अप्रिय करके भी इस शरीर में स्थित हुआ जीवात्मा किस प्रकार शुभ फल पाता है? यह मुझे बताने की कृपा करे। श्रीमहेश्वर ने कहा-महाभागे! ऐसा भी होता है कि शुभ संकल्प के बल से मनुष्यों के हित के लिये उन्हें दुःख देकर भी पुरूष सुख प्राप्त कर सके। राजा प्रजा को अपराध के कारण दण्ड देता और फटकारता है तो भी वह पुण्य का ही भागी होता है। गुरू अपने शिष्यों को और स्वामी अपने सेवकों को उनके सुधार के लिये यदि डाँटता-फटकारता है तो इससे सुख का ही भागी होता है। जो कुमार्ग पर चल रहे हों, उनका शासन करने वाला राजा धर्म का फल पाता है। चिकित्सक रोगी की चिकित्सा करते समय उसे कष्ट ही देता है तथापि रोग मिटाने का प्रयत्न करने के कारण वह हित का ही भागी होता है। इस प्रकार दूसरे लोग भी यदि शुद्ध हृदय से किसी को कष्ट पहुँचाते हैं तो स्वर्गलोग में जाते हैं। भद्रे! जहाँ किसी एक दुष्ट के मारे जाने पर बहुत-से सत्पुरूषों को सुख प्राप्त होता हो तो उसके मारने पर पातक क्या लगेगा, उलटे धर्म होता है। यदि उद्देश्य कुटिलतापूर्ण न हो, अपितु धर्म के गौरव से शुद्ध हो तो पापियों के प्रति ऐसा व्यवहार करके भी कहीं दोष की प्राप्ति नहीं होती।। उमा ने पूछा-इस जगत् में रहने वाले चार प्रकार के प्राणियों को कैसे ज्ञान प्राप्त होता है! वह कृत्रिम है या स्वाभाविक है? यह मुझे बताने की कृपा करें। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! यह जगत् स्थावर और जंगम के भेद से दो प्रकार का पाया जाता है! इसमें प्रजा की क्रमशः चार योनियाँ हैं- जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज। इनमें से वृक्ष, लता, वल्ली और तृण आदि उद्भिज्ज कहलाते हैं। डाँस और जूँ आदि कीट जाति के प्राणी स्वेदज कहे गये हैं। जिनके पंख होते हैं और कान के स्थान में एक छिद्र मात्र होता है, ऐसे प्राणी अण्डज माने गये हैं। पशु व्याल (हिंसक जन्तु बाघ, चीते आदि) और मनुष्य- इनको जरायुज समझो। इस तरह आत्मा इन चार प्रकार की जातियों का आश्रय लेकर रहता है। प्रिये! पृथ्वी और जल के संयोग से उद्भिज्ज प्राणियों की उत्पत्ति होती है तथा स्वेदन जीव सर्दी और गर्मी के संयोग से जीवन ग्रहण करते हें। क्लेद और बीज के संयोग से अण्डज प्राणियों का जन्म होता है और जरायुज प्राणी रज-वीर्य के संयोग से उत्पन्न होते हैं। समस्त जरायुजों में मनुष्य का स्थान सबसे ऊँचा है। देवि! अब एकाग्रचित्त होकर तम की उत्पत्ति सुनो। लोक में दो प्रकार का तम बताया गया है- रात्रि का और देहजनित लोक में ज्योति या तेज के द्वारा रात्रि का अन्धकार नष्ट हो जाता है, परंतु जो देहजनित तम है, वह सम्पूर्ण ज्योतियों के प्रकाशित होने पर भी नहीं शान्त होता। लोककर्ता पितामह ब्रह्माजी को जब उस तम का नाश करने के लिये कोई उपाय नहीं सूझा, तब वे बड़ी भारी तपस्या करने लगे। तपस्या करते समय उनके मुख से छहों अंगों और उपनिषदों सहित चारों वेट प्रकट हुए। उन्हें पाकर ब्रह्माजी बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने लोकों के हित की कामना से वेदों के ज्ञान द्वारा ही उस देहजनित घोर तम का नाश किया। | उमा ने पूछा- भगवन्! देवदेवेश्वर! जीव अपने कर्म से यथायोग्य शुभाशुभ फल पाता है- यह निश्चय हुआ।दूसरों का अप्रिय करके भी इस शरीर में स्थित हुआ जीवात्मा किस प्रकार शुभ फल पाता है? यह मुझे बताने की कृपा करे। श्रीमहेश्वर ने कहा-महाभागे! ऐसा भी होता है कि शुभ संकल्प के बल से मनुष्यों के हित के लिये उन्हें दुःख देकर भी पुरूष सुख प्राप्त कर सके। राजा प्रजा को अपराध के कारण दण्ड देता और फटकारता है तो भी वह पुण्य का ही भागी होता है। गुरू अपने शिष्यों को और स्वामी अपने सेवकों को उनके सुधार के लिये यदि डाँटता-फटकारता है तो इससे सुख का ही भागी होता है। जो कुमार्ग पर चल रहे हों, उनका शासन करने वाला राजा धर्म का फल पाता है। चिकित्सक रोगी की चिकित्सा करते समय उसे कष्ट ही देता है तथापि रोग मिटाने का प्रयत्न करने के कारण वह हित का ही भागी होता है। इस प्रकार दूसरे लोग भी यदि शुद्ध हृदय से किसी को कष्ट पहुँचाते हैं तो स्वर्गलोग में जाते हैं। भद्रे! जहाँ किसी एक दुष्ट के मारे जाने पर बहुत-से सत्पुरूषों को सुख प्राप्त होता हो तो उसके मारने पर पातक क्या लगेगा, उलटे धर्म होता है। यदि उद्देश्य कुटिलतापूर्ण न हो, अपितु धर्म के गौरव से शुद्ध हो तो पापियों के प्रति ऐसा व्यवहार करके भी कहीं दोष की प्राप्ति नहीं होती।। उमा ने पूछा-इस जगत् में रहने वाले चार प्रकार के प्राणियों को कैसे ज्ञान प्राप्त होता है! वह कृत्रिम है या स्वाभाविक है? यह मुझे बताने की कृपा करें। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! यह जगत् स्थावर और जंगम के भेद से दो प्रकार का पाया जाता है! इसमें प्रजा की क्रमशः चार योनियाँ हैं- जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज। इनमें से वृक्ष, लता, वल्ली और तृण आदि उद्भिज्ज कहलाते हैं। डाँस और जूँ आदि कीट जाति के प्राणी स्वेदज कहे गये हैं। जिनके पंख होते हैं और कान के स्थान में एक छिद्र मात्र होता है, ऐसे प्राणी अण्डज माने गये हैं। पशु व्याल (हिंसक जन्तु बाघ, चीते आदि) और मनुष्य- इनको जरायुज समझो। इस तरह आत्मा इन चार प्रकार की जातियों का आश्रय लेकर रहता है। प्रिये! पृथ्वी और जल के संयोग से उद्भिज्ज प्राणियों की उत्पत्ति होती है तथा स्वेदन जीव सर्दी और गर्मी के संयोग से जीवन ग्रहण करते हें। क्लेद और बीज के संयोग से अण्डज प्राणियों का जन्म होता है और जरायुज प्राणी रज-वीर्य के संयोग से उत्पन्न होते हैं। समस्त जरायुजों में मनुष्य का स्थान सबसे ऊँचा है। देवि! अब एकाग्रचित्त होकर तम की उत्पत्ति सुनो। लोक में दो प्रकार का तम बताया गया है- रात्रि का और देहजनित लोक में ज्योति या तेज के द्वारा रात्रि का अन्धकार नष्ट हो जाता है, परंतु जो देहजनित तम है, वह सम्पूर्ण ज्योतियों के प्रकाशित होने पर भी नहीं शान्त होता। लोककर्ता पितामह ब्रह्माजी को जब उस तम का नाश करने के लिये कोई उपाय नहीं सूझा, तब वे बड़ी भारी तपस्या करने लगे। तपस्या करते समय उनके मुख से छहों अंगों और उपनिषदों सहित चारों वेट प्रकट हुए। उन्हें पाकर ब्रह्माजी बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने लोकों के हित की कामना से वेदों के ज्ञान द्वारा ही उस देहजनित घोर तम का नाश किया। | ||
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत | {{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-25|अगला=महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-27}} | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
पंक्ति १२: | पंक्ति १२: | ||
{{सम्पूर्ण महाभारत}} | {{सम्पूर्ण महाभारत}} | ||
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत | [[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत अनुशासन पर्व]] | ||
__INDEX__ | __INDEX__ | ||
__NOTOC__ | __NOTOC__ |
०५:५८, २७ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
प्राणियों के चार भेदों का निरुपण,पुर्वजन्म की स्मृति का रहस्य,मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्रदर्शन,दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन
उमा ने पूछा- भगवन्! देवदेवेश्वर! जीव अपने कर्म से यथायोग्य शुभाशुभ फल पाता है- यह निश्चय हुआ।दूसरों का अप्रिय करके भी इस शरीर में स्थित हुआ जीवात्मा किस प्रकार शुभ फल पाता है? यह मुझे बताने की कृपा करे। श्रीमहेश्वर ने कहा-महाभागे! ऐसा भी होता है कि शुभ संकल्प के बल से मनुष्यों के हित के लिये उन्हें दुःख देकर भी पुरूष सुख प्राप्त कर सके। राजा प्रजा को अपराध के कारण दण्ड देता और फटकारता है तो भी वह पुण्य का ही भागी होता है। गुरू अपने शिष्यों को और स्वामी अपने सेवकों को उनके सुधार के लिये यदि डाँटता-फटकारता है तो इससे सुख का ही भागी होता है। जो कुमार्ग पर चल रहे हों, उनका शासन करने वाला राजा धर्म का फल पाता है। चिकित्सक रोगी की चिकित्सा करते समय उसे कष्ट ही देता है तथापि रोग मिटाने का प्रयत्न करने के कारण वह हित का ही भागी होता है। इस प्रकार दूसरे लोग भी यदि शुद्ध हृदय से किसी को कष्ट पहुँचाते हैं तो स्वर्गलोग में जाते हैं। भद्रे! जहाँ किसी एक दुष्ट के मारे जाने पर बहुत-से सत्पुरूषों को सुख प्राप्त होता हो तो उसके मारने पर पातक क्या लगेगा, उलटे धर्म होता है। यदि उद्देश्य कुटिलतापूर्ण न हो, अपितु धर्म के गौरव से शुद्ध हो तो पापियों के प्रति ऐसा व्यवहार करके भी कहीं दोष की प्राप्ति नहीं होती।। उमा ने पूछा-इस जगत् में रहने वाले चार प्रकार के प्राणियों को कैसे ज्ञान प्राप्त होता है! वह कृत्रिम है या स्वाभाविक है? यह मुझे बताने की कृपा करें। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! यह जगत् स्थावर और जंगम के भेद से दो प्रकार का पाया जाता है! इसमें प्रजा की क्रमशः चार योनियाँ हैं- जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज। इनमें से वृक्ष, लता, वल्ली और तृण आदि उद्भिज्ज कहलाते हैं। डाँस और जूँ आदि कीट जाति के प्राणी स्वेदज कहे गये हैं। जिनके पंख होते हैं और कान के स्थान में एक छिद्र मात्र होता है, ऐसे प्राणी अण्डज माने गये हैं। पशु व्याल (हिंसक जन्तु बाघ, चीते आदि) और मनुष्य- इनको जरायुज समझो। इस तरह आत्मा इन चार प्रकार की जातियों का आश्रय लेकर रहता है। प्रिये! पृथ्वी और जल के संयोग से उद्भिज्ज प्राणियों की उत्पत्ति होती है तथा स्वेदन जीव सर्दी और गर्मी के संयोग से जीवन ग्रहण करते हें। क्लेद और बीज के संयोग से अण्डज प्राणियों का जन्म होता है और जरायुज प्राणी रज-वीर्य के संयोग से उत्पन्न होते हैं। समस्त जरायुजों में मनुष्य का स्थान सबसे ऊँचा है। देवि! अब एकाग्रचित्त होकर तम की उत्पत्ति सुनो। लोक में दो प्रकार का तम बताया गया है- रात्रि का और देहजनित लोक में ज्योति या तेज के द्वारा रात्रि का अन्धकार नष्ट हो जाता है, परंतु जो देहजनित तम है, वह सम्पूर्ण ज्योतियों के प्रकाशित होने पर भी नहीं शान्त होता। लोककर्ता पितामह ब्रह्माजी को जब उस तम का नाश करने के लिये कोई उपाय नहीं सूझा, तब वे बड़ी भारी तपस्या करने लगे। तपस्या करते समय उनके मुख से छहों अंगों और उपनिषदों सहित चारों वेट प्रकट हुए। उन्हें पाकर ब्रह्माजी बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने लोकों के हित की कामना से वेदों के ज्ञान द्वारा ही उस देहजनित घोर तम का नाश किया।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख