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|प्रकाशक=नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
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|संस्करण=सन्‌ 1965 ईसवी
|संस्करण=सन्‌ 1967 ईसवी
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|उपलब्ध=भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
|उपलब्ध=भारतडिस्कवरी पुस्तकालय

०७:३६, २७ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

लेख सूचना
मोज़ेइक
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 9
पृष्ठ संख्या 426
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक राम प्रसाद त्रिपाठी
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1967 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक विश्वंभरप्रसाद गुप्त

मोज़ेइक (चिंत्तन संपूर्ति)
किसी अजैविक पदार्थ के छोटे-छोटे टुकड़े सधन जमा कर, किसी सतह को सजाने की कला मोजेइक या चिंत्तन संपूर्ति कहलाती है। इस प्रकार सजी हुई सतह के लिये भी मोजेइक शब्द का प्रयोग होने लगा है। अजैविक पदार्थ में प्राय: पत्थर, काँच, सीपी, या टाइल का प्रयोग होता है। हवाई सर्वेक्षण में किसी क्षेत्र के अनेक छोटे-छोटे भागों के फोटो लेकर, उन्हें परस्पर मिला कर रखने की तकनीक भी मोजेइक कहलाती है।

मेसोपोटामिया में लगभग 4,000 वर्ष ईसा पूर्व बने विशाल प्रांगण एवं स्तंभो के उवशेषों से सिद्ध होता है कि उस प्राचीन काल में भी यह कला वहाँ विद्यामान थी। इन निर्माण में सभी खड़ी सतहों पर लाल काले और सफेद टुकड़ों से युक्त, अत्यंत अलंकृत आवरण चढ़ाया हुआ था। लगभग 30 शती ईसा पूर्व यह कला वास्तुकृतियों में व्यापक प्रवेश पा चुकी थी। किंतु 26 शती ईसा पूर्व के बाद भी इस कला के विशष प्रचलित रहने के कोई प्रमाण नहीं मिलते। हाँ, फर्नीचन पर मणियां और कांच आदि जजमा कर पच्चीकारी अवश्य की जाती थी।

सिंधु-घाटी सभ्यता में चित्तल संपूर्ति के सादे नमूने मिलते हैं, जिनमें प्राय: सीपी का उपयोग होता था। एजिजयन संस्कृत में पच्चीकारी का भी बहुत कम प्रचलन था, किंतु उसमें चिंत्तन संपूर्ति के कुछ उत्कृष्ट प्रयोग अवश्य मिलते हैं, जिनमें विविध वस्तुओं के संयोग से द्दश्यावलियां तैयार की हुई थीं।

यूनानी और रोमीय सभ्यता में और भी मामूली प्रयोग हुए। पानी के बहाव से घिसे हुए गोलाश्म जमा कर क्रीट में भांति भांति की आकृतियाँ बनाई जाती थीं। बाद में उत्तर कांस्य-युग में, अर्थात्‌ 1,600-1,000 ईसा पूर्व में इस प्रकार के फर्श यूनान में भी बने। रिनेसांकालीन धूपछाहीं रंगसाजी ने चित्तल संपूर्ति का उपयोग बहुत कुछ सीमित कर दिया ओर वेनिस तथा रोम के कारखानों का कार्यक्षेत्र उन्हीं नगरों तक ही रह गया। 19वीं शती में फिर इस ओर रूचि बढ़ी और धर्मिक प्रोत्साहन पा जाने पर रूस, फ्रांस और इंग्लैंड में भी इसके कारखाने स्थापित हुए।

आधुनिक चित्तल सूंर्ति प्राय: सादी, या सफेद, या रंग मिली हुई सीमेंट में सफेद, काली, या अन्य किसी रंग की संगमर्मर की बजरी मिला कर बनाई जाती है। कई रंगों की बजरी मिला कर भी डाली जाती है। बजरी के दाने 1/19 इंच से लेकर 3/8 इंच तक के, एक माप, या अनेक मापों के मिला कर डाले जा सकते हैं। चित्तल टाइलें भी विविध रंगों और कई मापों की मिलती है। फर्श में पहले निबल मिश्रण की कंक्रीट की तह प्राय: तीन ईचं मोटी डाली जाती है, जिसे आधार कहते हैं। इस पर सीमेंट के सबल मसाले से टाइलें जड़ दी जाती हैं। यदि पूर्व-निर्मित टाइलें न लगा कर स्थान पर ही चित्तल फर्श डालना हो, तो आधार पर एक से डेढ़ इंच तक मोटी सबल मिश्रण की कंक्रीट डाली जाती है, जिसकी सतह खुरदरी रखी जाती है। इस पर यथानिर्दिष्ट, 1/4 इंच से 1/2 इंच तक मोटी तह संगमर्मर की बजरी से युक्त सीमेंट डाली जाती है।श् दूसरे दिन कार्बोरंडम की बट्टियों से सतह घिस दी जाती है और उसमें उसी रंग की सीमेंट रगड़ दी जाती है ताकि यदि कोई गड्ढे रह गए हो, या कोई दाना उखड़ गया हो, तो वह जगह भी भर जाय। फिर हफ़ते, दस दिन तक तरी रखने के बाद पुन: घिसाई करके पॉलिश कर दी जाती है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ