"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-63": अवतरणों में अंतर
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== | == पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)== | ||
<h4 style="text-align:center;">सांख्य ज्ञान का प्रतिपादन करते हुए अव्यक्तादि चौबीस तत्वों की उत्पति आदि का वर्णन</h4> | <h4 style="text-align:center;">सांख्य ज्ञान का प्रतिपादन करते हुए अव्यक्तादि चौबीस तत्वों की उत्पति आदि का वर्णन</h4> | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-63 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
देवता, मनुष्य तथा तिर्यक् आदि योनियों में जो चराचर प्राणी हैं, वे आदि काल से ही इन तीनों गुणों द्वारा संयुक्त एवं व्याप्त हैं। अब मैं महत् आदि तत्वों के लक्षण बताऊँगा। बुद्धि के द्वारा जो विवेक और ज्ञान होता है, वही शरीर में महतत्व का लक्षण है। महान्, बुद्धि, मति और प्रजा- ये महतत्व के नाम माने गये हैं। संक्षेप से लक्षण द्वारा अहंकार का विशेष ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। अहंकार से ही प्राणियों की नाना प्रकार की सृष्टि होती है। अहंकार की निवृत्ति मोक्ष की प्राप्ति कराने वाली होती है। आकाश, वायु, अग्नि, जल और पाँचवीं पृथ्वी- ये पाँच महाभूत हैं। ये ही समस्त प्राणियों की उत्पत्ति और प्रलय के स्थान हैं। शब्द, श्रवणेन्द्रिय तथा इन्द्रियों के छिद्र- ये तीनों आकाश से प्रकट हुए हैं। स्पर्श और प्राणियों की चेष्ट- ये वायु के गुण माने गये हैं। रूप, पाक, नेत्र और ज्योति- ये चार तेज के गुण हैं। रस, स्नेह, जिह्वा और शीतलता- ये चार जल के गुण हैं। गन्ध, घ्राणेन्द्रिय और शरीर- ये पृथ्वी के तीन गुण हैं। देवि! इस प्रकार पाँचों भूतों के समस्त गुण विख्यात हैं। उत्तरोत्तर भूत पूर्व-पूर्व भूत के गुण ग्रहण करते हैं। इसीलिये यहाँ प्राणियों की सृष्टि अनेक गुणों से युक्त दिखायी देती है। कमलेक्षणे! कुछ अयोग्य मनुष्य जो जल में सुगन्ध या दुर्गन्ध पाकर गन्ध को जल का गुण बताते हैं, उसे विद्वान् पुरूष नहीं स्वीकार करते हैं। जल में गन्ध नहीं है, गन्ध पृथ्वी का ही गुण है। गन्ध में भूमि, रस में जल तथा नेत्र में तेज की स्थिति है। प्राण और अपान का आश्रय वायु है। देहधारियों के शरीर में जितने छिद्र हैं, उन सबमें आकाश व्याप्त है। केश, हड्डी, नख, दाँत, त्वचा, हाथ, पैर, सिर, पीठ, पेट, कमर और गर्दन- ये सब भूमि के कार्य माने गये हैं। इस शरीर में जो कुछ भी धातु, दोष और मल सम्बन्धी वस्तुएँ हैं, उन सबको पांच भौतिक समझो। शरीरों के द्वारा ही इस विश्व पर पंचभूतों का स्वामित्व है। कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका - ये ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। हाथ,पैर, वाक्, मेढ (लिंग) और गुदा- ये कर्मेन्द्रियाँ हैं। शब्द, स्पर्श, रूप्, रस और पाँचवाँ गन्ध- इन्हें ज्ञानेन्द्रियों के विषय समझें। ये पाँचों भूतों से प्रकट हुए हैं। वाक्य, क्रिया, गति, प्रीति और उत्सर्ग- ये पाँच कर्मेन्द्रियों के विषय जानें। ये भी पन्चभूतों से उत्पन्न हुए माने गये हैं। समस्त इन्द्रियों का स्वामी या पे्ररक मन कहलाता है। उसका लक्षण है प्रार्थना (किसी वस्तु की चाह) मन को भी इन्द्रिय ही माना गया है। जो प्रभु (आत्मा) मन के नियन्त्रण और सृष्टि में कारण है, वही मनसहित सम्पूर्ण भूतों को सदा विभिन्न कार्यों में नियुक्त करता है। इन्द्रिय, इन्द्रियों के विषय, स्वभाव, चेतना, धृति तथा भूताभूत- विचार- ये सब मिलकर शरीर हैं। शरीर से शरीरधारी आत्मा है, जो शरीर का ही आश्रय लेकर रहता है। जो शरीर और शरीरी का अन्तर जानता है, वही मुनि है। रस, स्पर्श, गन्ध, रूप और शब्दब से रहित, इन्द्रियहीन अशरीरी आत्मा को शरीर के भीतर देखने की इच्छा करे। जो सम्पूर्ण मत्र्य शरीरों में अव्यक्त भाव से स्थित एवं अमर है, उस परमात्मा को जो देखता है, वह बन्धनों से मुक्त हो जाता है। | देवता, मनुष्य तथा तिर्यक् आदि योनियों में जो चराचर प्राणी हैं, वे आदि काल से ही इन तीनों गुणों द्वारा संयुक्त एवं व्याप्त हैं। अब मैं महत् आदि तत्वों के लक्षण बताऊँगा। बुद्धि के द्वारा जो विवेक और ज्ञान होता है, वही शरीर में महतत्व का लक्षण है। महान्, बुद्धि, मति और प्रजा- ये महतत्व के नाम माने गये हैं। संक्षेप से लक्षण द्वारा अहंकार का विशेष ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। अहंकार से ही प्राणियों की नाना प्रकार की सृष्टि होती है। अहंकार की निवृत्ति मोक्ष की प्राप्ति कराने वाली होती है। आकाश, वायु, अग्नि, जल और पाँचवीं पृथ्वी- ये पाँच महाभूत हैं। ये ही समस्त प्राणियों की उत्पत्ति और प्रलय के स्थान हैं। शब्द, श्रवणेन्द्रिय तथा इन्द्रियों के छिद्र- ये तीनों आकाश से प्रकट हुए हैं। स्पर्श और प्राणियों की चेष्ट- ये वायु के गुण माने गये हैं। रूप, पाक, नेत्र और ज्योति- ये चार तेज के गुण हैं। रस, स्नेह, जिह्वा और शीतलता- ये चार जल के गुण हैं। गन्ध, घ्राणेन्द्रिय और शरीर- ये पृथ्वी के तीन गुण हैं। देवि! इस प्रकार पाँचों भूतों के समस्त गुण विख्यात हैं। उत्तरोत्तर भूत पूर्व-पूर्व भूत के गुण ग्रहण करते हैं। इसीलिये यहाँ प्राणियों की सृष्टि अनेक गुणों से युक्त दिखायी देती है। कमलेक्षणे! कुछ अयोग्य मनुष्य जो जल में सुगन्ध या दुर्गन्ध पाकर गन्ध को जल का गुण बताते हैं, उसे विद्वान् पुरूष नहीं स्वीकार करते हैं। जल में गन्ध नहीं है, गन्ध पृथ्वी का ही गुण है। गन्ध में भूमि, रस में जल तथा नेत्र में तेज की स्थिति है। प्राण और अपान का आश्रय वायु है। देहधारियों के शरीर में जितने छिद्र हैं, उन सबमें आकाश व्याप्त है। केश, हड्डी, नख, दाँत, त्वचा, हाथ, पैर, सिर, पीठ, पेट, कमर और गर्दन- ये सब भूमि के कार्य माने गये हैं। इस शरीर में जो कुछ भी धातु, दोष और मल सम्बन्धी वस्तुएँ हैं, उन सबको पांच भौतिक समझो। शरीरों के द्वारा ही इस विश्व पर पंचभूतों का स्वामित्व है। कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका - ये ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। हाथ,पैर, वाक्, मेढ (लिंग) और गुदा- ये कर्मेन्द्रियाँ हैं। शब्द, स्पर्श, रूप्, रस और पाँचवाँ गन्ध- इन्हें ज्ञानेन्द्रियों के विषय समझें। ये पाँचों भूतों से प्रकट हुए हैं। वाक्य, क्रिया, गति, प्रीति और उत्सर्ग- ये पाँच कर्मेन्द्रियों के विषय जानें। ये भी पन्चभूतों से उत्पन्न हुए माने गये हैं। समस्त इन्द्रियों का स्वामी या पे्ररक मन कहलाता है। उसका लक्षण है प्रार्थना (किसी वस्तु की चाह) मन को भी इन्द्रिय ही माना गया है। जो प्रभु (आत्मा) मन के नियन्त्रण और सृष्टि में कारण है, वही मनसहित सम्पूर्ण भूतों को सदा विभिन्न कार्यों में नियुक्त करता है। इन्द्रिय, इन्द्रियों के विषय, स्वभाव, चेतना, धृति तथा भूताभूत- विचार- ये सब मिलकर शरीर हैं। शरीर से शरीरधारी आत्मा है, जो शरीर का ही आश्रय लेकर रहता है। जो शरीर और शरीरी का अन्तर जानता है, वही मुनि है। रस, स्पर्श, गन्ध, रूप और शब्दब से रहित, इन्द्रियहीन अशरीरी आत्मा को शरीर के भीतर देखने की इच्छा करे। जो सम्पूर्ण मत्र्य शरीरों में अव्यक्त भाव से स्थित एवं अमर है, उस परमात्मा को जो देखता है, वह बन्धनों से मुक्त हो जाता है। |
०७:५१, २७ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
सांख्य ज्ञान का प्रतिपादन करते हुए अव्यक्तादि चौबीस तत्वों की उत्पति आदि का वर्णन
देवता, मनुष्य तथा तिर्यक् आदि योनियों में जो चराचर प्राणी हैं, वे आदि काल से ही इन तीनों गुणों द्वारा संयुक्त एवं व्याप्त हैं। अब मैं महत् आदि तत्वों के लक्षण बताऊँगा। बुद्धि के द्वारा जो विवेक और ज्ञान होता है, वही शरीर में महतत्व का लक्षण है। महान्, बुद्धि, मति और प्रजा- ये महतत्व के नाम माने गये हैं। संक्षेप से लक्षण द्वारा अहंकार का विशेष ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। अहंकार से ही प्राणियों की नाना प्रकार की सृष्टि होती है। अहंकार की निवृत्ति मोक्ष की प्राप्ति कराने वाली होती है। आकाश, वायु, अग्नि, जल और पाँचवीं पृथ्वी- ये पाँच महाभूत हैं। ये ही समस्त प्राणियों की उत्पत्ति और प्रलय के स्थान हैं। शब्द, श्रवणेन्द्रिय तथा इन्द्रियों के छिद्र- ये तीनों आकाश से प्रकट हुए हैं। स्पर्श और प्राणियों की चेष्ट- ये वायु के गुण माने गये हैं। रूप, पाक, नेत्र और ज्योति- ये चार तेज के गुण हैं। रस, स्नेह, जिह्वा और शीतलता- ये चार जल के गुण हैं। गन्ध, घ्राणेन्द्रिय और शरीर- ये पृथ्वी के तीन गुण हैं। देवि! इस प्रकार पाँचों भूतों के समस्त गुण विख्यात हैं। उत्तरोत्तर भूत पूर्व-पूर्व भूत के गुण ग्रहण करते हैं। इसीलिये यहाँ प्राणियों की सृष्टि अनेक गुणों से युक्त दिखायी देती है। कमलेक्षणे! कुछ अयोग्य मनुष्य जो जल में सुगन्ध या दुर्गन्ध पाकर गन्ध को जल का गुण बताते हैं, उसे विद्वान् पुरूष नहीं स्वीकार करते हैं। जल में गन्ध नहीं है, गन्ध पृथ्वी का ही गुण है। गन्ध में भूमि, रस में जल तथा नेत्र में तेज की स्थिति है। प्राण और अपान का आश्रय वायु है। देहधारियों के शरीर में जितने छिद्र हैं, उन सबमें आकाश व्याप्त है। केश, हड्डी, नख, दाँत, त्वचा, हाथ, पैर, सिर, पीठ, पेट, कमर और गर्दन- ये सब भूमि के कार्य माने गये हैं। इस शरीर में जो कुछ भी धातु, दोष और मल सम्बन्धी वस्तुएँ हैं, उन सबको पांच भौतिक समझो। शरीरों के द्वारा ही इस विश्व पर पंचभूतों का स्वामित्व है। कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका - ये ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। हाथ,पैर, वाक्, मेढ (लिंग) और गुदा- ये कर्मेन्द्रियाँ हैं। शब्द, स्पर्श, रूप्, रस और पाँचवाँ गन्ध- इन्हें ज्ञानेन्द्रियों के विषय समझें। ये पाँचों भूतों से प्रकट हुए हैं। वाक्य, क्रिया, गति, प्रीति और उत्सर्ग- ये पाँच कर्मेन्द्रियों के विषय जानें। ये भी पन्चभूतों से उत्पन्न हुए माने गये हैं। समस्त इन्द्रियों का स्वामी या पे्ररक मन कहलाता है। उसका लक्षण है प्रार्थना (किसी वस्तु की चाह) मन को भी इन्द्रिय ही माना गया है। जो प्रभु (आत्मा) मन के नियन्त्रण और सृष्टि में कारण है, वही मनसहित सम्पूर्ण भूतों को सदा विभिन्न कार्यों में नियुक्त करता है। इन्द्रिय, इन्द्रियों के विषय, स्वभाव, चेतना, धृति तथा भूताभूत- विचार- ये सब मिलकर शरीर हैं। शरीर से शरीरधारी आत्मा है, जो शरीर का ही आश्रय लेकर रहता है। जो शरीर और शरीरी का अन्तर जानता है, वही मुनि है। रस, स्पर्श, गन्ध, रूप और शब्दब से रहित, इन्द्रियहीन अशरीरी आत्मा को शरीर के भीतर देखने की इच्छा करे। जो सम्पूर्ण मत्र्य शरीरों में अव्यक्त भाव से स्थित एवं अमर है, उस परमात्मा को जो देखता है, वह बन्धनों से मुक्त हो जाता है।
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