"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 277 श्लोक 26-39": अवतरणों में अंतर
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०९:०८, २७ जुलाई २०१५ का अवतरण
सप्तसप्तत्यधिकद्विशततम (277) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
गॉंवों में रहकर विषय-भोगों में आसक्त होना-यह जीव को बॉंधने वाली रस्सी के समान है। केवल पुण्यात्मा पुरूष ही इसे काटकर निकल पाते हैं। पापी पुरूष इसे नहीं काट सकते । जो मन,वाणी, क्रिया तथा अन्य कारणों द्वारा किसी भी प्राणी की जीविका का अपहरण करके उसकी हिंसा नहीं करता, उसको दूसरे प्राणी भी वध या बन्धन के कष्ट में नहीं डालते । अत: मनुष्य को सत्यव्रत का आचरण करना चाहिये। सत्यरूपी व्रत के पालन में तत्पर रहना चाहिये। वह सत्य की कामना करे। सबके प्रति समान भाव रखे। जितेन्द्रिय बने और सत्य के द्वारा ही मृत्यु पर विजय प्राप्त करे । अमृत और मृत्यु - ये दोनों इस शरीर में ही विद्यमान हैं। मोह से मृत्यु प्राप्त होती है और सत्य से अमृतपद की उपलब्धि होती है । अत: अब मैं काम और क्रोध को त्यागकर अहिंसा धर्म के पालन की इच्छा करूँगा। सत्य का आश्रय लेकर कल्याण का भागी बनुँगा और अमर की भांति मृत्यु को दूर हटा दूँगा । सूर्य के उत्तरायण होने पर शान्तिमय यज्ञमें तत्पर, जितेन्द्रिय, ब्रह्मयज्ञ परायण एवं मननशील होकर मैं जपस्वाध्यायरूप वाग्यज्ञ, ध्यानरूप मनोयज्ञ और शास्त्रविहित कर्मों का निष्कामभाव से आचरणरूप कर्म यज्ञ का अनुष्ठान करूँगा । मेरे-जैसा ज्ञानवान पुरूष हिंसाप्रधान पशुयज्ञों द्वारा कैसे यजन कर सकता है ? अथवा पिशाच के समान विनाशशील क्षत्रिय-यज्ञों के अनुष्ठान में कैसे प्रवृत्त हो सकता है । पिताजी ! मैं आत्मा से अपने आप में ही उत्पन्न हुआ हूँ। अपने आप में ही स्थित हूँ। मेरे कोई संतान नहीं है। मैं आत्मयज्ञ का ही यजमान होऊँगा। मुझे संतान नहीं तार सकती । जिसकी वाणी और मन सदा एकाग्र रहते हैं तथा जिसमें तम, त्याग और योग-तीनों का समावेश है, वह उनके द्वारा सब कुछ पा लेता है । संसार में ब्रह्मविद्या के समान कोई नेत्र नहीं है, ब्रह्मविद्या के समान कोई फल नहीं है, राग के समान कोई दु:ख नहीं है और त्याग के समान कोई सुख नहीं है । ब्रह्म में एकीभाव, समता, सत्यपरायणता, सदाचारनिष्ठा, दण्ड का त्याग (अहिंसा), सरलता तथा सब प्रकार के सकाम कर्मों से निवृति-इनके समान ब्राह्मण का दूसरा कोई धर्म नहीं है । ब्राह्मणदेव (पिताजी) ! जब एक दिन आपको मरना ही है, तब इन धन-वैभव, बन्धु -बान्धव तथा स्त्री-पुत्रों से क्या प्रयोजन है? अपनी हृदय गुहा में विराजमान आत्मा की खोज कीजिये। सोचिये तो सही, आज आपके पिताजी कहाँ है, दादा-बाबा कहाँ चले गये । भीष्म जी कहते हैं- नरेश्वर ! पुत्र का यह वचन सुनकर उसके पिता ने सब कुछ उसके कथनानुसार किया । उसी प्रकार तुम भी सत्य और धर्म में तत्पर होकर उसी प्रकार आचरण करो ।
इस प्रकार श्री महाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में पिता और पुत्र का संवादविषयक दो सौ सतहतरवाँ अध्याय पूरा हुआ ।
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