"महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 29 श्लोक 19-35": अवतरणों में अंतर

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==एकोनत्रिंश (29) अध्याय: द्रोण पर्व (संशप्‍तकवध पर्व )==
==एकोनत्रिंश (29) अध्याय: द्रोण पर्व (संशप्‍तकवध पर्व )==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: द्रोण पर्व: एकोनत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: द्रोण पर्व: एकोनत्रिंश अध्याय: श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद</div>


भगवान श्रीकृष्‍ण की छाती पर आकर वह अस्‍त्र वैजयन्‍ती माला के रूप में परिणत हो गया । वह माला कमलकोश की विचित्र शोभा से युक्‍त तथा सभी ऋतुओं के पुष्‍पों से सम्‍पन्‍न थी । उससे अग्नि, सूर्य और चन्‍द्रमा के समान प्रभा फैल रही थी । उसका एक-एक दल अग्नि के समान प्रकाशित हो रहा था । कमलदलों से सुशोभित तथा हवा से हिलते हुए दलोवाली उस वैजयन्‍ती माला से तीसी के फूलों के समान श्‍यामवर्णवाले केशिहन्‍ता, शूरसेननन्‍दन, शागधन्‍वा, शत्रुसूदन भगवान केशव अधिकाधिक शोभा पाने लगे, मानो वर्षाकाल में संध्‍या के मेघों से आच्‍छादित श्रेष्‍ठ पर्वत सुशोभित हो रहा हो। उस समय अर्जुन के मन मे बड़ा क्‍लेश हुआ । उन्‍होंने भगवान श्रीकृष्‍ण से इस प्रकार कहा-अनध ! आपने तो प्रतिज्ञा की है कि मैं युद्ध न करके घोड़ोंको काबू मे रखूँगा केवल सारथि का काम करूँगा; कितु कमलनयन ! आप वैसी बात कहकर भी अपनी प्रतिज्ञा का पालन नहीं कर रहे हैं । यदि मैं संकट में पड जाता अथवा अस्‍त्र का निवारण करने में असमर्थ हो जाता तो उस समय आपका ऐसा करना उचित होगा । जब मैं युद्ध के लिये तैयार खड़ा हॅू, तब आपको ऐसा नही करना चाहिये। आपको तो यह भी विदित है कि यदि मेरे हाथ में धनुष और बाण हो तो मैं देवता, असुर और मनुष्‍यों सहित इन सम्‍पूर्ण लोकों पर विजय पा सकता हॅू। तब वसुदेवनन्‍दन भगवान श्रीकृष्‍ण ने अर्जुन से ये रहस्‍यपूर्ण वचन कहे – अनघ ! कुन्‍तीनन्‍दन ! इस विषय में यह गोपनीय रहस्‍य की बात सुनो, जो पूर्वकाल में घटित हो चुकी है। मैं चार स्‍वरूप धारण करके सदा सम्‍पूर्ण लोकों की रक्षा के लिये उघत रहता हॅु । अपने को ही यहां अनेक रूपो में विभक्‍त करके समस्‍त संसार का हित साधन करता हॅू। मेरी एक मूर्ति इस भूमण्‍डल पर (बदरिकाश्रम मे नर- नारायण के रूप में) स्थित हो तपस्‍या करती है । दूसरी (परमात्‍मस्‍वरूपा) मूर्ति शुभशुभकर्म करनेवाले जगत् को साक्षीरूप से देखती रहती है। तीसरी मूर्ति (मै स्‍वयं जो) मनुष्‍यलोक का आश्रय ले नाना प्रकार के कर्म करती है और चौथी मूर्ति वह है, जो सहस्‍त्र युगों तक एकार्णव के जल में शयन करती है। सहस्‍त्र–युग के पश्‍चात् मेरा वह चौथा स्‍वरूप जब योग निद्रा से उठता है, उस समय वर पीनेके योग्‍य श्रेष्‍ठ भक्‍तों को उत्‍तम वर प्रदान करता है। एकबार जब कि वही समय प्राप्‍त था, पृथ्‍वीदेवी ने अपने पुत्र नरकासुर के लिये मुझसे जो वर मॉगा, उसे सुनो। मेरा पुत्र वैष्‍णवास्‍त्र से सम्‍पन्‍न होकर देवताओ और दानवों के लिये अवध्‍य हो जाय, इसलिये आप कृपापूर्वक मुझे वह अपना अस्‍त्र प्रदान करे उस समय पृथ्‍वी के मॅुह से अपने पुत्रके लिये इस प्रकार याचना सुनकर मैने पूर्वकाल में अपना परम उत्‍तम अमोघ वैष्‍णव-अस्‍त्र उसे दे दिया। उसे देते समय मैने कहा- वसुधे ! यह अमोघ वैष्‍णव वास्‍त्र नरकासुर की रक्षा के लिये उसके पास रहे । फिर उसे कोई भी भष्‍ट नही कर सकेगा। हम अस्‍त्र से सुरक्षित रहकर तुम्‍हारा पुत्र शत्रुओं की सेना को पीडित करनेवाला और सदा सम्‍पूर्ण लोको में दुर्धर्ष बना रहेगा। तब जो आज्ञा कहकर मनस्विनी पृथ्‍वीदेवी कृतार्थ होकर चली गयी । वह नरकासुर भी (उस अस्‍त्र को पाकर) शत्रुओं को संताप देनेवाला तथा अत्‍यन्‍त दुर्जय हो गया।
भगवान श्रीकृष्‍ण की छाती पर आकर वह अस्‍त्र वैजयन्‍ती माला के रूप में परिणत हो गया । वह माला कमलकोश की विचित्र शोभा से युक्‍त तथा सभी ऋतुओं के पुष्‍पों से सम्‍पन्‍न थी । उससे अग्नि, सूर्य और चन्‍द्रमा के समान प्रभा फैल रही थी । उसका एक-एक दल अग्नि के समान प्रकाशित हो रहा था । कमलदलों से सुशोभित तथा हवा से हिलते हुए दलोवाली उस वैजयन्‍ती माला से तीसी के फूलों के समान श्‍यामवर्णवाले केशिहन्‍ता, शूरसेननन्‍दन, शागधन्‍वा, शत्रुसूदन भगवान केशव अधिकाधिक शोभा पाने लगे, मानो वर्षाकाल में संध्‍या के मेघों से आच्‍छादित श्रेष्‍ठ पर्वत सुशोभित हो रहा हो। उस समय अर्जुन के मन मे बड़ा क्‍लेश हुआ । उन्‍होंने भगवान श्रीकृष्‍ण से इस प्रकार कहा-अनध ! आपने तो प्रतिज्ञा की है कि मैं युद्ध न करके घोड़ोंको काबू मे रखूँगा केवल सारथि का काम करूँगा; कितु कमलनयन ! आप वैसी बात कहकर भी अपनी प्रतिज्ञा का पालन नहीं कर रहे हैं । यदि मैं संकट में पड जाता अथवा अस्‍त्र का निवारण करने में असमर्थ हो जाता तो उस समय आपका ऐसा करना उचित होगा । जब मैं युद्ध के लिये तैयार खड़ा हॅू, तब आपको ऐसा नही करना चाहिये। आपको तो यह भी विदित है कि यदि मेरे हाथ में धनुष और बाण हो तो मैं देवता, असुर और मनुष्‍यों सहित इन सम्‍पूर्ण लोकों पर विजय पा सकता हॅू। तब वसुदेवनन्‍दन भगवान श्रीकृष्‍ण ने अर्जुन से ये रहस्‍यपूर्ण वचन कहे – अनघ ! कुन्‍तीनन्‍दन ! इस विषय में यह गोपनीय रहस्‍य की बात सुनो, जो पूर्वकाल में घटित हो चुकी है। मैं चार स्‍वरूप धारण करके सदा सम्‍पूर्ण लोकों की रक्षा के लिये उघत रहता हॅु । अपने को ही यहां अनेक रूपो में विभक्‍त करके समस्‍त संसार का हित साधन करता हॅू। मेरी एक मूर्ति इस भूमण्‍डल पर (बदरिकाश्रम मे नर- नारायण के रूप में) स्थित हो तपस्‍या करती है । दूसरी (परमात्‍मस्‍वरूपा) मूर्ति शुभशुभकर्म करनेवाले जगत् को साक्षीरूप से देखती रहती है। तीसरी मूर्ति (मै स्‍वयं जो) मनुष्‍यलोक का आश्रय ले नाना प्रकार के कर्म करती है और चौथी मूर्ति वह है, जो सहस्‍त्र युगों तक एकार्णव के जल में शयन करती है। सहस्‍त्र–युग के पश्‍चात् मेरा वह चौथा स्‍वरूप जब योग निद्रा से उठता है, उस समय वर पीनेके योग्‍य श्रेष्‍ठ भक्‍तों को उत्‍तम वर प्रदान करता है। एकबार जब कि वही समय प्राप्‍त था, पृथ्‍वीदेवी ने अपने पुत्र नरकासुर के लिये मुझसे जो वर मॉगा, उसे सुनो। मेरा पुत्र वैष्‍णवास्‍त्र से सम्‍पन्‍न होकर देवताओ और दानवों के लिये अवध्‍य हो जाय, इसलिये आप कृपापूर्वक मुझे वह अपना अस्‍त्र प्रदान करे उस समय पृथ्‍वी के मॅुह से अपने पुत्रके लिये इस प्रकार याचना सुनकर मैने पूर्वकाल में अपना परम उत्‍तम अमोघ वैष्‍णव-अस्‍त्र उसे दे दिया। उसे देते समय मैने कहा- वसुधे ! यह अमोघ वैष्‍णव वास्‍त्र नरकासुर की रक्षा के लिये उसके पास रहे । फिर उसे कोई भी भष्‍ट नही कर सकेगा। हम अस्‍त्र से सुरक्षित रहकर तुम्‍हारा पुत्र शत्रुओं की सेना को पीडित करनेवाला और सदा सम्‍पूर्ण लोको में दुर्धर्ष बना रहेगा। तब जो आज्ञा कहकर मनस्विनी पृथ्‍वीदेवी कृतार्थ होकर चली गयी । वह नरकासुर भी (उस अस्‍त्र को पाकर) शत्रुओं को संताप देनेवाला तथा अत्‍यन्‍त दुर्जय हो गया।

०५:०२, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

एकोनत्रिंश (29) अध्याय: द्रोण पर्व (संशप्‍तकवध पर्व )

महाभारत: द्रोण पर्व: एकोनत्रिंश अध्याय: श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद

भगवान श्रीकृष्‍ण की छाती पर आकर वह अस्‍त्र वैजयन्‍ती माला के रूप में परिणत हो गया । वह माला कमलकोश की विचित्र शोभा से युक्‍त तथा सभी ऋतुओं के पुष्‍पों से सम्‍पन्‍न थी । उससे अग्नि, सूर्य और चन्‍द्रमा के समान प्रभा फैल रही थी । उसका एक-एक दल अग्नि के समान प्रकाशित हो रहा था । कमलदलों से सुशोभित तथा हवा से हिलते हुए दलोवाली उस वैजयन्‍ती माला से तीसी के फूलों के समान श्‍यामवर्णवाले केशिहन्‍ता, शूरसेननन्‍दन, शागधन्‍वा, शत्रुसूदन भगवान केशव अधिकाधिक शोभा पाने लगे, मानो वर्षाकाल में संध्‍या के मेघों से आच्‍छादित श्रेष्‍ठ पर्वत सुशोभित हो रहा हो। उस समय अर्जुन के मन मे बड़ा क्‍लेश हुआ । उन्‍होंने भगवान श्रीकृष्‍ण से इस प्रकार कहा-अनध ! आपने तो प्रतिज्ञा की है कि मैं युद्ध न करके घोड़ोंको काबू मे रखूँगा केवल सारथि का काम करूँगा; कितु कमलनयन ! आप वैसी बात कहकर भी अपनी प्रतिज्ञा का पालन नहीं कर रहे हैं । यदि मैं संकट में पड जाता अथवा अस्‍त्र का निवारण करने में असमर्थ हो जाता तो उस समय आपका ऐसा करना उचित होगा । जब मैं युद्ध के लिये तैयार खड़ा हॅू, तब आपको ऐसा नही करना चाहिये। आपको तो यह भी विदित है कि यदि मेरे हाथ में धनुष और बाण हो तो मैं देवता, असुर और मनुष्‍यों सहित इन सम्‍पूर्ण लोकों पर विजय पा सकता हॅू। तब वसुदेवनन्‍दन भगवान श्रीकृष्‍ण ने अर्जुन से ये रहस्‍यपूर्ण वचन कहे – अनघ ! कुन्‍तीनन्‍दन ! इस विषय में यह गोपनीय रहस्‍य की बात सुनो, जो पूर्वकाल में घटित हो चुकी है। मैं चार स्‍वरूप धारण करके सदा सम्‍पूर्ण लोकों की रक्षा के लिये उघत रहता हॅु । अपने को ही यहां अनेक रूपो में विभक्‍त करके समस्‍त संसार का हित साधन करता हॅू। मेरी एक मूर्ति इस भूमण्‍डल पर (बदरिकाश्रम मे नर- नारायण के रूप में) स्थित हो तपस्‍या करती है । दूसरी (परमात्‍मस्‍वरूपा) मूर्ति शुभशुभकर्म करनेवाले जगत् को साक्षीरूप से देखती रहती है। तीसरी मूर्ति (मै स्‍वयं जो) मनुष्‍यलोक का आश्रय ले नाना प्रकार के कर्म करती है और चौथी मूर्ति वह है, जो सहस्‍त्र युगों तक एकार्णव के जल में शयन करती है। सहस्‍त्र–युग के पश्‍चात् मेरा वह चौथा स्‍वरूप जब योग निद्रा से उठता है, उस समय वर पीनेके योग्‍य श्रेष्‍ठ भक्‍तों को उत्‍तम वर प्रदान करता है। एकबार जब कि वही समय प्राप्‍त था, पृथ्‍वीदेवी ने अपने पुत्र नरकासुर के लिये मुझसे जो वर मॉगा, उसे सुनो। मेरा पुत्र वैष्‍णवास्‍त्र से सम्‍पन्‍न होकर देवताओ और दानवों के लिये अवध्‍य हो जाय, इसलिये आप कृपापूर्वक मुझे वह अपना अस्‍त्र प्रदान करे उस समय पृथ्‍वी के मॅुह से अपने पुत्रके लिये इस प्रकार याचना सुनकर मैने पूर्वकाल में अपना परम उत्‍तम अमोघ वैष्‍णव-अस्‍त्र उसे दे दिया। उसे देते समय मैने कहा- वसुधे ! यह अमोघ वैष्‍णव वास्‍त्र नरकासुर की रक्षा के लिये उसके पास रहे । फिर उसे कोई भी भष्‍ट नही कर सकेगा। हम अस्‍त्र से सुरक्षित रहकर तुम्‍हारा पुत्र शत्रुओं की सेना को पीडित करनेवाला और सदा सम्‍पूर्ण लोको में दुर्धर्ष बना रहेगा। तब जो आज्ञा कहकर मनस्विनी पृथ्‍वीदेवी कृतार्थ होकर चली गयी । वह नरकासुर भी (उस अस्‍त्र को पाकर) शत्रुओं को संताप देनेवाला तथा अत्‍यन्‍त दुर्जय हो गया।


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