"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 8 श्लोक 15-30" के अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
छो (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}")
 
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के २ अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति १: पंक्ति १:
== अष्टम अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)==
+
==अष्टम (8) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)==
 +
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टम अध्याय: श्लोक 15-30 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्तिपर्व : अष्टम अध्याय: श्लोक 21- 37 का हिन्दी अनुवाद</div>
+
राजन्! जैसे पतित मनुष्य शोचनीय होता है, वैसे ही निर्धन भी होता है; मुझे पतित और निर्धन में कोई अन्तर नहीं जान पड़ता। जैसे पर्वतों से बहुत सी नदियां बहती रहती हैं, उसी प्रकार बढे़ हुए संचित धन से सब प्रकार के शुभ कर्मा का अनुष्ठान होता रहता है। नरेश्वर! धन से ही धर्म, काम और स्वर्ग की सिद्धि होती है। लोगों के जीवन का निर्वाह भी बिना धन के नहीं होता। जैसे गर्मी में छोटी-छोटी नदियां सूख जाती हैं, उसी प्रकार धनहीन हुए मन्दबुद्धि मनुष्य की सारी क्रियाए छिन्न-भिन्न हो जाती हैं।  जिसके पास धन होता है, उसी के बहुत से मित्र होते हैं; जिसके पास धन है, उसी के भाई-बन्धु हैं; संसार में जिसके पास धन है, वही पुरूष कहलाता है और जिसके पास धन है, वही पण्डित माना जाता है। निर्धन मनुष्य यदि धन चाहता है तो उसके लिये धन-की व्यवस्था असम्भव हो जाती है (परंतु धनी का धन बढ़ता रहता है), जैसे जंगल में एक हाथी के पीछे बहुत से हाथी चले आते हैं उसी प्रकार धन से ही धन बॅधा आता है।
  
नरेश्वर! धन से धर्म का पालन, कामना की पूर्ति, स्वर्ग  की प्राप्‍त , हर्ष की वृद्धि, क्रोध की सफलता, शास्त्रों का श्रवण और अध्ययन तथा शत्रुओं का दमन-- ये सभी कार्य सिद्ध होते हैं। धन से कुल की प्रतिष्ठा बढ़ती है और धन से ही धर्म की वृद्धि होती है। पुरूषवर! निर्धन के लिये तो न यह लोक सुखदायक होता है, न परलोक। निर्धन मनुष्य धार्मिक कृत्यों का अच्छी तरह अनुष्ठान नहीं कर सकता। जैसे पर्वत से नदी झरती रहती है, उसी प्रकार धन से ही धर्म का स्त्रोत बहता रहता है। राजन्!जिसके पास धन की कमी है, गौएं और सेवक भी कम हैं तथा जिसके यहां अतिथियों का आना-जाना भी बहुत कम हो गया है, वास्तव में वही कृश (दुर्बल) कहलाने योग्य है। जो केवल शरीर से कृश नहीं कहा जा सकता। आप न्याय के अनुसार विचार कीजिये और देवताओं तथा असुरों के बर्ताव पर दृष्टि डालिये। राजन्! देवता अपने जाति-भाइयों का वध करने के सिवा और क्या चाहते हैं ( एक पिता की संतान होने के कारण देवता और असुर परस्पर भाई-भाई ही तो हैं)। यदि राजा के लिये दूसरे लिये दूसरे के धन का  अपहरण करना उचित नहीं है, तो वह धर्म का अनुष्ठान कैसे कर सकता है? वेद शास्त्रों में भी विद्वानों ने राजा के लिये यही निर्णय दिया है कि ’राजा प्रतिदिन वेदों का स्वाध्याय करे, विद्वान बने, सब प्रकार से संग्रह  करके धन ले आये और यत्नपूर्वक यज्ञ का अनुष्ठान करे’। जति-भाइयों से द्रोह करके ही देवताओं ने स्वर्ग लोक के सभी स्थानों पर अधिकार प्राप्त कर लिया है। देवता जिससे धन या राज्य पाना चाहते हैं, वह ज्ञातिद्रोह  के सिबा ओर क्या है? यही देवतओं का निश्रय है और यही वेदों का सनातन सिद्धान्त है। धन से ही द्व्जि वेद-शास्त्रों को पढ़ते  और पढ़ाते हैं, धन के द्वारा ही यज्ञ करते और कराते हैं तथा राज लोग दूसरों को युद्ध में जीतकर जो उनका धन ले आते हैं, उसी से वे सम्पूर्ण शुभ कर्मां का अनुष्ठान करते हैं किसी भी राजा के पास हम कोई भी ऐसा धन नहीं देखते हैं, जो दूसरों का अपकार करके न लाया गया हो। इसी प्रकार सभी राजा इस पृथ्वी को जीतते हैं और जीत कर कहने लगते हें कि ’यह मेरी है’ ।ठीक वैसे ही जैसे पुत्र पिता के धन को अपना बताते हैं। प्राचीनकाल में जो राजर्षि हो गये हैं, जो कि इस समय स्वर्ग में निवास करते हैं, उनके मत में भी राज-धर्मकी ऐसी ही व्याख्या की गयी है जैसे भरे हुए महासागर से मेघ के रूप में उठा हुआ जल समपूर्ण दिशाओं में बरस जाता है, उसी प्रकार धन राजाओं के यहां से निकलकर सम्पूर्ण पृथ्वी में फैल जाता है। पहले यह पृथ्वी वारी-वारी से राज दिलीप, नृग, नहुष, अम्बरीष, और मान्धाता के अधिकार में रही है, वही इस समय आपके अधीन हो गयी है। अतः आपके समक्ष सर्वस्व की दक्षिणा देकर द्रव्यमय यज्ञ के अनुष्ठान  करने का अवसर प्राप्त हुआ है। राजन्! यदि आप यज्ञ नहीं करेंगे तो आपको सारे राज्य का पाप लगेगा। जिस देशों के राजा दक्षिणायुक्त अश्वमेघ यज्ञ के द्वारा भगवान् का यजन करते हैं, उनके यज्ञ की समाप्ति पर उन देशों के सभी लोग वहां आकर अवभृथस्नान करके पवित्र होते हैं। सम्पूर्ण विश्व जिनका स्वरूप है, उन महादेव जी ने सर्व मेघ नामक महायज्ञ में सम्पूर्ण भूतों की तथा स्वयं अपनी भी आहुति दे दी थी। यह क्षत्रियों के लिये कल्याण का सनातन मार्ग है।  इसका कभी अन्त नहीं सुना गया है। राजन्! यह वह महान् मार्ग है, जिस पर दस रथ चलते हैं, आप किसी कुल्सित मार्ग का आश्रय न लें।
+
नरेश्वर! धन से धर्म का पालन, कामना की पूर्ति, स्वर्ग  की प्राप्‍त , हर्ष की वृद्धि, क्रोध की सफलता, शास्त्रों का श्रवण और अध्ययन तथा शत्रुओं का दमन-- ये सभी कार्य सिद्ध होते हैं। धन से कुल की प्रतिष्ठा बढ़ती है और धन से ही धर्म की वृद्धि होती है। पुरूषवर! निर्धन के लिये तो न यह लोक सुखदायक होता है, न परलोक। निर्धन मनुष्य धार्मिक कृत्यों का अच्छी तरह अनुष्ठान नहीं कर सकता। जैसे पर्वत से नदी झरती रहती है, उसी प्रकार धन से ही धर्म का स्त्रोत बहता रहता है। राजन्!जिसके पास धन की कमी है, गौएं और सेवक भी कम हैं तथा जिसके यहां अतिथियों का आना-जाना भी बहुत कम हो गया है, वास्तव में वही कृश (दुर्बल) कहलाने योग्य है। जो केवल शरीर से कृश नहीं कहा जा सकता। आप न्याय के अनुसार विचार कीजिये और देवताओं तथा असुरों के बर्ताव पर दृष्टि डालिये। राजन्! देवता अपने जाति-भाइयों का वध करने के सिवा और क्या चाहते हैं ( एक पिता की संतान होने के कारण देवता और असुर परस्पर भाई-भाई ही तो हैं)। यदि राजा के लिये दूसरे लिये दूसरे के धन का  अपहरण करना उचित नहीं है, तो वह धर्म का अनुष्ठान कैसे कर सकता है? वेद शास्त्रों में भी विद्वानों ने राजा के लिये यही निर्णय दिया है कि ’राजा प्रतिदिन वेदों का स्वाध्याय करे, विद्वान बने, सब प्रकार से संग्रह  करके धन ले आये और यत्नपूर्वक यज्ञ का अनुष्ठान करे’। जति-भाइयों से द्रोह करके ही देवताओं ने स्वर्ग लोक के सभी स्थानों पर अधिकार प्राप्त कर लिया है। देवता जिससे धन या राज्य पाना चाहते हैं, वह ज्ञातिद्रोह  के सिबा ओर क्या है? यही देवतओं का निश्रय है और यही वेदों का सनातन सिद्धान्त है। धन से ही द्व्जि वेद-शास्त्रों को पढ़ते  और पढ़ाते हैं, धन के द्वारा ही यज्ञ करते और कराते हैं तथा राज लोग दूसरों को युद्ध में जीतकर जो उनका धन ले आते हैं, उसी से वे सम्पूर्ण शुभ कर्मां का अनुष्ठान करते हैं किसी भी राजा के पास हम कोई भी ऐसा धन नहीं देखते हैं, जो दूसरों का अपकार करके न लाया गया हो।  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्री महाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में अर्जुन वाक्य विषयक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div>
 
  
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत शान्तिपर्व अध्याय 8 श्लोक 1- 20|अगला=महाभारत शान्तिपर्व अध्याय 9 श्लोक 1- 37}}  
+
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 8 श्लोक 1-14|अगला=महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 8 श्लोक 31-37}}  
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
<references/>
पंक्ति १२: पंक्ति १२:
 
{{सम्पूर्ण महाभारत}}
 
{{सम्पूर्ण महाभारत}}
  
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत शान्तिपर्व]]
+
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत शान्ति पर्व]]
 
__INDEX__
 
__INDEX__

०८:०८, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

अष्टम (8) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टम अध्याय: श्लोक 15-30 का हिन्दी अनुवाद

राजन्! जैसे पतित मनुष्य शोचनीय होता है, वैसे ही निर्धन भी होता है; मुझे पतित और निर्धन में कोई अन्तर नहीं जान पड़ता। जैसे पर्वतों से बहुत सी नदियां बहती रहती हैं, उसी प्रकार बढे़ हुए संचित धन से सब प्रकार के शुभ कर्मा का अनुष्ठान होता रहता है। नरेश्वर! धन से ही धर्म, काम और स्वर्ग की सिद्धि होती है। लोगों के जीवन का निर्वाह भी बिना धन के नहीं होता। जैसे गर्मी में छोटी-छोटी नदियां सूख जाती हैं, उसी प्रकार धनहीन हुए मन्दबुद्धि मनुष्य की सारी क्रियाए छिन्न-भिन्न हो जाती हैं। जिसके पास धन होता है, उसी के बहुत से मित्र होते हैं; जिसके पास धन है, उसी के भाई-बन्धु हैं; संसार में जिसके पास धन है, वही पुरूष कहलाता है और जिसके पास धन है, वही पण्डित माना जाता है। निर्धन मनुष्य यदि धन चाहता है तो उसके लिये धन-की व्यवस्था असम्भव हो जाती है (परंतु धनी का धन बढ़ता रहता है), जैसे जंगल में एक हाथी के पीछे बहुत से हाथी चले आते हैं उसी प्रकार धन से ही धन बॅधा आता है।

नरेश्वर! धन से धर्म का पालन, कामना की पूर्ति, स्वर्ग की प्राप्‍त , हर्ष की वृद्धि, क्रोध की सफलता, शास्त्रों का श्रवण और अध्ययन तथा शत्रुओं का दमन-- ये सभी कार्य सिद्ध होते हैं। धन से कुल की प्रतिष्ठा बढ़ती है और धन से ही धर्म की वृद्धि होती है। पुरूषवर! निर्धन के लिये तो न यह लोक सुखदायक होता है, न परलोक। निर्धन मनुष्य धार्मिक कृत्यों का अच्छी तरह अनुष्ठान नहीं कर सकता। जैसे पर्वत से नदी झरती रहती है, उसी प्रकार धन से ही धर्म का स्त्रोत बहता रहता है। राजन्!जिसके पास धन की कमी है, गौएं और सेवक भी कम हैं तथा जिसके यहां अतिथियों का आना-जाना भी बहुत कम हो गया है, वास्तव में वही कृश (दुर्बल) कहलाने योग्य है। जो केवल शरीर से कृश नहीं कहा जा सकता। आप न्याय के अनुसार विचार कीजिये और देवताओं तथा असुरों के बर्ताव पर दृष्टि डालिये। राजन्! देवता अपने जाति-भाइयों का वध करने के सिवा और क्या चाहते हैं ( एक पिता की संतान होने के कारण देवता और असुर परस्पर भाई-भाई ही तो हैं)। यदि राजा के लिये दूसरे लिये दूसरे के धन का अपहरण करना उचित नहीं है, तो वह धर्म का अनुष्ठान कैसे कर सकता है? वेद शास्त्रों में भी विद्वानों ने राजा के लिये यही निर्णय दिया है कि ’राजा प्रतिदिन वेदों का स्वाध्याय करे, विद्वान बने, सब प्रकार से संग्रह करके धन ले आये और यत्नपूर्वक यज्ञ का अनुष्ठान करे’। जति-भाइयों से द्रोह करके ही देवताओं ने स्वर्ग लोक के सभी स्थानों पर अधिकार प्राप्त कर लिया है। देवता जिससे धन या राज्य पाना चाहते हैं, वह ज्ञातिद्रोह के सिबा ओर क्या है? यही देवतओं का निश्रय है और यही वेदों का सनातन सिद्धान्त है। धन से ही द्व्जि वेद-शास्त्रों को पढ़ते और पढ़ाते हैं, धन के द्वारा ही यज्ञ करते और कराते हैं तथा राज लोग दूसरों को युद्ध में जीतकर जो उनका धन ले आते हैं, उसी से वे सम्पूर्ण शुभ कर्मां का अनुष्ठान करते हैं किसी भी राजा के पास हम कोई भी ऐसा धन नहीं देखते हैं, जो दूसरों का अपकार करके न लाया गया हो।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।