"महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 57 श्लोक 17-28" के अवतरणों में अंतर

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सौदास ने कहा- ब्रह्मन्! उन्हें आज आप वन में किसी झरने के पास देखेंगे। यह दिन का छठा भाग है (मैं आहार की खोज में हूँ), अत: इस समय मैं उनसे नहीं मिल सकता।
 
सौदास ने कहा- ब्रह्मन्! उन्हें आज आप वन में किसी झरने के पास देखेंगे। यह दिन का छठा भाग है (मैं आहार की खोज में हूँ), अत: इस समय मैं उनसे नहीं मिल सकता।
 
वैशम्पायनजी ने कहा- भरत भूषण! राजा के ऐसा कहने पर उत्तंक मुनि महारानी मदयन्ती के पास गये और उनसे अपने आने का प्रयोजन बतलाया।
 
वैशम्पायनजी ने कहा- भरत भूषण! राजा के ऐसा कहने पर उत्तंक मुनि महारानी मदयन्ती के पास गये और उनसे अपने आने का प्रयोजन बतलाया।
जनमेजय! राजा सौदास का संदेश सुनकर विशाल लोचना रानी के महाबुद्धिमान् उत्तंक मुनि को इस प्रकार उत्तर दिया-
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जनमेजय! राजा सौदास का संदेश सुनकर विशाल लोचना रानी के महाबुद्धिमान उत्तंक मुनि को इस प्रकार उत्तर दिया-
 
‘ब्रह्मन! आप जो कहते हैं वह ठीक है। अनघ! यद्यपि आप असत्य नहीं बोलते हैं तथापि आप महाराज के ही पास से उन्हीं का संदेश लेकर आये हैं, इस प्रकार बात का कोई प्रमाण आपको लाना चाहिये।
 
‘ब्रह्मन! आप जो कहते हैं वह ठीक है। अनघ! यद्यपि आप असत्य नहीं बोलते हैं तथापि आप महाराज के ही पास से उन्हीं का संदेश लेकर आये हैं, इस प्रकार बात का कोई प्रमाण आपको लाना चाहिये।
 
‘मेरे ये दोनों मणिमय कुण्डल दिव्य हैं। देवता, यक्ष और महर्षि लोग नाना प्रकार के उपायों द्वारा इसे चुरा ले जाने की इच्छा रखते हैं और इसके लिये सदा छिद्र ढूँढते रहते हैं।
 
‘मेरे ये दोनों मणिमय कुण्डल दिव्य हैं। देवता, यक्ष और महर्षि लोग नाना प्रकार के उपायों द्वारा इसे चुरा ले जाने की इच्छा रखते हैं और इसके लिये सदा छिद्र ढूँढते रहते हैं।

११:५३, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

सप्तपंचाशत्तम (57) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: सप्तपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 17-28 का हिन्दी अनुवाद

उत्तंक बोले- नरेश्वर! मैं कहाँ आपकी पत्नी को ढँूढता फिरूँगा? मुझे क्योंकर उनका दर्शन हो सकेगा? आप स्वयं ही अपनी पत्नी के पास क्यों नहीं चलते? सौदास ने कहा- ब्रह्मन्! उन्हें आज आप वन में किसी झरने के पास देखेंगे। यह दिन का छठा भाग है (मैं आहार की खोज में हूँ), अत: इस समय मैं उनसे नहीं मिल सकता। वैशम्पायनजी ने कहा- भरत भूषण! राजा के ऐसा कहने पर उत्तंक मुनि महारानी मदयन्ती के पास गये और उनसे अपने आने का प्रयोजन बतलाया। जनमेजय! राजा सौदास का संदेश सुनकर विशाल लोचना रानी के महाबुद्धिमान उत्तंक मुनि को इस प्रकार उत्तर दिया- ‘ब्रह्मन! आप जो कहते हैं वह ठीक है। अनघ! यद्यपि आप असत्य नहीं बोलते हैं तथापि आप महाराज के ही पास से उन्हीं का संदेश लेकर आये हैं, इस प्रकार बात का कोई प्रमाण आपको लाना चाहिये। ‘मेरे ये दोनों मणिमय कुण्डल दिव्य हैं। देवता, यक्ष और महर्षि लोग नाना प्रकार के उपायों द्वारा इसे चुरा ले जाने की इच्छा रखते हैं और इसके लिये सदा छिद्र ढूँढते रहते हैं। ‘यदि इन कुण्डलों को पृथ्वी पर रख दिया जाय तो नाना लोग इसे हड़प लेंगे। अपवित्र अवस्था में इन्हें धारण करने पर यक्ष उड़ा ले जायँगे और यदि इन्हें पहनकर नींद लेने लग जाय जो देवता लोग बलात् छीन ले जायँगे। ‘द्विजश्रेष्ठ! इन छिद्रों में इन दोनों कुण्डलों के खो जाने का भय बना रहता है। जो देवता, राक्षस और नागों की ओर से सावधान होता है।, वही इन्हें धारण कर सकता है। ‘द्विजश्रेष्ठ! ये दोनों कुण्डल रात-दिन सोना टपकाते रहते हैं। इतना ही नहीं, रात में ये नक्षत्रों और तारों की प्रभा को छीन लेते हैं। ‘भगवन्! इन्हें धारण कर लेने पर भूख-प्यास का भय कहाँ रह जाता है? विष, अग्नि और हिंसक जन्तुओं से भी कभी भयनहींहोताहै। ‘छोटे कद का मनुष्य इन कुण्डलों को पहने तो छोटे हो जाते हैं और बड़ी डील-डौल वाले मनुष्य के पहनने पर उसी के अनुरुप बड़े हो जाते हैं। ‘ऐसे गुणों से युक्त होने के कारण मेरे ये दोनों कुण्डल तीनों लोकों में परम प्रशंसित एवं प्रसिद्ध हैं। अत: आप महाराज की आज्ञा से इन्हें लेने आये हैं, इसका कोई पहचान या प्रमाण लाइये’।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में उत्तंक मुनि का उपाख्यान विषयक सत्तानवाँ अध्याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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