"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 140 श्लोक 1-15" के अवतरणों में अंतर

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;भारद्वाज कणिकका सौराष्‍ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश
 
;भारद्वाज कणिकका सौराष्‍ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश
युधिष्ठिरने पूछा-भरत नंदन! पितामह! सत्‍ययुग, त्रेता और द्वापर-ये तीनों युग प्राय: समाप्‍त हो रहे हैं, इसलिये जगत् में धर्म का क्षय हो चला है। डाकू और लुटेरे इस धर्म में और भी बाधा डाल रहे हैं; ऐसे समय में किस तरह रहना चाहिये ? भीष्‍मजी ने कहा-भरतनंदन! ऐसे समय में मैं तुम्‍हें आपत्तिकाल की वह नीति बता रहा हूं, जिसके अनुसार भूमिपाल को दया का परित्‍याग करके भी समयोचित बर्ताव करना चाहिये। इस विषय में भारद्वाज कणिक तथा राजा शत्रुंजय के संवादरूप एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। सौवीरदेश में शत्रुंजय नाम से प्रसिद्ध एक महारथी राजा थे। उन्‍होंने भारद्वाज कणिक के पास जाकर अपने कर्तव्‍य का निश्‍चय करने के लिये उनसे इस प्रकार प्रश्‍न किया-‘अप्राप्‍त वस्‍तु की प्राप्ति कैसे होती है? प्राप्‍त द्रव्‍य की वृद्धि किस प्रकार हो सकती है? बढे़ हुए द्रव्‍य की रक्षा किससे की जाती है? और उस सुरक्षित द्रव्‍य का सदुपयोग कैसे किया जाना चाहिये ?’ राजा शत्रुंजय को शास्‍त्र का तात्‍पर्य निश्चितरूप से ज्ञात था। उन्‍होंने जब कर्तव्‍य–निश्‍चय के लिये प्रश्‍न उपस्थित किया, तब ब्रह्मण भारद्वाज कणिक ने यह युक्तियुक्‍त उत्‍तम वचन बोलना आरम्‍भ किया- ‘राजा को सर्वदा दण्‍ड देने के लिये उद्यत रहना चाहिये और सदा ही पुरूषार्थ प्रकट करना चाहिये। राजा अपने में छिद्र अर्थात् दुर्बलता न रहने दे। शत्रुपक्ष के छिद्र या दुर्बलतापर सदा ही दृष्टि रखे और यदि शत्रुओं की दुर्बलता का पता चल जाय तो उन पर आक्रमण कर दे। ‘जो सदा दण्‍ड देने के लये उद्यत रहता है, उससे प्रजाजन बहुत डरते हैं इसलिये समस्‍त प्राणियों को दण्‍ड के द्वारा ही काबू में करे। ‘इस प्रकार तत्‍वदर्शी विद्वान्  दण्‍ड की प्रशंसा करते हैं; अत: साम,दान आदि चारों उपायों में दण्‍ड को ही प्रधान बताया जाता है। ‘यदि मूल आधार नष्‍ट हो जाय तो उसके आश्रय से जीवन निर्वाह करने वाले सभी शत्रुओं का जीवन नष्‍ट हो जाता है। यदि वृक्ष की जड़ काट दी जाय तो उसकी शाखाएं कैसे रह सकती हैं? ‘विद्वान् पुरूष पहले शत्रुपक्ष के मूल का ही उच्‍छेद कर डाले। तत्‍पश्‍चात् उसके सहायकों ओर पक्षपातियोंको भी उस मूल के पथ का ही अनुसरण करावे। ‘संकटकाल उपस्थित होने पर राजा सुंदर मंत्रणा, उत्‍तम पराक्रम एवं उत्‍साहपूर्वक  युद्ध करे तथा अवसर आ जाय तो सुंदर ढंग से पलायन भी करे। आपत्‍काल के समय आवश्‍यक कर्म ही करना चाहिये, पर सोच–विचार नहीं करना चाहिये। ‘राजा केवल बातचीत में ही अत्‍यंत विनयशील हो, हृदय को छूरे के समान तीखा बनाये रखे; पहले मुसकराकर मीठे बचन बोले तथा काम-क्रोध को त्‍याग दे। ‘शत्रु के साथ किये जाने वाले समझौते आदि कार्य में संधि करके भी उस पर विश्‍वास न करे। अपना काम बना लेने पर बुद्धिमान् पुरूष शीघ्र ही वहां से हट जाय। ‘शत्रु को उसका मित्र बनकर मीठे वचनों से ही सान्‍त्‍वना देता रहे; परंतु जैसे सर्पयुक्‍त गृह से मनुष्‍य डरता है, उसी प्रकार उस शत्रु से भी सदा उद्विग्‍न रहे।
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युधिष्ठिरने पूछा-भरत नंदन! पितामह! सत्‍ययुग, त्रेता और द्वापर-ये तीनों युग प्राय: समाप्‍त हो रहे हैं, इसलिये जगत् में धर्म का क्षय हो चला है। डाकू और लुटेरे इस धर्म में और भी बाधा डाल रहे हैं; ऐसे समय में किस तरह रहना चाहिये ? भीष्‍मजी ने कहा-भरतनंदन! ऐसे समय में मैं तुम्‍हें आपत्तिकाल की वह नीति बता रहा हूं, जिसके अनुसार भूमिपाल को दया का परित्‍याग करके भी समयोचित बर्ताव करना चाहिये। इस विषय में भारद्वाज कणिक तथा राजा शत्रुंजय के संवादरूप एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। सौवीरदेश में शत्रुंजय नाम से प्रसिद्ध एक महारथी राजा थे। उन्‍होंने भारद्वाज कणिक के पास जाकर अपने कर्तव्‍य का निश्‍चय करने के लिये उनसे इस प्रकार प्रश्‍न किया-‘अप्राप्‍त वस्‍तु की प्राप्ति कैसे होती है? प्राप्‍त द्रव्‍य की वृद्धि किस प्रकार हो सकती है? बढे़ हुए द्रव्‍य की रक्षा किससे की जाती है? और उस सुरक्षित द्रव्‍य का सदुपयोग कैसे किया जाना चाहिये ?’ राजा शत्रुंजय को शास्‍त्र का तात्‍पर्य निश्चितरूप से ज्ञात था। उन्‍होंने जब कर्तव्‍य–निश्‍चय के लिये प्रश्‍न उपस्थित किया, तब ब्रह्मण भारद्वाज कणिक ने यह युक्तियुक्‍त उत्‍तम वचन बोलना आरम्‍भ किया- ‘राजा को सर्वदा दण्‍ड देने के लिये उद्यत रहना चाहिये और सदा ही पुरूषार्थ प्रकट करना चाहिये। राजा अपने में छिद्र अर्थात् दुर्बलता न रहने दे। शत्रुपक्ष के छिद्र या दुर्बलतापर सदा ही दृष्टि रखे और यदि शत्रुओं की दुर्बलता का पता चल जाय तो उन पर आक्रमण कर दे। ‘जो सदा दण्‍ड देने के लये उद्यत रहता है, उससे प्रजाजन बहुत डरते हैं इसलिये समस्‍त प्राणियों को दण्‍ड के द्वारा ही काबू में करे। ‘इस प्रकार तत्‍वदर्शी विद्वान्  दण्‍ड की प्रशंसा करते हैं; अत: साम,दान आदि चारों उपायों में दण्‍ड को ही प्रधान बताया जाता है। ‘यदि मूल आधार नष्‍ट हो जाय तो उसके आश्रय से जीवन निर्वाह करने वाले सभी शत्रुओं का जीवन नष्‍ट हो जाता है। यदि वृक्ष की जड़ काट दी जाय तो उसकी शाखाएं कैसे रह सकती हैं? ‘विद्वान् पुरूष पहले शत्रुपक्ष के मूल का ही उच्‍छेद कर डाले। तत्‍पश्‍चात् उसके सहायकों ओर पक्षपातियोंको भी उस मूल के पथ का ही अनुसरण करावे। ‘संकटकाल उपस्थित होने पर राजा सुंदर मंत्रणा, उत्‍तम पराक्रम एवं उत्‍साहपूर्वक  युद्ध करे तथा अवसर आ जाय तो सुंदर ढंग से पलायन भी करे। आपत्‍काल के समय आवश्‍यक कर्म ही करना चाहिये, पर सोच–विचार नहीं करना चाहिये। ‘राजा केवल बातचीत में ही अत्‍यंत विनयशील हो, हृदय को छूरे के समान तीखा बनाये रखे; पहले मुसकराकर मीठे बचन बोले तथा काम-क्रोध को त्‍याग दे। ‘शत्रु के साथ किये जाने वाले समझौते आदि कार्य में संधि करके भी उस पर विश्‍वास न करे। अपना काम बना लेने पर बुद्धिमान पुरूष शीघ्र ही वहां से हट जाय। ‘शत्रु को उसका मित्र बनकर मीठे वचनों से ही सान्‍त्‍वना देता रहे; परंतु जैसे सर्पयुक्‍त गृह से मनुष्‍य डरता है, उसी प्रकार उस शत्रु से भी सदा उद्विग्‍न रहे।
  
 
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 139 श्लोक 108-113|अगला=महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 140 श्लोक 16-29}}  
 
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==संबंधित लेख==
 
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११:५९, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

चत्‍वारिंशदधिकशततम (140) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: चत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
भारद्वाज कणिकका सौराष्‍ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश

युधिष्ठिरने पूछा-भरत नंदन! पितामह! सत्‍ययुग, त्रेता और द्वापर-ये तीनों युग प्राय: समाप्‍त हो रहे हैं, इसलिये जगत् में धर्म का क्षय हो चला है। डाकू और लुटेरे इस धर्म में और भी बाधा डाल रहे हैं; ऐसे समय में किस तरह रहना चाहिये ? भीष्‍मजी ने कहा-भरतनंदन! ऐसे समय में मैं तुम्‍हें आपत्तिकाल की वह नीति बता रहा हूं, जिसके अनुसार भूमिपाल को दया का परित्‍याग करके भी समयोचित बर्ताव करना चाहिये। इस विषय में भारद्वाज कणिक तथा राजा शत्रुंजय के संवादरूप एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। सौवीरदेश में शत्रुंजय नाम से प्रसिद्ध एक महारथी राजा थे। उन्‍होंने भारद्वाज कणिक के पास जाकर अपने कर्तव्‍य का निश्‍चय करने के लिये उनसे इस प्रकार प्रश्‍न किया-‘अप्राप्‍त वस्‍तु की प्राप्ति कैसे होती है? प्राप्‍त द्रव्‍य की वृद्धि किस प्रकार हो सकती है? बढे़ हुए द्रव्‍य की रक्षा किससे की जाती है? और उस सुरक्षित द्रव्‍य का सदुपयोग कैसे किया जाना चाहिये ?’ राजा शत्रुंजय को शास्‍त्र का तात्‍पर्य निश्चितरूप से ज्ञात था। उन्‍होंने जब कर्तव्‍य–निश्‍चय के लिये प्रश्‍न उपस्थित किया, तब ब्रह्मण भारद्वाज कणिक ने यह युक्तियुक्‍त उत्‍तम वचन बोलना आरम्‍भ किया- ‘राजा को सर्वदा दण्‍ड देने के लिये उद्यत रहना चाहिये और सदा ही पुरूषार्थ प्रकट करना चाहिये। राजा अपने में छिद्र अर्थात् दुर्बलता न रहने दे। शत्रुपक्ष के छिद्र या दुर्बलतापर सदा ही दृष्टि रखे और यदि शत्रुओं की दुर्बलता का पता चल जाय तो उन पर आक्रमण कर दे। ‘जो सदा दण्‍ड देने के लये उद्यत रहता है, उससे प्रजाजन बहुत डरते हैं इसलिये समस्‍त प्राणियों को दण्‍ड के द्वारा ही काबू में करे। ‘इस प्रकार तत्‍वदर्शी विद्वान् दण्‍ड की प्रशंसा करते हैं; अत: साम,दान आदि चारों उपायों में दण्‍ड को ही प्रधान बताया जाता है। ‘यदि मूल आधार नष्‍ट हो जाय तो उसके आश्रय से जीवन निर्वाह करने वाले सभी शत्रुओं का जीवन नष्‍ट हो जाता है। यदि वृक्ष की जड़ काट दी जाय तो उसकी शाखाएं कैसे रह सकती हैं? ‘विद्वान् पुरूष पहले शत्रुपक्ष के मूल का ही उच्‍छेद कर डाले। तत्‍पश्‍चात् उसके सहायकों ओर पक्षपातियोंको भी उस मूल के पथ का ही अनुसरण करावे। ‘संकटकाल उपस्थित होने पर राजा सुंदर मंत्रणा, उत्‍तम पराक्रम एवं उत्‍साहपूर्वक युद्ध करे तथा अवसर आ जाय तो सुंदर ढंग से पलायन भी करे। आपत्‍काल के समय आवश्‍यक कर्म ही करना चाहिये, पर सोच–विचार नहीं करना चाहिये। ‘राजा केवल बातचीत में ही अत्‍यंत विनयशील हो, हृदय को छूरे के समान तीखा बनाये रखे; पहले मुसकराकर मीठे बचन बोले तथा काम-क्रोध को त्‍याग दे। ‘शत्रु के साथ किये जाने वाले समझौते आदि कार्य में संधि करके भी उस पर विश्‍वास न करे। अपना काम बना लेने पर बुद्धिमान पुरूष शीघ्र ही वहां से हट जाय। ‘शत्रु को उसका मित्र बनकर मीठे वचनों से ही सान्‍त्‍वना देता रहे; परंतु जैसे सर्पयुक्‍त गृह से मनुष्‍य डरता है, उसी प्रकार उस शत्रु से भी सदा उद्विग्‍न रहे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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