"महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 16 श्लोक 20-32": अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: षोडश अध्याय: श्लोक 20-32 का हिन्दी अनुवाद </div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: षोडश अध्याय: श्लोक 20-32 का हिन्दी अनुवाद </div>


‘प्रियदर्शने ! पहले जब हम लोग नगर से बाहर जाने का उद्यत थे, आपने विदुला के वचनों द्वारा हमें क्षत्रिय धर्म के पालन के लिये उत्साह दिलाया था। अतः आज हमें त्यागकर जाना आपके लिये उचित नहीं है। ‘पुरूषोतम भगवान् श्रीकृष्ण के मुख से आपका विचार सुनकर ही मैंने बहुत से राजाओं का संहार करके इस राज्य को प्राप्त किया है । ‘कहाँ आपकी वह बुद्धि और कहाँ आपका यह विचार ? मैंने आपका जो विचार सुना है, उसके अनुसार हमें क्षत्रिय धर्म में स्थित रहने का उपदेश देकर आप स्वयं उससे गिरना चाहती हैं। ‘यशस्विनी मा ! भला आप हमको, अपनी इन बहुओं को और इस राज्य को छोड़कर अब उन दुर्गम वनों में कैसे रह सकेंगी; अतः हम लोगों पर कृपा करके यहीं रहिये’। अपने पुत्र के ये अश्रु गद्गद वचन सुनकर कुन्ती के नेत्रों में आँसू उमड़ आये तो भी वे रूक न सकीं । आगे बढ़ती ही गयीं । तब भीमसेन ने उनसे कहा - ‘माताजी ! जब पुत्रों के जीते हुए इस राज्य के भोगने का अवसर आया और राजधर्म के पालन की सुविधा प्राप्त हुई, तब आपको ऐसी बुद्धि कैसे हो गयी ? ‘यदि ऐसा की करना था तो आपने इस भूमण्डल का विनाश क्यों करवाया ? क्या कारण है कि आप हमें छोड़कर वन में जाना चाहती हैं ? ‘जब आपको वन में ही जाना था, तब आप हमको और दुःख शोक में डूबे हुए उन माद्रीकुमारों को बाल्यावास्था में वन से नगर में क्यों ले आयीं ? ‘मेरी यशस्विनी मा ! आप प्रसन्न हों । आप हमें छोड़कर वन में न जायँ । बलपूर्वक प्राप्त की हुई राजा युधिष्ठिर की उस राजलक्ष्मी का उपभोग करें। शुद्ध हृदयवाली कुन्ती देवी वन में रहने का दृढ़ निश्चय कर चुकी थीं; अतः नाना प्रकार से विलाप करते हुए अपने पुत्रों का अनुरोध उन्होंने नहीं माना। सास को इस प्रकार वनवास के लिये जाती देख द्रौपदी के मुख पर भी विषाद छा गया । वह सुभद्रा के साथ रोती हुई स्वयं भी कुन्ती के पीछे-पीछे जाने लगी। कुन्ती की बुद्धि विशाल थी । वे वनवास का पक्का निश्चय कर चुकी थीं; इसलिये अपने रोते हुए समस्त पुत्रों की ओर बार-बार देखती हुई वे आगे बढ़ती ही चली गयीं । पाण्डव भी अपने सेवकों और अन्तःपुर की स्त्रियों के साथ उनके पीछे-पीछे जाने लगे । तब उन्होनें आँसू पोंछकर अपने पुत्रों से इस प्रकार कहा।
‘प्रियदर्शने ! पहले जब हम लोग नगर से बाहर जाने का उद्यत थे, आपने विदुला के वचनों द्वारा हमें क्षत्रिय धर्म के पालन के लिये उत्साह दिलाया था। अतः आज हमें त्यागकर जाना आपके लिये उचित नहीं है। ‘पुरूषोतम भगवान  श्रीकृष्ण के मुख से आपका विचार सुनकर ही मैंने बहुत से राजाओं का संहार करके इस राज्य को प्राप्त किया है । ‘कहाँ आपकी वह बुद्धि और कहाँ आपका यह विचार ? मैंने आपका जो विचार सुना है, उसके अनुसार हमें क्षत्रिय धर्म में स्थित रहने का उपदेश देकर आप स्वयं उससे गिरना चाहती हैं। ‘यशस्विनी मा ! भला आप हमको, अपनी इन बहुओं को और इस राज्य को छोड़कर अब उन दुर्गम वनों में कैसे रह सकेंगी; अतः हम लोगों पर कृपा करके यहीं रहिये’। अपने पुत्र के ये अश्रु गद्गद वचन सुनकर कुन्ती के नेत्रों में आँसू उमड़ आये तो भी वे रूक न सकीं । आगे बढ़ती ही गयीं । तब भीमसेन ने उनसे कहा - ‘माताजी ! जब पुत्रों के जीते हुए इस राज्य के भोगने का अवसर आया और राजधर्म के पालन की सुविधा प्राप्त हुई, तब आपको ऐसी बुद्धि कैसे हो गयी ? ‘यदि ऐसा की करना था तो आपने इस भूमण्डल का विनाश क्यों करवाया ? क्या कारण है कि आप हमें छोड़कर वन में जाना चाहती हैं ? ‘जब आपको वन में ही जाना था, तब आप हमको और दुःख शोक में डूबे हुए उन माद्रीकुमारों को बाल्यावास्था में वन से नगर में क्यों ले आयीं ? ‘मेरी यशस्विनी मा ! आप प्रसन्न हों । आप हमें छोड़कर वन में न जायँ । बलपूर्वक प्राप्त की हुई राजा युधिष्ठिर की उस राजलक्ष्मी का उपभोग करें। शुद्ध हृदयवाली कुन्ती देवी वन में रहने का दृढ़ निश्चय कर चुकी थीं; अतः नाना प्रकार से विलाप करते हुए अपने पुत्रों का अनुरोध उन्होंने नहीं माना। सास को इस प्रकार वनवास के लिये जाती देख द्रौपदी के मुख पर भी विषाद छा गया । वह सुभद्रा के साथ रोती हुई स्वयं भी कुन्ती के पीछे-पीछे जाने लगी। कुन्ती की बुद्धि विशाल थी । वे वनवास का पक्का निश्चय कर चुकी थीं; इसलिये अपने रोते हुए समस्त पुत्रों की ओर बार-बार देखती हुई वे आगे बढ़ती ही चली गयीं । पाण्डव भी अपने सेवकों और अन्तःपुर की स्त्रियों के साथ उनके पीछे-पीछे जाने लगे । तब उन्होनें आँसू पोंछकर अपने पुत्रों से इस प्रकार कहा।


<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिक पर्व के अन्तर्गत आश्रमवास पर्व में कुन्ती का वन का प्रस्थान विषयक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिक पर्व के अन्तर्गत आश्रमवास पर्व में कुन्ती का वन का प्रस्थान विषयक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div>
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१२:०८, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

षोडश (16) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (आश्रमवास पर्व)

महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: षोडश अध्याय: श्लोक 20-32 का हिन्दी अनुवाद

‘प्रियदर्शने ! पहले जब हम लोग नगर से बाहर जाने का उद्यत थे, आपने विदुला के वचनों द्वारा हमें क्षत्रिय धर्म के पालन के लिये उत्साह दिलाया था। अतः आज हमें त्यागकर जाना आपके लिये उचित नहीं है। ‘पुरूषोतम भगवान श्रीकृष्ण के मुख से आपका विचार सुनकर ही मैंने बहुत से राजाओं का संहार करके इस राज्य को प्राप्त किया है । ‘कहाँ आपकी वह बुद्धि और कहाँ आपका यह विचार ? मैंने आपका जो विचार सुना है, उसके अनुसार हमें क्षत्रिय धर्म में स्थित रहने का उपदेश देकर आप स्वयं उससे गिरना चाहती हैं। ‘यशस्विनी मा ! भला आप हमको, अपनी इन बहुओं को और इस राज्य को छोड़कर अब उन दुर्गम वनों में कैसे रह सकेंगी; अतः हम लोगों पर कृपा करके यहीं रहिये’। अपने पुत्र के ये अश्रु गद्गद वचन सुनकर कुन्ती के नेत्रों में आँसू उमड़ आये तो भी वे रूक न सकीं । आगे बढ़ती ही गयीं । तब भीमसेन ने उनसे कहा - ‘माताजी ! जब पुत्रों के जीते हुए इस राज्य के भोगने का अवसर आया और राजधर्म के पालन की सुविधा प्राप्त हुई, तब आपको ऐसी बुद्धि कैसे हो गयी ? ‘यदि ऐसा की करना था तो आपने इस भूमण्डल का विनाश क्यों करवाया ? क्या कारण है कि आप हमें छोड़कर वन में जाना चाहती हैं ? ‘जब आपको वन में ही जाना था, तब आप हमको और दुःख शोक में डूबे हुए उन माद्रीकुमारों को बाल्यावास्था में वन से नगर में क्यों ले आयीं ? ‘मेरी यशस्विनी मा ! आप प्रसन्न हों । आप हमें छोड़कर वन में न जायँ । बलपूर्वक प्राप्त की हुई राजा युधिष्ठिर की उस राजलक्ष्मी का उपभोग करें। शुद्ध हृदयवाली कुन्ती देवी वन में रहने का दृढ़ निश्चय कर चुकी थीं; अतः नाना प्रकार से विलाप करते हुए अपने पुत्रों का अनुरोध उन्होंने नहीं माना। सास को इस प्रकार वनवास के लिये जाती देख द्रौपदी के मुख पर भी विषाद छा गया । वह सुभद्रा के साथ रोती हुई स्वयं भी कुन्ती के पीछे-पीछे जाने लगी। कुन्ती की बुद्धि विशाल थी । वे वनवास का पक्का निश्चय कर चुकी थीं; इसलिये अपने रोते हुए समस्त पुत्रों की ओर बार-बार देखती हुई वे आगे बढ़ती ही चली गयीं । पाण्डव भी अपने सेवकों और अन्तःपुर की स्त्रियों के साथ उनके पीछे-पीछे जाने लगे । तब उन्होनें आँसू पोंछकर अपने पुत्रों से इस प्रकार कहा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिक पर्व के अन्तर्गत आश्रमवास पर्व में कुन्ती का वन का प्रस्थान विषयक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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