"महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 52 श्लोक 1-20" के अवतरणों में अंतर
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− | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: द्विपञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 1- | + | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: द्विपञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद</div> |
− | + | श्रीकृष्ण का अर्जुन के साथ हस्तिनापुर जान और वहाँ सबसे मिलकर युधिष्ठर की आज्ञा ले सुभद्रा के साथ द्वारका को प्रस्थान करना | |
− | वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन्! तदन्तर | + | |
+ | वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन्! तदन्तर भगवान श्रीकृष्ण ने दारुक को आज्ञा दी कि ‘रथ जोतकर तैयार करो।’ दारुक ने दो ही घड़ी में लौटकर सूचना दी कि ‘रथ जुत गया’। | ||
इसी प्रकार अर्जुन ने भी अपने सेवकों को आदेश दिया कि ‘सब लोग रथ को सुसज्जित करो। अब हमें हस्तिनापुर की यात्रा करनी है’। | इसी प्रकार अर्जुन ने भी अपने सेवकों को आदेश दिया कि ‘सब लोग रथ को सुसज्जित करो। अब हमें हस्तिनापुर की यात्रा करनी है’। | ||
प्रजानाथ! आज्ञा पाते ही सम्पूर्ण सैनिक तैयार हो गये और महान् तेजस्वी अर्जुन के पास जाकर बोले- ‘रथ सुसज्जित है और यात्रा की सारी तैयारी पूरी हो गयी’। | प्रजानाथ! आज्ञा पाते ही सम्पूर्ण सैनिक तैयार हो गये और महान् तेजस्वी अर्जुन के पास जाकर बोले- ‘रथ सुसज्जित है और यात्रा की सारी तैयारी पूरी हो गयी’। | ||
− | राजन्! तदन्तर | + | राजन्! तदन्तर भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन रथ पर बैठकर आपस में तरह-तरह की विचित्र बातें करते हुए प्रसन्नतापूर्वक वहाँ से चल दिये। |
− | भरतभूषण! रथ पर बैठे हुए | + | भरतभूषण! रथ पर बैठे हुए भगवान श्रीकृष्ण से पुन: इस प्रकार महातेजस्वी अर्जुन बोले- |
‘वृष्णिकुलधुरन्धर श्रीकृष्ण ! आपकी कृपा से ही राजा युधिष्ठर को विजय प्राप्त हुई है। उनके शत्रुओं का दमन हो गया और उन्हें निष्कण्टक राज्य मिला’। | ‘वृष्णिकुलधुरन्धर श्रीकृष्ण ! आपकी कृपा से ही राजा युधिष्ठर को विजय प्राप्त हुई है। उनके शत्रुओं का दमन हो गया और उन्हें निष्कण्टक राज्य मिला’। | ||
‘मधुसूदन! हम सभी पाण्डव आप से सनाथ हैं, आपको ही नौकारूप पाकर हम लोग कौरवसेनारूपी समुद्र से पार हुए हैं। | ‘मधुसूदन! हम सभी पाण्डव आप से सनाथ हैं, आपको ही नौकारूप पाकर हम लोग कौरवसेनारूपी समुद्र से पार हुए हैं। | ||
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१२:१०, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
द्विपञ्चाशत्तम (52) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
श्रीकृष्ण का अर्जुन के साथ हस्तिनापुर जान और वहाँ सबसे मिलकर युधिष्ठर की आज्ञा ले सुभद्रा के साथ द्वारका को प्रस्थान करना
वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन्! तदन्तर भगवान श्रीकृष्ण ने दारुक को आज्ञा दी कि ‘रथ जोतकर तैयार करो।’ दारुक ने दो ही घड़ी में लौटकर सूचना दी कि ‘रथ जुत गया’। इसी प्रकार अर्जुन ने भी अपने सेवकों को आदेश दिया कि ‘सब लोग रथ को सुसज्जित करो। अब हमें हस्तिनापुर की यात्रा करनी है’। प्रजानाथ! आज्ञा पाते ही सम्पूर्ण सैनिक तैयार हो गये और महान् तेजस्वी अर्जुन के पास जाकर बोले- ‘रथ सुसज्जित है और यात्रा की सारी तैयारी पूरी हो गयी’। राजन्! तदन्तर भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन रथ पर बैठकर आपस में तरह-तरह की विचित्र बातें करते हुए प्रसन्नतापूर्वक वहाँ से चल दिये। भरतभूषण! रथ पर बैठे हुए भगवान श्रीकृष्ण से पुन: इस प्रकार महातेजस्वी अर्जुन बोले- ‘वृष्णिकुलधुरन्धर श्रीकृष्ण ! आपकी कृपा से ही राजा युधिष्ठर को विजय प्राप्त हुई है। उनके शत्रुओं का दमन हो गया और उन्हें निष्कण्टक राज्य मिला’। ‘मधुसूदन! हम सभी पाण्डव आप से सनाथ हैं, आपको ही नौकारूप पाकर हम लोग कौरवसेनारूपी समुद्र से पार हुए हैं। विश्वकर्मन्! आपको नमस्कार है। विश्वात्मन्! आप सम्पूर्ण विश्व में श्रेष्ठ हैं। मैं आपको उसी तरह जानता हूँ, जिस तरह आप मुझे समझते हैं। ‘मधुसूदन! आपके ही तेज से सदा सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति होती है। आप ही सब प्राणियों के आत्मा हैं। प्रभो! नाना प्रकार की लीलाएँ आपकी रति (मनोरंजन) हैं। आकाश और पृथ्वी आपकी माया हैं। ‘यह जो स्थावर जंगमरूप जगत् है, सब आप ही में प्रतिष्ठित है। आप ही चार प्रकार के समस्त प्राणिसमुदाय की सृष्टि करते हैं। ‘मधुसूदन! पृथ्वी, अन्तरिक्ष और आकाश की सृष्टि भी आपने ही की है। निर्मल चाँदनी आपका हास्य है और ऋतुएँ आपकी इन्द्रियाँ हैं। ‘सदा चलने वाली वायु प्राण हैं, क्रोध सनातन मृत्यु है। महामते! आपके प्रसाद में लक्ष्मी विराजमान हैं। आपके वक्ष:स्थल में सदा ही श्रीजी का निवास है। ‘अनघ! आप में ही रति, तुष्टि, धृति, क्षान्ति, मति, कान्ति और चराचर जगत् हैं। आप ही युगान्तकरकाल में प्रलय कहे जाते हैं। ‘दीर्घकाल तक गणना करने पर भी आपके गुणों का पार पाना असम्भव है। आप ही आत्मा और परमात्मा हैं। कमलनयन! आपको नमस्कार है। ‘दुर्धुर्ष! परमेश्वर! मैंने देवर्षि नारद, देवल, श्रीकृष्णद्वैपायन तथा पितामह भीष्म के मुख से आपके माहात्म्य का ज्ञान प्राप्त किया है। ‘सारा जगत् आप में ही ओत-प्रोत है। एकमात्र आप ही मनुष्यों के अधीश्वर हैं। निष्पाप जनार्दन! आपने मुझ पर कृपा करके जो यह उपदेश दिया है, उसका मैं यथावत पालन करूँगा। ‘हम लोगों का प्रिय करने की इच्छा से आपने यह अद्भुत कार्य किया कि धृतराष्ट्र के पुत्र कुरुकुलकलंक पापी दुर्योधन को (भैया भीम के द्वारा) युद्ध में मरवा डाला। ‘शत्रु की सेना को आपने ही अपने तेज से दग्ध कर दिया था। तभी मैंने युद्ध में उस पर विजय पायी है। आपने ही ऐसे-ऐसे उपाय किये हैं, जिनसे मुझे विजय सुलभ हुई है। ‘संग्राम में आपकी ही बुद्धि और पराक्रम से दुर्योधन, कर्ण, पापी सिन्धुराज जयद्रथ तथा भूरिश्रवा के वध का उपाय मुझे यथावत् रूप से दृष्टिगोचर हुआ।
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