"महाभारत वन पर्व अध्याय 278 श्लोक 15-33" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: अष्टसप्तत्यधिकद्वशततम अध्यायः श्लोक 15-33 का हिन्दी अनुवाद</div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: अष्टसप्तत्यधिकद्वशततम अध्यायः श्लोक 15-33 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
तदनन्तर अनायास ही महान् कर्म करने वाले श्रीरामचन्द्रजी के आश्रम के समीप जाकर उन दोनों ने पहले जैसी सलाह कर रक्खी थी, उसके अनुसार सब कार्य किया। रावण मुँह मुड़ाये, भिक्षापात्र हाथ में लिये एवं त्रिदण्डधारी संन्यासी का रूप धारण करके और मारीच मृग बनकर दोनों उस स्थान पर गये। मारीच ने विदेहनन्दिनी सीता के समक्ष अपना मृग का रूप प्रकट किया। विधि के विधान से प्रेरित होकर सीता ने उस मृग को लाने के लिये श्रीरामचन्द्रजी को भेजा। श्रीरामचन्द्रजी सीता का प्रिय करने के लिये धनुष हाथ में ले लक्ष्मण को सीता की रक्षा का भार सौंपकर मृग को लाने की इच्छा से तुरंत चल दिये। वे धनुष बाण ले, पीठपर तरकस बाँधकर, कटि में कृपाण लटकाये तथा हाथों में दस्ताने पहने उस मृग के पीछे उसी प्रकार दौड़े जैसे मृगशिरा नक्षत्र के पीछे भगवान् रुद्र दौड़े थे। मायावी राक्षस मारीच कभी छिप जाता और कभी नेत्रों के समक्ष प्रकट हो जाता था। इस प्रकार वह श्रीरामचन्द्रजी को आश्रम से बहुत दूर खींच ल गया। तब श्रीरामचन्द्रजी यह ताड़ गये कि यह कोई मायावी राक्षस है। यह बात ध्यान में आते ही प्रतिभाशाली श्रीरघुनाथजी ने एक अमोघ बाण लेकर उस मृगरूपधारी निशाचर को मार डाला।। श्रीरामचन्द्रजी के बाण से आहत हो मरते समय मारीच ने उनके ही स्वर में ‘हा सीते, हा लक्ष्मण’ कहकर आर्तनाद किया। विदेहनन्दिनी सीती ने भी उनकी वह करुणा भरी पुकार सुनी। उसकी पुकार सुनते ही जिस ओर से वह आवाज आयी थी, उसी ओर वे दौड़ पड़ी। तब लक्ष्मण ने उनसे कहा- ‘भीरु ! डरने की कोई बात नहीं है। भला, कौन ऐसा है, जो भगवान् राम को मार सकेगा ? शुचिस्मिते ! तुम दो ही घड़ी में अपने पति भगवान् श्रीराम को यहाँ उपस्थित देखोगी। लक्ष्मण की यह बात सुनकर रोती हुई सीता ने उन्हें संदेह की दृष्टि से देखा। वे साध्वी और पतिव्रता थीं। तथापि स्त्री-स्वभाववश उस समय उनकी बुद्धि मारी गयी। उन्होंने लक्ष्मण को कठोर बातें सुनानी आरम्भ की- ‘ओ मूढ़ ! तुम मन-ही-मन जिस वस्तु को पाना चाहते हो, तुम्हारा वह मनोरथ कभी पूर्ण न होगा। मैं स्वयं तलवार लेकर अपना गला काट लूँगी, पर्वत के शिखर से कूद पढ़ूँगी अथवा जलती हुई आग में समा जाऊँगी। परंतु रा जैसे स्वामी को छोड़कर तुम जैसे नीच पुरुष का कदापि वरण न करूँगी। जैसे सिंहिनी सियार को नहीं स्वीकार कर सकती, उसी प्रकार मैं तुम्हें नहीं ग्रहण करूँगी’। लक्ष्मण सदाचारी तथा श्रीरामचन्द्रजी के प्रेमी थे। उन्होंने सीता के कठसेर वचन सुनकर अपने दोनों कान बंद कर लिये और मार्ग से चल दिये, जिससे श्रीरामचन्द्रजी गये थे। उस समय उनके हाथ में धनुष था। उन्होंने बिम्बफल के समान अरुण अधरों वाली सीता की ओर आँख उठाकर देखा तक नहीं। श्रीराम के पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए उन्होंने वहाँ से प्रस्थान कर दिया । इसी समय अवसर पाकर राक्षस रावण साध्वी सीता को हर ले जाने की इच्छा से वहाँ दिखायी दिया। वह भयानक निशाचर सुन्दर रूप धारण करके राख में छिपी हुई आग के समान सन्यासी के वेष में अपने यथार्थ रूप को छिपाये हुए था।। उस समय यति को अपने आश्रम पर आया हुआ देख धर्म को जानने वाली जनकनन्दिनी सीता फल-मूल के भोजन आदि से अतिथि सत्कार के लिये उसे निमन्त्रित किया।
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तदनन्तर अनायास ही महान् कर्म करने वाले श्रीरामचन्द्रजी के आश्रम के समीप जाकर उन दोनों ने पहले जैसी सलाह कर रक्खी थी, उसके अनुसार सब कार्य किया। रावण मुँह मुड़ाये, भिक्षापात्र हाथ में लिये एवं त्रिदण्डधारी संन्यासी का रूप धारण करके और मारीच मृग बनकर दोनों उस स्थान पर गये। मारीच ने विदेहनन्दिनी सीता के समक्ष अपना मृग का रूप प्रकट किया। विधि के विधान से प्रेरित होकर सीता ने उस मृग को लाने के लिये श्रीरामचन्द्रजी को भेजा। श्रीरामचन्द्रजी सीता का प्रिय करने के लिये धनुष हाथ में ले लक्ष्मण को सीता की रक्षा का भार सौंपकर मृग को लाने की इच्छा से तुरंत चल दिये। वे धनुष बाण ले, पीठपर तरकस बाँधकर, कटि में कृपाण लटकाये तथा हाथों में दस्ताने पहने उस मृग के पीछे उसी प्रकार दौड़े जैसे मृगशिरा नक्षत्र के पीछे भगवान  रुद्र दौड़े थे। मायावी राक्षस मारीच कभी छिप जाता और कभी नेत्रों के समक्ष प्रकट हो जाता था। इस प्रकार वह श्रीरामचन्द्रजी को आश्रम से बहुत दूर खींच ल गया। तब श्रीरामचन्द्रजी यह ताड़ गये कि यह कोई मायावी राक्षस है। यह बात ध्यान में आते ही प्रतिभाशाली श्रीरघुनाथजी ने एक अमोघ बाण लेकर उस मृगरूपधारी निशाचर को मार डाला।। श्रीरामचन्द्रजी के बाण से आहत हो मरते समय मारीच ने उनके ही स्वर में ‘हा सीते, हा लक्ष्मण’ कहकर आर्तनाद किया। विदेहनन्दिनी सीती ने भी उनकी वह करुणा भरी पुकार सुनी। उसकी पुकार सुनते ही जिस ओर से वह आवाज आयी थी, उसी ओर वे दौड़ पड़ी। तब लक्ष्मण ने उनसे कहा- ‘भीरु ! डरने की कोई बात नहीं है। भला, कौन ऐसा है, जो भगवान  राम को मार सकेगा ? शुचिस्मिते ! तुम दो ही घड़ी में अपने पति भगवान  श्रीराम को यहाँ उपस्थित देखोगी। लक्ष्मण की यह बात सुनकर रोती हुई सीता ने उन्हें संदेह की दृष्टि से देखा। वे साध्वी और पतिव्रता थीं। तथापि स्त्री-स्वभाववश उस समय उनकी बुद्धि मारी गयी। उन्होंने लक्ष्मण को कठोर बातें सुनानी आरम्भ की- ‘ओ मूढ़ ! तुम मन-ही-मन जिस वस्तु को पाना चाहते हो, तुम्हारा वह मनोरथ कभी पूर्ण न होगा। मैं स्वयं तलवार लेकर अपना गला काट लूँगी, पर्वत के शिखर से कूद पढ़ूँगी अथवा जलती हुई आग में समा जाऊँगी। परंतु रा जैसे स्वामी को छोड़कर तुम जैसे नीच पुरुष का कदापि वरण न करूँगी। जैसे सिंहिनी सियार को नहीं स्वीकार कर सकती, उसी प्रकार मैं तुम्हें नहीं ग्रहण करूँगी’। लक्ष्मण सदाचारी तथा श्रीरामचन्द्रजी के प्रेमी थे। उन्होंने सीता के कठसेर वचन सुनकर अपने दोनों कान बंद कर लिये और मार्ग से चल दिये, जिससे श्रीरामचन्द्रजी गये थे। उस समय उनके हाथ में धनुष था। उन्होंने बिम्बफल के समान अरुण अधरों वाली सीता की ओर आँख उठाकर देखा तक नहीं। श्रीराम के पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए उन्होंने वहाँ से प्रस्थान कर दिया । इसी समय अवसर पाकर राक्षस रावण साध्वी सीता को हर ले जाने की इच्छा से वहाँ दिखायी दिया। वह भयानक निशाचर सुन्दर रूप धारण करके राख में छिपी हुई आग के समान सन्यासी के वेष में अपने यथार्थ रूप को छिपाये हुए था।। उस समय यति को अपने आश्रम पर आया हुआ देख धर्म को जानने वाली जनकनन्दिनी सीता फल-मूल के भोजन आदि से अतिथि सत्कार के लिये उसे निमन्त्रित किया।
  
 
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
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१२:१७, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

अष्टसप्तत्यधिकद्वशततम (278) अध्‍याय: वन पर्व (रामोख्यान पर्व )

महाभारत: वन पर्व: अष्टसप्तत्यधिकद्वशततम अध्यायः श्लोक 15-33 का हिन्दी अनुवाद

तदनन्तर अनायास ही महान् कर्म करने वाले श्रीरामचन्द्रजी के आश्रम के समीप जाकर उन दोनों ने पहले जैसी सलाह कर रक्खी थी, उसके अनुसार सब कार्य किया। रावण मुँह मुड़ाये, भिक्षापात्र हाथ में लिये एवं त्रिदण्डधारी संन्यासी का रूप धारण करके और मारीच मृग बनकर दोनों उस स्थान पर गये। मारीच ने विदेहनन्दिनी सीता के समक्ष अपना मृग का रूप प्रकट किया। विधि के विधान से प्रेरित होकर सीता ने उस मृग को लाने के लिये श्रीरामचन्द्रजी को भेजा। श्रीरामचन्द्रजी सीता का प्रिय करने के लिये धनुष हाथ में ले लक्ष्मण को सीता की रक्षा का भार सौंपकर मृग को लाने की इच्छा से तुरंत चल दिये। वे धनुष बाण ले, पीठपर तरकस बाँधकर, कटि में कृपाण लटकाये तथा हाथों में दस्ताने पहने उस मृग के पीछे उसी प्रकार दौड़े जैसे मृगशिरा नक्षत्र के पीछे भगवान रुद्र दौड़े थे। मायावी राक्षस मारीच कभी छिप जाता और कभी नेत्रों के समक्ष प्रकट हो जाता था। इस प्रकार वह श्रीरामचन्द्रजी को आश्रम से बहुत दूर खींच ल गया। तब श्रीरामचन्द्रजी यह ताड़ गये कि यह कोई मायावी राक्षस है। यह बात ध्यान में आते ही प्रतिभाशाली श्रीरघुनाथजी ने एक अमोघ बाण लेकर उस मृगरूपधारी निशाचर को मार डाला।। श्रीरामचन्द्रजी के बाण से आहत हो मरते समय मारीच ने उनके ही स्वर में ‘हा सीते, हा लक्ष्मण’ कहकर आर्तनाद किया। विदेहनन्दिनी सीती ने भी उनकी वह करुणा भरी पुकार सुनी। उसकी पुकार सुनते ही जिस ओर से वह आवाज आयी थी, उसी ओर वे दौड़ पड़ी। तब लक्ष्मण ने उनसे कहा- ‘भीरु ! डरने की कोई बात नहीं है। भला, कौन ऐसा है, जो भगवान राम को मार सकेगा ? शुचिस्मिते ! तुम दो ही घड़ी में अपने पति भगवान श्रीराम को यहाँ उपस्थित देखोगी। लक्ष्मण की यह बात सुनकर रोती हुई सीता ने उन्हें संदेह की दृष्टि से देखा। वे साध्वी और पतिव्रता थीं। तथापि स्त्री-स्वभाववश उस समय उनकी बुद्धि मारी गयी। उन्होंने लक्ष्मण को कठोर बातें सुनानी आरम्भ की- ‘ओ मूढ़ ! तुम मन-ही-मन जिस वस्तु को पाना चाहते हो, तुम्हारा वह मनोरथ कभी पूर्ण न होगा। मैं स्वयं तलवार लेकर अपना गला काट लूँगी, पर्वत के शिखर से कूद पढ़ूँगी अथवा जलती हुई आग में समा जाऊँगी। परंतु रा जैसे स्वामी को छोड़कर तुम जैसे नीच पुरुष का कदापि वरण न करूँगी। जैसे सिंहिनी सियार को नहीं स्वीकार कर सकती, उसी प्रकार मैं तुम्हें नहीं ग्रहण करूँगी’। लक्ष्मण सदाचारी तथा श्रीरामचन्द्रजी के प्रेमी थे। उन्होंने सीता के कठसेर वचन सुनकर अपने दोनों कान बंद कर लिये और मार्ग से चल दिये, जिससे श्रीरामचन्द्रजी गये थे। उस समय उनके हाथ में धनुष था। उन्होंने बिम्बफल के समान अरुण अधरों वाली सीता की ओर आँख उठाकर देखा तक नहीं। श्रीराम के पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए उन्होंने वहाँ से प्रस्थान कर दिया । इसी समय अवसर पाकर राक्षस रावण साध्वी सीता को हर ले जाने की इच्छा से वहाँ दिखायी दिया। वह भयानक निशाचर सुन्दर रूप धारण करके राख में छिपी हुई आग के समान सन्यासी के वेष में अपने यथार्थ रूप को छिपाये हुए था।। उस समय यति को अपने आश्रम पर आया हुआ देख धर्म को जानने वाली जनकनन्दिनी सीता फल-मूल के भोजन आदि से अतिथि सत्कार के लिये उसे निमन्त्रित किया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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