"महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 36": अवतरणों में अंतर
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वहाँ सदा प्रसन्न रहने वाले श्रीकृष्ण रुक्मिणी देवी के साथ बड़े सुख का अनुभव करने लगे। भारत! तत्पश्चात सदा लीला विहार करने वाले यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्ण क्रमश: सत्यभामा तथा जाम्बवती आदि सभी देवियों के निवास स्थानों में गये। तात! महाबाहु युधिष्ठिर! शांर्ग नामक धनुष धारण करनेवाले भगवान श्रीकृष्ण की यह विजय गाथा कही गयी है। इसकी के लिये महात्मा श्रीकृष्ण का मनुष्यों में अवतार हुआ बताया जाता है। | वहाँ सदा प्रसन्न रहने वाले श्रीकृष्ण रुक्मिणी देवी के साथ बड़े सुख का अनुभव करने लगे। भारत! तत्पश्चात सदा लीला विहार करने वाले यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्ण क्रमश: सत्यभामा तथा जाम्बवती आदि सभी देवियों के निवास स्थानों में गये। तात! महाबाहु युधिष्ठिर! शांर्ग नामक धनुष धारण करनेवाले भगवान श्रीकृष्ण की यह विजय गाथा कही गयी है। इसकी के लिये महात्मा श्रीकृष्ण का मनुष्यों में अवतार हुआ बताया जाता है। | ||
;भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा बाणासुर पर विजय और भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण माहात्म्य का उपसंहार | ;भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा बाणासुर पर विजय और भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण माहात्म्य का उपसंहार | ||
भीष्मजी कहते हैं- महाराज युधिष्ठिर! तदनन्तर महायशस्वी भगवान श्रीकृष्ण अपनी रानियों के साथ दिन रात सुख का अनुभव करते हुए द्वारकापुरी में आनन्दपूर्वक रहने लगे। भरतश्रेष्ठ! उन्होंने अपने पौत्र अनिरुद्ध को निमित्त बनाकर देवताओं का जो हित साधन किया, वह इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओं के लिये अत्यन्त दुष्कर था। भरत मुलभूषण! बाण नामक एक राजा हुआ था, जो बलि का ज्येष्ठ पुत्र था। वह महान बलवान और पराक्रमी होने के साथ ही सहस्त्र भुजाओं से सुशोभित था। राजन! बाणासर ने सच्चे मन से बड़ी कठोर तपस्या की। उसने बहुत वर्षों तक | भीष्मजी कहते हैं- महाराज युधिष्ठिर! तदनन्तर महायशस्वी भगवान श्रीकृष्ण अपनी रानियों के साथ दिन रात सुख का अनुभव करते हुए द्वारकापुरी में आनन्दपूर्वक रहने लगे। भरतश्रेष्ठ! उन्होंने अपने पौत्र अनिरुद्ध को निमित्त बनाकर देवताओं का जो हित साधन किया, वह इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओं के लिये अत्यन्त दुष्कर था। भरत मुलभूषण! बाण नामक एक राजा हुआ था, जो बलि का ज्येष्ठ पुत्र था। वह महान बलवान और पराक्रमी होने के साथ ही सहस्त्र भुजाओं से सुशोभित था। राजन! बाणासर ने सच्चे मन से बड़ी कठोर तपस्या की। उसने बहुत वर्षों तक भगवान शंकर की आराधना की। महात्मा शंकर ने उसे अनेक वरदान दिये। भगवान शंकर से देवदुर्लभ वरदान पाकर बाणासुर अनुपम बलशाली हो गया और शोणितपुर में राज्य करने लगा। भरतवंशी पाण्डुनन्दन! बाणासुर ने सब देवताओं को आतंकित कर रखा था। उसने इद्र आदि सब देवताओं को जीतकर कुबेर की भाँति दीर्घकालतक इस भूतपर महान् राज्य का शासन किया। ज्ञानी विद्वान शुक्रचार्य उसकी समृद्धि बढ़ाने के लिये प्रयत्न करते रहते थे। राजन्! बाणासुर के एक पुत्री थी, जिसका नाम उषा था। संसार में उसके रूप की तुलना करने वाली दूसरी कोई स्त्री नहीं थी। वह मेनका अप्सरा की पुत्री सी प्रतीत होती थी। कुन्तीनन्दन! महान् तेजस्वी प्रद्युम्नपुत्र अनिरुद्ध किसी उपाय से उषा तक पहुँचकर छिपे रहकर उसके साथ आनन्द का उपभोग करने लगे। युधिष्ठिर! महातेजस्वी बाणासुर ने गुप्त रूप से छिपे हुए प्रद्युम्नकुमार अनिरुद्ध का अपनी पुत्री के साथ रहना जान लिया और उन्हें अपनी पुत्री सहित बलपूर्वक कारागार में ठूँस देने के लिये बंदी बना लिया। राजन्! वे सुकुमार एवं सुख भोगने के योग्य थे, तो भी उन्हें उस समय दु:ख उठाना पड़ा। बाणासुर के द्वारा भाँति भाँति के कष्ट दिये जाने पर अनिरुद्ध मृर्च्छित हो गये। कुन्तीकुमार! इसी समय मुनिप्रवर नारदजी द्वारका मं आकर श्रीकृष्ण से मिले और इस प्रकार बोले। नारदजी ने कहा- महाबाहु श्रीकृष्ण! आप युदवंशियों की कीर्ति बढ़ाने वाले हैं। इस समय अमिततेजस्वी बाणासुर आपके पौत्र अनिरुद्ध को बहुत कष्ट दे रहा है। वे संकट में पड़े हैं और सदा कारागार में निवास कर रहे हैं। भीष्मजी कहते हैं- राजन्! ऐसा कहकर देवर्षि नारद बाणासुर की राजधानी शाणितपुर को चले गये। नारदजी की बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने बलरामजी तथा महातेजस्वी प्रद्युम्न को बुलाया और उन दोनों के साथ वे गरुड़ पर आरूड़ हुए। तदनन्तर वे तीनों महापराक्रमी पुरुष रत्न गरुड़ पर आरूढ़ हो क्रोध में भरकर बाणासुर के नगर की ओर चले दिये। महाराज! वहाँ जाकर उन्होंने बाणासुर की पुरी को देखा, जो ताँबे की चहारदिवारी से घिरी हुई थी। चाँदी के बने हुए दरवाजे उसकी शोभा बड़ा रहे थे। वह पुरी सुवणमण् प्रासादों से भरी हुई थी और मुक्ता मणियों से उसकी विचित्र शोभा हो रही थी। | ||
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१२:२६, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
अष्टात्रिंश (38) अध्याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)
वहाँ सदा प्रसन्न रहने वाले श्रीकृष्ण रुक्मिणी देवी के साथ बड़े सुख का अनुभव करने लगे। भारत! तत्पश्चात सदा लीला विहार करने वाले यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्ण क्रमश: सत्यभामा तथा जाम्बवती आदि सभी देवियों के निवास स्थानों में गये। तात! महाबाहु युधिष्ठिर! शांर्ग नामक धनुष धारण करनेवाले भगवान श्रीकृष्ण की यह विजय गाथा कही गयी है। इसकी के लिये महात्मा श्रीकृष्ण का मनुष्यों में अवतार हुआ बताया जाता है।
- भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा बाणासुर पर विजय और भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण माहात्म्य का उपसंहार
भीष्मजी कहते हैं- महाराज युधिष्ठिर! तदनन्तर महायशस्वी भगवान श्रीकृष्ण अपनी रानियों के साथ दिन रात सुख का अनुभव करते हुए द्वारकापुरी में आनन्दपूर्वक रहने लगे। भरतश्रेष्ठ! उन्होंने अपने पौत्र अनिरुद्ध को निमित्त बनाकर देवताओं का जो हित साधन किया, वह इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओं के लिये अत्यन्त दुष्कर था। भरत मुलभूषण! बाण नामक एक राजा हुआ था, जो बलि का ज्येष्ठ पुत्र था। वह महान बलवान और पराक्रमी होने के साथ ही सहस्त्र भुजाओं से सुशोभित था। राजन! बाणासर ने सच्चे मन से बड़ी कठोर तपस्या की। उसने बहुत वर्षों तक भगवान शंकर की आराधना की। महात्मा शंकर ने उसे अनेक वरदान दिये। भगवान शंकर से देवदुर्लभ वरदान पाकर बाणासुर अनुपम बलशाली हो गया और शोणितपुर में राज्य करने लगा। भरतवंशी पाण्डुनन्दन! बाणासुर ने सब देवताओं को आतंकित कर रखा था। उसने इद्र आदि सब देवताओं को जीतकर कुबेर की भाँति दीर्घकालतक इस भूतपर महान् राज्य का शासन किया। ज्ञानी विद्वान शुक्रचार्य उसकी समृद्धि बढ़ाने के लिये प्रयत्न करते रहते थे। राजन्! बाणासुर के एक पुत्री थी, जिसका नाम उषा था। संसार में उसके रूप की तुलना करने वाली दूसरी कोई स्त्री नहीं थी। वह मेनका अप्सरा की पुत्री सी प्रतीत होती थी। कुन्तीनन्दन! महान् तेजस्वी प्रद्युम्नपुत्र अनिरुद्ध किसी उपाय से उषा तक पहुँचकर छिपे रहकर उसके साथ आनन्द का उपभोग करने लगे। युधिष्ठिर! महातेजस्वी बाणासुर ने गुप्त रूप से छिपे हुए प्रद्युम्नकुमार अनिरुद्ध का अपनी पुत्री के साथ रहना जान लिया और उन्हें अपनी पुत्री सहित बलपूर्वक कारागार में ठूँस देने के लिये बंदी बना लिया। राजन्! वे सुकुमार एवं सुख भोगने के योग्य थे, तो भी उन्हें उस समय दु:ख उठाना पड़ा। बाणासुर के द्वारा भाँति भाँति के कष्ट दिये जाने पर अनिरुद्ध मृर्च्छित हो गये। कुन्तीकुमार! इसी समय मुनिप्रवर नारदजी द्वारका मं आकर श्रीकृष्ण से मिले और इस प्रकार बोले। नारदजी ने कहा- महाबाहु श्रीकृष्ण! आप युदवंशियों की कीर्ति बढ़ाने वाले हैं। इस समय अमिततेजस्वी बाणासुर आपके पौत्र अनिरुद्ध को बहुत कष्ट दे रहा है। वे संकट में पड़े हैं और सदा कारागार में निवास कर रहे हैं। भीष्मजी कहते हैं- राजन्! ऐसा कहकर देवर्षि नारद बाणासुर की राजधानी शाणितपुर को चले गये। नारदजी की बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने बलरामजी तथा महातेजस्वी प्रद्युम्न को बुलाया और उन दोनों के साथ वे गरुड़ पर आरूड़ हुए। तदनन्तर वे तीनों महापराक्रमी पुरुष रत्न गरुड़ पर आरूढ़ हो क्रोध में भरकर बाणासुर के नगर की ओर चले दिये। महाराज! वहाँ जाकर उन्होंने बाणासुर की पुरी को देखा, जो ताँबे की चहारदिवारी से घिरी हुई थी। चाँदी के बने हुए दरवाजे उसकी शोभा बड़ा रहे थे। वह पुरी सुवणमण् प्रासादों से भरी हुई थी और मुक्ता मणियों से उसकी विचित्र शोभा हो रही थी।
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