"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 1-10" के अवतरणों में अंतर

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श्रीकृष्ण का उखल से बाँधा जाना  
 
श्रीकृष्ण का उखल से बाँधा जाना  
  
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! एक समय की बात है, नन्दरानी यशोदाजी ने घर की दासियों को तो दूसरे कामों में लगा दिया और स्वयं (अपने लाला को मक्खन खिलाने के लिए) दही मथने लगीं ।  मैंने तुमसे अबतक भगवान् की जिन-जिन बाल-लीलाओं का वर्णन किया है, दधिमंथन के समय वे उन सबका स्मरण करतीं और गातीं भी जाती थीं । वे अपने स्थूल कटिभाग में सूत से बाँधकर रेशमी लहँगा पहने हुए थीं। उनके स्तनों में से पुत्र-स्नेह की अधिकता से दूध चूता जा रहा था और वे काँप भी रहे थे। नेती खींचते रहने से बाँहें कुछ थक गयी थीं। हाथों में कंगन और कानों में कर्णफूल हिल रहे थे। मुँह पर पसीने की बूँदें झलक रहीं थीं। चोटी में गुँथे हुए मालती के सुन्दर पुष्प गिरते जा रहे थे। सुन्दर भौंहों वाली यशोदा इस प्रकार दही मैथ रहीं थीं । उसी समय भगवान् श्रीकृष्ण स्तन पीने के लिए दही मथती हुई अपनी माता के पास आये। उन्होंने अपनी माता के ह्रदय में प्रेम और आनन्द को और भी बढ़ाते हुए दही की मथानी पकड़ ली तथा उन्हें मथने से रोक दिया । श्रीकृष्ण माता यशोदा की गोद में चढ़ गये। वात्सल्य-स्नेह की अधिकता से उनके स्तनों से दूध तो स्वयं झर ही रहा था। वे उन्हें पिलाने लगीं और मन्द-मन्द मुस्कान से युक्त उनका मुख देखने लगीं। इतने में ही दूसरी ओर अँगीठी पर रखे हुए दूध में उफान आया। उसे देखकर यशोदाजी उन्हें अतृप्त ही छोड़कर जल्दी से दूध उतारने के लिए चली गयीं ।  इससे श्रीकृष्ण क कुछ क्रोध आ गया। उनके लाल-लाल होठ फड़कने लगे। उन्हें दाँतों से दबाकर श्रीकृष्ण ने पास ही बड़े हुए लोढ़े से दही का मटका फोड़फाड़ डाला, बनावटी आँसू आँखों में भर लिये और दूसरे घर में जाकर अकेले में बासी माखन खाने लगे । यशोदाजी औंटे हुए दूध को उतारकर फिर मथने के घर में चली आयीं। वहाँ देखती हैं तो दही का मटका (कमोरा) टुकड़े-टुकड़े हो गया है। वे समझ गयीं कि सब सब मेरे लाला की ही करतूत है। साथ ही उन्हें वहाँ न देखकर यशोदा माता हँसने लगीं । इधर-उधर ढूंढने पर पता चला कि श्रीकृष्ण एक उलटे हुए ऊखल पर खड़े हैं और छिके पर का माखन ले-लेकर बंदरों को खूब लुटा रहे हैं। उन्हें यह भी डर है कि कहीं मेरी चोरी खुल न जाय, इसलिए चौकन्ने होकर चारों ओर ताकते जाते हैं। यह देखकर यशोदारानी पीछे से धीरे-धीरे उनके पास जा पहुँची । जब श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरी माँ हाथ में छड़ी लिये मेरी ही ओर आ रहीं हैं, तब झटसे ओखली पर से कूद पड़े और डरे हुए की भांति भागे। परीक्षित्! बड़े-बड़े योगी तपस्या के द्वारा अपने मन को अत्यन्त सूक्ष्म और शुद्ध बनाकर भी जिनमें प्रवेश नहीं करा पाते, पाने की बात तो दूर रही, उन्हीं भगवान् के पीछे-पीछे उन्हें पकड़ने के लिये यशोदाजी दौड़ीं । जब इस प्रकार माता यशोदा श्रीकृष्ण के पीछे दौड़ने लगीं, तब कुछ ही देर में बड़े-बड़े एवं हिलते हुए नितम्बों के कारण उनकी चाल धीमी पड़ गयी। वेग से दौड़ने के कारण चोटी की गाँठ ढीली पड़ गयी। वे ज्यों-ज्यों आगे बढती, पीछे-पीछे चोटी में गुँथे हुए फूल गिरते जाते। इस प्रकार सुन्दरी यशोदा ज्यों-त्यों करके उन्हें पकड़ सकीं ।
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श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! एक समय की बात है, नन्दरानी यशोदाजी ने घर की दासियों को तो दूसरे कामों में लगा दिया और स्वयं (अपने लाला को मक्खन खिलाने के लिए) दही मथने लगीं<ref>इस प्रसंग में ‘एक समय’ का तात्पर्य है कार्तिक मास। पुराणों में इसे ‘दामोदर मास’ कहते हैं। इन्द्रयाग के अवसर पर दासियों के दूसरे कामों में लग जाना स्वाभाविक है। ‘नियुक्तासु’—इस पद से ध्वनित होता है कि यशोदा माता ने जान-बूझकर दासियों को दूसरे काम में लगा दिया। ‘यशोदा’—नाम उल्लेख करने का अभिप्राय यह है कि अपने विशुद्ध वात्सल्य प्रेम के व्यवहार से षडैश्वर्यशाली भगवान  को भी प्रेमाधीनता, भक्तवश्यता के कारण के कारण अपने भक्तों के हाथों बँध जाने का ‘यश’ यही देती हैं। गोपराज नन्द के वात्सल्य प्रेम के आकर्षण से सच्चिदानन्द-परमानन्दस्वरूप श्रीभगवान  नन्दनन्दन रूप से जगत् में अवतीर्ण होकर जगत् के लोगों को को आनन्द प्रदान करते हैं। जगत् को इस अप्राकृत परमानन्दस्वरुप का रसास्वादन कराने में नन्द बाबा ही कारण हैं। उन नन्द की गृहिणी होने से उन्हें ‘नन्दगोहिनी’ कहा गया है। साथ ही ‘नन्दगोहिनी’ और ‘स्वयं’—ये दो पद इस बात के सूचक हैं कि दधि मन्थन कर्म उनके योग्य नहीं है। फिर भी पुत्र-स्नेह की अधिकता से यह सोचकर कि मेरे लाला को मेरे हाथ का माखन ही भाता है, वे स्वयं ही दधि मथ रही हैं।</ref>।  मैंने तुमसे अबतक भगवान  की जिन-जिन बाल-लीलाओं का वर्णन किया है, दधिमंथन के समय वे उन सबका स्मरण करतीं और गातीं भी जाती थीं<ref> इस श्लोक में भक्त के स्वरुप का निरूपण है। शरीर से दधि मन्थन रूप सेवा कर्म हो रहा है, ह्रदय में स्मरण की धारा सतत प्रवाहित हो रही है, वाणी में बाल-चरित्र का संगीत। भक्त के तन, मन, वचन—सब अपने प्यारे की सेवा में संलग्न हैं। स्नेह अमूर्त पदार्थ है; वह सेवा के रूप में ही व्यक्त होता है। स्नेह के ही विलास विशेष हैं—नृत्य और संगीत। यशोदा मैया के जीवन में इस समय राग और भोग दोनों ही प्रकट हैं।</ref>। वे अपने स्थूल कटिभाग में सूत से बाँधकर रेशमी लहँगा पहने हुए थीं। उनके स्तनों में से पुत्र-स्नेह की अधिकता से दूध चूता जा रहा था और वे काँप भी रहे थे। नेती खींचते रहने से बाँहें कुछ थक गयी थीं। हाथों में कंगन और कानों में कर्णफूल हिल रहे थे। मुँह पर पसीने की बूँदें झलक रहीं थीं। चोटी में गुँथे हुए मालती के सुन्दर पुष्प गिरते जा रहे थे। सुन्दर भौंहों वाली यशोदा इस प्रकार दही मथ रहीं थीं<ref>कमर में रेशमी लहँगा डोरी से कसकर बँधा हुआ है अर्थात् जीवन में आलस्य, प्रमाद, असावधानी नहीं है। सेवा कर्म में पूरी तत्परता है। रेशमी लहँगा इसीलिये पहने हैं कि किसी प्रकार की अपवित्रता रह गयी तो मेरे कन्हैया को कुछ हो जायगा।<br />
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माता के ह्रदय का रसस्नेह—दूध स्तन के मुँह आ लगा है, चुचुआ रहा है, बाहर झाँक रहा है। श्यामसुन्दर आवें, उनकी दृष्टि पहले मुझ पर पड़े और वे अफ्ले माखन न खाकर मुझे ही पीवें—यही उसकी लालसा है।<br />
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स्तन के काँपने का अर्थ यह है कि उसे डर भी है कि कहीं मुझे नहीं पिया तो!<br />
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कंकण और कुण्डल नाच-नाचकर मैया को बधाई दे रहे हैं। यशोदा मैया के हाथों के कंकण इसलिये झंकार ध्वनि कर रहे हैं कि वे आज उन हाथों में रहकर धन्य हो रहे हैं कि जो हाथ भगवान  की सेवा में लगे हैं। और कुण्डल यशोदा मैया के मुख से लीला-गान सुनकर परमानन्द से हिलते हुए कानों की सफलता की सूचना दे रहे हैं। हाथ वही धन्य हैं, जो भगवान  की सेवा करें और कान वे धन्य हैं, जिनमें भगवान  के लीला-गुण-गान की सुधा धारा प्रवेश करती रहे। मुँह पर स्वेद और मालती के पुष्पों के नीचे गिरने का ध्यान माता को नहीं है। वह श्रृंगार और शरीर भूल चुकी हैं। अथवा मालती के पुष्प स्वयं ही चोटियों से छूटकर चरणों में गिर रहे हैं कि ऐसी वात्सल्यमयी मा के चरणों में ही रहना सौभाग्य है, हम सिर पर रहने के अधिकारी नहीं।
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</ref>। उसी समय भगवान  श्रीकृष्ण स्तन पीने के लिए दही मथती हुई अपनी माता के पास आये। उन्होंने अपनी माता के ह्रदय में प्रेम और आनन्द को और भी बढ़ाते हुए दही की मथानी पकड़ ली तथा उन्हें मथने से रोक दिया<ref> ह्रदय में लीला की सुख स्मृति, हाथों से दधि मन्थन और मुख से लीलागान—इस प्रकार मन, तन, वचन तीनों का श्रीकृष्ण के साथ एकतान संयोग होते ही श्रीकृष्ण जगकर ‘मा-मा’ पुकारने लगे। अब तक भगवान  श्रीकृष्ण सोये हुए-से थे। मा की स्नेह-साधना ने उन्हें जगा दिया। वे निर्गुण से सगुण हुए, अचल से चल हुए, निष्काम से सकाम हुए; स्नेह के भूखे-प्यासे मा के पास आये। क्या ही सुन्दर नाम है—‘स्तन्यकाम’! मन्थन करते समय आये, बैठी-ठाली के पास नहीं।<br />
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सर्वत्र भगवान  साधन की प्रेरणा देते हैं, अपनी ओर आकृष्ट करते हैं; परन्तु मथानी पकड़ कर मैया को रोक लिया। ‘मा! अब तेरी साधना पूर्ण हो गयी। पिष्ट-पेषण करने से क्या लाभ ? अब मैं तेरी साधना का इससे अधिक भार नहीं सह सकता।’ मा प्रेम से दब गयी—निहाल हो गयी—मेरी लाला मुझे इतना चाहता है।</ref>। श्रीकृष्ण माता यशोदा की गोद में चढ़ गये। वात्सल्य-स्नेह की अधिकता से उनके स्तनों से दूध तो स्वयं झर ही रहा था। वे उन्हें पिलाने लगीं और मन्द-मन्द मुस्कान से युक्त उनका मुख देखने लगीं। इतने में ही दूसरी ओर अँगीठी पर रखे हुए दूध में उफान आया। उसे देखकर यशोदाजी उन्हें अतृप्त ही छोड़कर जल्दी से दूध उतारने के लिए चली गयीं<ref>मैया मना करती रही—‘नेक-सा माखन तो निकाल लेने दे।’ ‘ऊँ-ऊँ-ऊँ, मैं तो दूध पीऊँगा’—दोनों हाथों से मैया की कमर पकड़कर एक पाँव घुटने पर रखा और गोद में चढ़ गये। स्तन का दूध बरस पड़ा। मैया दूध पिलाने लगी, लाला मुसकराने लगे, आँखें मुसकान पर जम गयीं। ‘ईक्षती’ पद का यह अभिप्राय है कि जब लाला मुँह उठाकर देखेगा और मेरी आँखें उस पर लगी मिलेंगी, तब उसे बड़ा सुख होगा।<br />
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सामने पद्मगन्धा गाय का दूध गरम हो रहा था। उसने सोचा—‘स्नेहमयी मा यशोदा का दूध कभी कम न होगा, श्यामसुन्दर की प्यास कभी प्यास कभी बुझेगी नहीं! उनमें परस्पर होड़ लगी है। मैं बेचारा युग-युग का, जन्म-जन्म का श्यामसुन्दर के होंठों का स्पर्श करने के लिये व्याकुल तप=तपकर मर रहा हूँ। अब इस जीवन से क्या लाभ जो श्रीकृष्ण के काम न आवे। इससे अच्छा है उनकी आँखों के सामने आगे में कूद पड़ना।’ मा के नेत्र पहुँच गये। दयार्द्र मा को श्रीकृष्ण का भी ध्यान न रहा; उन्हें एक ओर डालकर दौड़ पड़ी। भक्त भगवान  को एक ओर रखकर भी दुःखियों की रक्षा करते हैं। भगवान  अतृप्त ही रह गये। क्या भक्तों के हृदय-रस से, स्नेह से उन्हें कभी तृप्ति हो सकती है ? उसी दिन से उनका एक नाम हुआ—‘अतृप्त’।
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</ref>।  इससे श्रीकृष्ण क कुछ क्रोध आ गया। उनके लाल-लाल होठ फड़कने लगे। उन्हें दाँतों से दबाकर श्रीकृष्ण ने पास ही बड़े हुए लोढ़े से दही का मटका फोड़फाड़ डाला, बनावटी आँसू आँखों में भर लिये और दूसरे घर में जाकर अकेले में बासी माखन खाने लगे<ref>श्रीकृष्ण के होठ फड़के। क्रोध होठों का स्पर्श पाकर कृतार्थ हो गया। लाल-लाल होठ श्वेत-श्वेत दूध की दन्तुलियों से दबा दिये गये, मानो सत्वगुण रजोगुण पर शासन कर रहा हो, ब्राम्हण क्षत्रिय को शिक्षा दे रहा हो। वह क्रोध उतरा दधि मन्थन के मटके पर। उसमें एक असुर आ बैठा था। दम्भ ने कहा—काम, क्रोध और अतृप्ति के बाद मेरी बारी है। वह आँसू बनकर आँखों में छलक आया। श्रीकृष्ण अपने भक्तजनों के प्रति अपनी ममता की धारा उड़ेलने के लिये क्या-क्या भाव नहीं अपनाते ? ये काम, क्रोध, लोभ और दम्भ भी आज ब्रम्ह-संस्पर्श प्राप्त करके धन्य हो गये! श्रीकृष्ण घर में घुसकर बासी मक्खन गटकने लगे, मानो मा को दिखा रहे हों कि मैं कितना भूखा हूँ।<br />
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प्रेमी भक्तों के ‘पुरुषार्थ’ भगवान  नहीं हैं, भगवान  की सेवा है। ये भगवान  की सेवा के लिये भगवान  का भी त्याग कर सकते हैं। मैया के अपने हाथों दुहा हुआ यह पद्मगन्धा गायों का दूध श्रीकृष्ण के लिये ही गरम हो रहा था। थोड़ी देर के बाद ही उनको पिलाना था। दूध उफन जायगा तो मेरे लाला भूखे रहेंगे—रोयेंगे, इसीलिये माता ने उन्हें नीचे उतारकर दूध को सँभाला।
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</ref>। यशोदाजी औंटे हुए दूध को उतारकर<ref> यशोदा माता दूध के पास पहुँचीं। प्रेम का अद्भुत दृश्य! पुत्र को गोद से उतार कर उसके पेय के प्रति इतनी प्रीति क्यों ? अपनी छाती का दूध तो अपना है, वह कहीं जाता नहीं। परन्तु यह सहस्त्रों छटी हुई गायों के दूध से पालित पद्मगन्धा गाय का दूध फिर कहाँ मिलेगा ? वृन्दावन का दूध अप्राकृत, चिन्मय, प्रेम जगत् का दूध—मा को आते देखकर शर्म से दब गया। ‘अहो! आग में कूदने का संकल्प करके मैंने मा के स्नेहानन्द में कितना बड़ा विघ्न कर डाला ? और मा अपना आनन्द छोड़कर मेरी रक्षा के लिये दौड़ी आ रही है। मुझे धिक्कार है।’ दूध का उफनना बंद हो गया और वह तत्काल अपने स्थान पर बैठ गया।</ref> फिर मथने के घर में चली आयीं। वहाँ देखती हैं तो दही का मटका (कमोरा) टुकड़े-टुकड़े हो गया है। वे समझ गयीं कि सब सब मेरे लाला की ही करतूत है। साथ ही उन्हें वहाँ न देखकर यशोदा माता हँसने लगीं । इधर-उधर ढूंढने पर पता चला कि श्रीकृष्ण एक उलटे हुए ऊखल पर खड़े हैं और छिके पर का माखन ले-लेकर बंदरों को खूब लुटा रहे हैं। उन्हें यह भी डर है कि कहीं मेरी चोरी खुल न जाय, इसलिए चौकन्ने होकर चारों ओर ताकते जाते हैं। यह देखकर यशोदारानी पीछे से धीरे-धीरे उनके पास जा पहुँची<ref>‘मा! तुम अपनी गोद में नहीं बैठाओगी तो मैं किसी खल की गोद में जा बैठूँगा’—यही सोचकर मानो श्रीकृष्ण उलटे ऊखल के ऊपर जा बैठे। उदार पुरुष भले ही खलों की संगति में जा बैठें, परन्तु उनका शील-स्वभाव बदलता नहीं है। ऊखल पर बैठकर भी वे बन्दरों को माखन बाँटने लगे। सम्भव है रामावतार के प्रति जो कृतज्ञता का भाव उदय हुआ था, उसके कारण अथवा अभी-अभी क्रोध आ गया था, उसका प्रायश्चित करने के लिये!<br />
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श्रीकृष्ण के नेत्र हैं ‘चौर्यविशंकित’ ध्यान करने योग्य। वैसे तो उनके ललित, कलित, छलित, बलित, चकित आदि अनेकों प्रकार के ध्येय नेत्र हैं, परन्तु ये प्रेमीजनों के ह्रदय में गहरी चोट करते हैं।</ref>। जब श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरी माँ हाथ में छड़ी लिये मेरी ही ओर आ रहीं हैं, तब झटसे ओखली पर से कूद पड़े और डरे हुए की भांति भागे। परीक्षित्! बड़े-बड़े योगी तपस्या के द्वारा अपने मन को अत्यन्त सूक्ष्म और शुद्ध बनाकर भी जिनमें प्रवेश नहीं करा पाते, पाने की बात तो दूर रही, उन्हीं भगवान  के पीछे-पीछे उन्हें पकड़ने के लिये यशोदाजी दौड़ीं<ref>भीत होकर भागते हुए भगवान  हैं। अपूर्व झाँकी है! ऐश्वर्य को तो मानो मैया के वात्सल्य प्रेम पर न्योछावर करके व्रज के बाहर ही फेंक दिया है! कोई असुर अस्त्र-शस्त्र लेकर आता तो सुदर्शन चक्र का स्मरण करते। मैया की छड़ी का निवारण करने के लिये कोई भी अस्त्र-शस्त्र नहीं! भगवान  की यह भयभीत मूर्ति कितनी मधुर है! धन्य है इस भय को।</ref>। जब इस प्रकार माता यशोदा श्रीकृष्ण के पीछे दौड़ने लगीं, तब कुछ ही देर में बड़े-बड़े एवं हिलते हुए नितम्बों के कारण उनकी चाल धीमी पड़ गयी। वेग से दौड़ने के कारण चोटी की गाँठ ढीली पड़ गयी। वे ज्यों-ज्यों आगे बढती, पीछे-पीछे चोटी में गुँथे हुए फूल गिरते जाते। इस प्रकार सुन्दरी यशोदा ज्यों-त्यों करके उन्हें पकड़ सकीं<ref> माता यशोदा के शरीर और श्रृंगार दोनों ही विरोधी हो गये—तुम प्यारे कन्हैया को क्यों खदेड़ रही हो। परन्तु मैया ने पकड़कर ही छोड़ा।</ref>
  
 
{{लेख क्रम |पिछला=श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 42-52|अगला=श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 11-23}}
 
{{लेख क्रम |पिछला=श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 42-52|अगला=श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 11-23}}

१२:३२, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

दशम स्कन्ध: नवमोऽध्यायः (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: नवमोऽध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्ण का उखल से बाँधा जाना

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! एक समय की बात है, नन्दरानी यशोदाजी ने घर की दासियों को तो दूसरे कामों में लगा दिया और स्वयं (अपने लाला को मक्खन खिलाने के लिए) दही मथने लगीं[१]। मैंने तुमसे अबतक भगवान की जिन-जिन बाल-लीलाओं का वर्णन किया है, दधिमंथन के समय वे उन सबका स्मरण करतीं और गातीं भी जाती थीं[२]। वे अपने स्थूल कटिभाग में सूत से बाँधकर रेशमी लहँगा पहने हुए थीं। उनके स्तनों में से पुत्र-स्नेह की अधिकता से दूध चूता जा रहा था और वे काँप भी रहे थे। नेती खींचते रहने से बाँहें कुछ थक गयी थीं। हाथों में कंगन और कानों में कर्णफूल हिल रहे थे। मुँह पर पसीने की बूँदें झलक रहीं थीं। चोटी में गुँथे हुए मालती के सुन्दर पुष्प गिरते जा रहे थे। सुन्दर भौंहों वाली यशोदा इस प्रकार दही मथ रहीं थीं[३]। उसी समय भगवान श्रीकृष्ण स्तन पीने के लिए दही मथती हुई अपनी माता के पास आये। उन्होंने अपनी माता के ह्रदय में प्रेम और आनन्द को और भी बढ़ाते हुए दही की मथानी पकड़ ली तथा उन्हें मथने से रोक दिया[४]। श्रीकृष्ण माता यशोदा की गोद में चढ़ गये। वात्सल्य-स्नेह की अधिकता से उनके स्तनों से दूध तो स्वयं झर ही रहा था। वे उन्हें पिलाने लगीं और मन्द-मन्द मुस्कान से युक्त उनका मुख देखने लगीं। इतने में ही दूसरी ओर अँगीठी पर रखे हुए दूध में उफान आया। उसे देखकर यशोदाजी उन्हें अतृप्त ही छोड़कर जल्दी से दूध उतारने के लिए चली गयीं[५]। इससे श्रीकृष्ण क कुछ क्रोध आ गया। उनके लाल-लाल होठ फड़कने लगे। उन्हें दाँतों से दबाकर श्रीकृष्ण ने पास ही बड़े हुए लोढ़े से दही का मटका फोड़फाड़ डाला, बनावटी आँसू आँखों में भर लिये और दूसरे घर में जाकर अकेले में बासी माखन खाने लगे[६]। यशोदाजी औंटे हुए दूध को उतारकर[७] फिर मथने के घर में चली आयीं। वहाँ देखती हैं तो दही का मटका (कमोरा) टुकड़े-टुकड़े हो गया है। वे समझ गयीं कि सब सब मेरे लाला की ही करतूत है। साथ ही उन्हें वहाँ न देखकर यशोदा माता हँसने लगीं । इधर-उधर ढूंढने पर पता चला कि श्रीकृष्ण एक उलटे हुए ऊखल पर खड़े हैं और छिके पर का माखन ले-लेकर बंदरों को खूब लुटा रहे हैं। उन्हें यह भी डर है कि कहीं मेरी चोरी खुल न जाय, इसलिए चौकन्ने होकर चारों ओर ताकते जाते हैं। यह देखकर यशोदारानी पीछे से धीरे-धीरे उनके पास जा पहुँची[८]। जब श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरी माँ हाथ में छड़ी लिये मेरी ही ओर आ रहीं हैं, तब झटसे ओखली पर से कूद पड़े और डरे हुए की भांति भागे। परीक्षित्! बड़े-बड़े योगी तपस्या के द्वारा अपने मन को अत्यन्त सूक्ष्म और शुद्ध बनाकर भी जिनमें प्रवेश नहीं करा पाते, पाने की बात तो दूर रही, उन्हीं भगवान के पीछे-पीछे उन्हें पकड़ने के लिये यशोदाजी दौड़ीं[९]। जब इस प्रकार माता यशोदा श्रीकृष्ण के पीछे दौड़ने लगीं, तब कुछ ही देर में बड़े-बड़े एवं हिलते हुए नितम्बों के कारण उनकी चाल धीमी पड़ गयी। वेग से दौड़ने के कारण चोटी की गाँठ ढीली पड़ गयी। वे ज्यों-ज्यों आगे बढती, पीछे-पीछे चोटी में गुँथे हुए फूल गिरते जाते। इस प्रकार सुन्दरी यशोदा ज्यों-त्यों करके उन्हें पकड़ सकीं[१०]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इस प्रसंग में ‘एक समय’ का तात्पर्य है कार्तिक मास। पुराणों में इसे ‘दामोदर मास’ कहते हैं। इन्द्रयाग के अवसर पर दासियों के दूसरे कामों में लग जाना स्वाभाविक है। ‘नियुक्तासु’—इस पद से ध्वनित होता है कि यशोदा माता ने जान-बूझकर दासियों को दूसरे काम में लगा दिया। ‘यशोदा’—नाम उल्लेख करने का अभिप्राय यह है कि अपने विशुद्ध वात्सल्य प्रेम के व्यवहार से षडैश्वर्यशाली भगवान को भी प्रेमाधीनता, भक्तवश्यता के कारण के कारण अपने भक्तों के हाथों बँध जाने का ‘यश’ यही देती हैं। गोपराज नन्द के वात्सल्य प्रेम के आकर्षण से सच्चिदानन्द-परमानन्दस्वरूप श्रीभगवान नन्दनन्दन रूप से जगत् में अवतीर्ण होकर जगत् के लोगों को को आनन्द प्रदान करते हैं। जगत् को इस अप्राकृत परमानन्दस्वरुप का रसास्वादन कराने में नन्द बाबा ही कारण हैं। उन नन्द की गृहिणी होने से उन्हें ‘नन्दगोहिनी’ कहा गया है। साथ ही ‘नन्दगोहिनी’ और ‘स्वयं’—ये दो पद इस बात के सूचक हैं कि दधि मन्थन कर्म उनके योग्य नहीं है। फिर भी पुत्र-स्नेह की अधिकता से यह सोचकर कि मेरे लाला को मेरे हाथ का माखन ही भाता है, वे स्वयं ही दधि मथ रही हैं।
  2. इस श्लोक में भक्त के स्वरुप का निरूपण है। शरीर से दधि मन्थन रूप सेवा कर्म हो रहा है, ह्रदय में स्मरण की धारा सतत प्रवाहित हो रही है, वाणी में बाल-चरित्र का संगीत। भक्त के तन, मन, वचन—सब अपने प्यारे की सेवा में संलग्न हैं। स्नेह अमूर्त पदार्थ है; वह सेवा के रूप में ही व्यक्त होता है। स्नेह के ही विलास विशेष हैं—नृत्य और संगीत। यशोदा मैया के जीवन में इस समय राग और भोग दोनों ही प्रकट हैं।
  3. कमर में रेशमी लहँगा डोरी से कसकर बँधा हुआ है अर्थात् जीवन में आलस्य, प्रमाद, असावधानी नहीं है। सेवा कर्म में पूरी तत्परता है। रेशमी लहँगा इसीलिये पहने हैं कि किसी प्रकार की अपवित्रता रह गयी तो मेरे कन्हैया को कुछ हो जायगा।
    माता के ह्रदय का रसस्नेह—दूध स्तन के मुँह आ लगा है, चुचुआ रहा है, बाहर झाँक रहा है। श्यामसुन्दर आवें, उनकी दृष्टि पहले मुझ पर पड़े और वे अफ्ले माखन न खाकर मुझे ही पीवें—यही उसकी लालसा है।
    स्तन के काँपने का अर्थ यह है कि उसे डर भी है कि कहीं मुझे नहीं पिया तो!
    कंकण और कुण्डल नाच-नाचकर मैया को बधाई दे रहे हैं। यशोदा मैया के हाथों के कंकण इसलिये झंकार ध्वनि कर रहे हैं कि वे आज उन हाथों में रहकर धन्य हो रहे हैं कि जो हाथ भगवान की सेवा में लगे हैं। और कुण्डल यशोदा मैया के मुख से लीला-गान सुनकर परमानन्द से हिलते हुए कानों की सफलता की सूचना दे रहे हैं। हाथ वही धन्य हैं, जो भगवान की सेवा करें और कान वे धन्य हैं, जिनमें भगवान के लीला-गुण-गान की सुधा धारा प्रवेश करती रहे। मुँह पर स्वेद और मालती के पुष्पों के नीचे गिरने का ध्यान माता को नहीं है। वह श्रृंगार और शरीर भूल चुकी हैं। अथवा मालती के पुष्प स्वयं ही चोटियों से छूटकर चरणों में गिर रहे हैं कि ऐसी वात्सल्यमयी मा के चरणों में ही रहना सौभाग्य है, हम सिर पर रहने के अधिकारी नहीं।
  4. ह्रदय में लीला की सुख स्मृति, हाथों से दधि मन्थन और मुख से लीलागान—इस प्रकार मन, तन, वचन तीनों का श्रीकृष्ण के साथ एकतान संयोग होते ही श्रीकृष्ण जगकर ‘मा-मा’ पुकारने लगे। अब तक भगवान श्रीकृष्ण सोये हुए-से थे। मा की स्नेह-साधना ने उन्हें जगा दिया। वे निर्गुण से सगुण हुए, अचल से चल हुए, निष्काम से सकाम हुए; स्नेह के भूखे-प्यासे मा के पास आये। क्या ही सुन्दर नाम है—‘स्तन्यकाम’! मन्थन करते समय आये, बैठी-ठाली के पास नहीं।
    सर्वत्र भगवान साधन की प्रेरणा देते हैं, अपनी ओर आकृष्ट करते हैं; परन्तु मथानी पकड़ कर मैया को रोक लिया। ‘मा! अब तेरी साधना पूर्ण हो गयी। पिष्ट-पेषण करने से क्या लाभ ? अब मैं तेरी साधना का इससे अधिक भार नहीं सह सकता।’ मा प्रेम से दब गयी—निहाल हो गयी—मेरी लाला मुझे इतना चाहता है।
  5. मैया मना करती रही—‘नेक-सा माखन तो निकाल लेने दे।’ ‘ऊँ-ऊँ-ऊँ, मैं तो दूध पीऊँगा’—दोनों हाथों से मैया की कमर पकड़कर एक पाँव घुटने पर रखा और गोद में चढ़ गये। स्तन का दूध बरस पड़ा। मैया दूध पिलाने लगी, लाला मुसकराने लगे, आँखें मुसकान पर जम गयीं। ‘ईक्षती’ पद का यह अभिप्राय है कि जब लाला मुँह उठाकर देखेगा और मेरी आँखें उस पर लगी मिलेंगी, तब उसे बड़ा सुख होगा।
    सामने पद्मगन्धा गाय का दूध गरम हो रहा था। उसने सोचा—‘स्नेहमयी मा यशोदा का दूध कभी कम न होगा, श्यामसुन्दर की प्यास कभी प्यास कभी बुझेगी नहीं! उनमें परस्पर होड़ लगी है। मैं बेचारा युग-युग का, जन्म-जन्म का श्यामसुन्दर के होंठों का स्पर्श करने के लिये व्याकुल तप=तपकर मर रहा हूँ। अब इस जीवन से क्या लाभ जो श्रीकृष्ण के काम न आवे। इससे अच्छा है उनकी आँखों के सामने आगे में कूद पड़ना।’ मा के नेत्र पहुँच गये। दयार्द्र मा को श्रीकृष्ण का भी ध्यान न रहा; उन्हें एक ओर डालकर दौड़ पड़ी। भक्त भगवान को एक ओर रखकर भी दुःखियों की रक्षा करते हैं। भगवान अतृप्त ही रह गये। क्या भक्तों के हृदय-रस से, स्नेह से उन्हें कभी तृप्ति हो सकती है ? उसी दिन से उनका एक नाम हुआ—‘अतृप्त’।
  6. श्रीकृष्ण के होठ फड़के। क्रोध होठों का स्पर्श पाकर कृतार्थ हो गया। लाल-लाल होठ श्वेत-श्वेत दूध की दन्तुलियों से दबा दिये गये, मानो सत्वगुण रजोगुण पर शासन कर रहा हो, ब्राम्हण क्षत्रिय को शिक्षा दे रहा हो। वह क्रोध उतरा दधि मन्थन के मटके पर। उसमें एक असुर आ बैठा था। दम्भ ने कहा—काम, क्रोध और अतृप्ति के बाद मेरी बारी है। वह आँसू बनकर आँखों में छलक आया। श्रीकृष्ण अपने भक्तजनों के प्रति अपनी ममता की धारा उड़ेलने के लिये क्या-क्या भाव नहीं अपनाते ? ये काम, क्रोध, लोभ और दम्भ भी आज ब्रम्ह-संस्पर्श प्राप्त करके धन्य हो गये! श्रीकृष्ण घर में घुसकर बासी मक्खन गटकने लगे, मानो मा को दिखा रहे हों कि मैं कितना भूखा हूँ।
    प्रेमी भक्तों के ‘पुरुषार्थ’ भगवान नहीं हैं, भगवान की सेवा है। ये भगवान की सेवा के लिये भगवान का भी त्याग कर सकते हैं। मैया के अपने हाथों दुहा हुआ यह पद्मगन्धा गायों का दूध श्रीकृष्ण के लिये ही गरम हो रहा था। थोड़ी देर के बाद ही उनको पिलाना था। दूध उफन जायगा तो मेरे लाला भूखे रहेंगे—रोयेंगे, इसीलिये माता ने उन्हें नीचे उतारकर दूध को सँभाला।
  7. यशोदा माता दूध के पास पहुँचीं। प्रेम का अद्भुत दृश्य! पुत्र को गोद से उतार कर उसके पेय के प्रति इतनी प्रीति क्यों ? अपनी छाती का दूध तो अपना है, वह कहीं जाता नहीं। परन्तु यह सहस्त्रों छटी हुई गायों के दूध से पालित पद्मगन्धा गाय का दूध फिर कहाँ मिलेगा ? वृन्दावन का दूध अप्राकृत, चिन्मय, प्रेम जगत् का दूध—मा को आते देखकर शर्म से दब गया। ‘अहो! आग में कूदने का संकल्प करके मैंने मा के स्नेहानन्द में कितना बड़ा विघ्न कर डाला ? और मा अपना आनन्द छोड़कर मेरी रक्षा के लिये दौड़ी आ रही है। मुझे धिक्कार है।’ दूध का उफनना बंद हो गया और वह तत्काल अपने स्थान पर बैठ गया।
  8. ‘मा! तुम अपनी गोद में नहीं बैठाओगी तो मैं किसी खल की गोद में जा बैठूँगा’—यही सोचकर मानो श्रीकृष्ण उलटे ऊखल के ऊपर जा बैठे। उदार पुरुष भले ही खलों की संगति में जा बैठें, परन्तु उनका शील-स्वभाव बदलता नहीं है। ऊखल पर बैठकर भी वे बन्दरों को माखन बाँटने लगे। सम्भव है रामावतार के प्रति जो कृतज्ञता का भाव उदय हुआ था, उसके कारण अथवा अभी-अभी क्रोध आ गया था, उसका प्रायश्चित करने के लिये!
    श्रीकृष्ण के नेत्र हैं ‘चौर्यविशंकित’ ध्यान करने योग्य। वैसे तो उनके ललित, कलित, छलित, बलित, चकित आदि अनेकों प्रकार के ध्येय नेत्र हैं, परन्तु ये प्रेमीजनों के ह्रदय में गहरी चोट करते हैं।
  9. भीत होकर भागते हुए भगवान हैं। अपूर्व झाँकी है! ऐश्वर्य को तो मानो मैया के वात्सल्य प्रेम पर न्योछावर करके व्रज के बाहर ही फेंक दिया है! कोई असुर अस्त्र-शस्त्र लेकर आता तो सुदर्शन चक्र का स्मरण करते। मैया की छड़ी का निवारण करने के लिये कोई भी अस्त्र-शस्त्र नहीं! भगवान की यह भयभीत मूर्ति कितनी मधुर है! धन्य है इस भय को।
  10. माता यशोदा के शरीर और श्रृंगार दोनों ही विरोधी हो गये—तुम प्यारे कन्हैया को क्यों खदेड़ रही हो। परन्तु मैया ने पकड़कर ही छोड़ा।

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