"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 15 श्लोक 38-52": अवतरणों में अंतर

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== दशम स्कन्ध: पञ्चदशोऽध्यायः(15) (पूर्वार्ध)==


<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध:  पञ्चदशोऽध्यायः श्लोक 38-52 का हिन्दी अनुवाद </div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध:  पञ्चदशोऽध्यायः श्लोक 38-52 का हिन्दी अनुवाद </div>
उस समय वह भूमि ताड़ के फलों से पट गयी और टूटे हुए वृक्ष तथा दैत्यों के प्राणहीन शरीरों से भर गयी। जैसे बादलों से आकाश ढक गया हो, उस भूमि की वैसी ही शोभा होने लगी । बलरामजी और श्रीकृष्ण की यह मंगलमयी लीला देखकर देवतागण उन पर फूल बरसाने लगे और बाजे बजा-बजाकर स्तुति करने लगे । जिस दिन धेनुकासुर मरा, उसी दिन से लोग निडर होकर उस वन के तालफल खाने लगे तथा पशु भी स्वच्छन्दता के साथ घास चरने लगे ।  
उस समय वह भूमि ताड़ के फलों से पट गयी और टूटे हुए वृक्ष तथा दैत्यों के प्राणहीन शरीरों से भर गयी। जैसे बादलों से आकाश ढक गया हो, उस भूमि की वैसी ही शोभा होने लगी । बलरामजी और श्रीकृष्ण की यह मंगलमयी लीला देखकर देवतागण उन पर फूल बरसाने लगे और बाजे बजा-बजाकर स्तुति करने लगे । जिस दिन धेनुकासुर मरा, उसी दिन से लोग निडर होकर उस वन के तालफल खाने लगे तथा पशु भी स्वच्छन्दता के साथ घास चरने लगे ।  


इसके बाद कमलदल लोचन भगवान् श्रीकृष्ण बड़े भाई बलरामजी के साथ व्रज में आये। उस समय उनके साथी ग्वालबाल उनके पीछे-पीछे चलते हुए उनकी स्तुति करते जाते थे। क्यों न हो; भगवान् की लीलाओं का श्रवण-कीर्तन ही सबसे बढ़कर पवित्र जो है । उस समय श्रीकृष्ण की घुँघराली अलकों पर गौओं के खुरों से उड़-उड़कर धूलि पड़ी हुई थी, सिरपर मोरपंख का मुकुट था और बालों में सुन्दर-सुन्दर जंगली पुष्प गुँथे हुए थे। उनके नेत्रों में मधुर चितवन और मुखपर मनोहर मुसकान थी। वे मधुर-मधुर मुरली बजा रहे थे और साथी ग्वालबाल उनकी ललित कीर्ति का गान कर रहे थे। वंशी की ध्वनि सुनकर बहुत-सी गोपियाँ एक साथ ही व्रज से बाहर निकल आयीं। उनकी आँखें न जाने कब से श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये तरस रही थीं । गोपियों ने अपने नेत्ररूप भ्रमरों से भगवान् के मुखारविन्द का मकरन्द-रस पान करके दिन-भर के विरह की जलन शान्त की। और भगवान् ने भी उनकी लाजभरी हँसी तथा विनय से युक्त प्रेम भरी तिरछी चितवन का सत्कार स्वीकार करके व्रज में प्रवेश किया । उधर यशोदामैया और रोहिणीजी का ह्रदय वात्सल्यस्नेह से उमड़ रहा था। उन्होंने श्याम और राम के घर पहुँचते ही उनकी इच्छा के अनुसार तथा समय के अनुरूप पहले से ही सोच-सँजोकर रखी हुई वस्तुएँ उन्हें खिलायीं-पिलायीं और पहनायीं । माताओं ने तेल-उबटन आदि लगाकर स्नान कराया। इससे उनकी दिनभर घूमने-फिरने की मार्ग की थकान दूर हो गयी। फिर उन्होंने सुन्दर वस्त्र पहनाकर दिव्य पुष्पों की माला पहनायी तथा चन्दन लगाया  तत्पश्चात् दोनों भाइयों ने माताओं का परोसा हुआ स्वादिष्ट अन्न भोजन किया। उसके बाद बड़े लाड़-प्यार से दुलार-दुलार कर यशोदा और रोहिणी ने उन्हें सुन्दर शय्या पर सुलाया। श्याम और राम बड़े आराम से सो गये ।
इसके बाद कमलदल लोचन भगवान  श्रीकृष्ण बड़े भाई बलरामजी के साथ व्रज में आये। उस समय उनके साथी ग्वालबाल उनके पीछे-पीछे चलते हुए उनकी स्तुति करते जाते थे। क्यों न हो; भगवान  की लीलाओं का श्रवण-कीर्तन ही सबसे बढ़कर पवित्र जो है । उस समय श्रीकृष्ण की घुँघराली अलकों पर गौओं के खुरों से उड़-उड़कर धूलि पड़ी हुई थी, सिरपर मोरपंख का मुकुट था और बालों में सुन्दर-सुन्दर जंगली पुष्प गुँथे हुए थे। उनके नेत्रों में मधुर चितवन और मुखपर मनोहर मुसकान थी। वे मधुर-मधुर मुरली बजा रहे थे और साथी ग्वालबाल उनकी ललित कीर्ति का गान कर रहे थे। वंशी की ध्वनि सुनकर बहुत-सी गोपियाँ एक साथ ही व्रज से बाहर निकल आयीं। उनकी आँखें न जाने कब से श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये तरस रही थीं । गोपियों ने अपने नेत्ररूप भ्रमरों से भगवान  के मुखारविन्द का मकरन्द-रस पान करके दिन-भर के विरह की जलन शान्त की। और भगवान  ने भी उनकी लाजभरी हँसी तथा विनय से युक्त प्रेम भरी तिरछी चितवन का सत्कार स्वीकार करके व्रज में प्रवेश किया । उधर यशोदामैया और रोहिणीजी का ह्रदय वात्सल्यस्नेह से उमड़ रहा था। उन्होंने श्याम और राम के घर पहुँचते ही उनकी इच्छा के अनुसार तथा समय के अनुरूप पहले से ही सोच-सँजोकर रखी हुई वस्तुएँ उन्हें खिलायीं-पिलायीं और पहनायीं । माताओं ने तेल-उबटन आदि लगाकर स्नान कराया। इससे उनकी दिनभर घूमने-फिरने की मार्ग की थकान दूर हो गयी। फिर उन्होंने सुन्दर वस्त्र पहनाकर दिव्य पुष्पों की माला पहनायी तथा चन्दन लगाया  तत्पश्चात् दोनों भाइयों ने माताओं का परोसा हुआ स्वादिष्ट अन्न भोजन किया। उसके बाद बड़े लाड़-प्यार से दुलार-दुलार कर यशोदा और रोहिणी ने उन्हें सुन्दर शय्या पर सुलाया। श्याम और राम बड़े आराम से सो गये ।


भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार वृन्दावन में अनेकों लीलाएँ करते। एक दिन अपने सखा ग्वालबालों के साथ वे यमुना-तट पर गये। राजन्! उस दिन बलरामजी उनके साथ नहीं थे । उस समय जेठ-अषाढ़ के घाम से गौएँ और ग्वालबाल अत्यन्त पीड़ित हो रहे थे। प्यास से उनका कण्ठ सूख रहा था। इसलिये उन्होंने यमुनाजी का विषैला जल पी लिया । परीक्षित्! होनहार के वश उन्हें इस बात का ध्यान ही नहीं रहा था। उस विषैले जल के पीते ही सब गौएँ और ग्वालबाल प्राणहीन होकर यमुनाजी के तट पर गिर पड़े । उन्हें ऐसी अवस्था में देखकर योगेश्वरों के भी ईश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी अमृत बरसानेवाली दृष्टि से उन्हें जीवित कर दिया। उनके स्वामी और सर्वस्व तो एकमात्र श्रीकृष्ण ही थे । परीक्षित्! चेतना आने पर वे सब यमुनाजी के तटपर उठ खड़े हुए और आश्चर्यचकित होकर एक-दूसरे की ओर देखने लगे । राजन्! अन्त में उन्होंने यही निश्चय किया कि हम लोग विषैला जल पी लेने के कारण मर चुके थे, परन्तु हमारे श्रीकृष्ण ने अपनी अनुग्रहभरी दृष्टि से हमें देखकर हमें फिर से जिला दिया है ।
भगवान  श्रीकृष्ण इस प्रकार वृन्दावन में अनेकों लीलाएँ करते। एक दिन अपने सखा ग्वालबालों के साथ वे यमुना-तट पर गये। राजन्! उस दिन बलरामजी उनके साथ नहीं थे । उस समय जेठ-अषाढ़ के घाम से गौएँ और ग्वालबाल अत्यन्त पीड़ित हो रहे थे। प्यास से उनका कण्ठ सूख रहा था। इसलिये उन्होंने यमुनाजी का विषैला जल पी लिया । परीक्षित्! होनहार के वश उन्हें इस बात का ध्यान ही नहीं रहा था। उस विषैले जल के पीते ही सब गौएँ और ग्वालबाल प्राणहीन होकर यमुनाजी के तट पर गिर पड़े । उन्हें ऐसी अवस्था में देखकर योगेश्वरों के भी ईश्वर भगवान  श्रीकृष्ण ने अपनी अमृत बरसानेवाली दृष्टि से उन्हें जीवित कर दिया। उनके स्वामी और सर्वस्व तो एकमात्र श्रीकृष्ण ही थे । परीक्षित्! चेतना आने पर वे सब यमुनाजी के तटपर उठ खड़े हुए और आश्चर्यचकित होकर एक-दूसरे की ओर देखने लगे । राजन्! अन्त में उन्होंने यही निश्चय किया कि हम लोग विषैला जल पी लेने के कारण मर चुके थे, परन्तु हमारे श्रीकृष्ण ने अपनी अनुग्रहभरी दृष्टि से हमें देखकर हमें फिर से जिला दिया है ।


{{लेख क्रम |पिछला=श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 15 श्लोक 23-37|अगला=श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 16 श्लोक 1-9}}
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१२:३३, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

दशम स्कन्ध: पञ्चदशोऽध्यायः(15) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पञ्चदशोऽध्यायः श्लोक 38-52 का हिन्दी अनुवाद

उस समय वह भूमि ताड़ के फलों से पट गयी और टूटे हुए वृक्ष तथा दैत्यों के प्राणहीन शरीरों से भर गयी। जैसे बादलों से आकाश ढक गया हो, उस भूमि की वैसी ही शोभा होने लगी । बलरामजी और श्रीकृष्ण की यह मंगलमयी लीला देखकर देवतागण उन पर फूल बरसाने लगे और बाजे बजा-बजाकर स्तुति करने लगे । जिस दिन धेनुकासुर मरा, उसी दिन से लोग निडर होकर उस वन के तालफल खाने लगे तथा पशु भी स्वच्छन्दता के साथ घास चरने लगे ।

इसके बाद कमलदल लोचन भगवान श्रीकृष्ण बड़े भाई बलरामजी के साथ व्रज में आये। उस समय उनके साथी ग्वालबाल उनके पीछे-पीछे चलते हुए उनकी स्तुति करते जाते थे। क्यों न हो; भगवान की लीलाओं का श्रवण-कीर्तन ही सबसे बढ़कर पवित्र जो है । उस समय श्रीकृष्ण की घुँघराली अलकों पर गौओं के खुरों से उड़-उड़कर धूलि पड़ी हुई थी, सिरपर मोरपंख का मुकुट था और बालों में सुन्दर-सुन्दर जंगली पुष्प गुँथे हुए थे। उनके नेत्रों में मधुर चितवन और मुखपर मनोहर मुसकान थी। वे मधुर-मधुर मुरली बजा रहे थे और साथी ग्वालबाल उनकी ललित कीर्ति का गान कर रहे थे। वंशी की ध्वनि सुनकर बहुत-सी गोपियाँ एक साथ ही व्रज से बाहर निकल आयीं। उनकी आँखें न जाने कब से श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये तरस रही थीं । गोपियों ने अपने नेत्ररूप भ्रमरों से भगवान के मुखारविन्द का मकरन्द-रस पान करके दिन-भर के विरह की जलन शान्त की। और भगवान ने भी उनकी लाजभरी हँसी तथा विनय से युक्त प्रेम भरी तिरछी चितवन का सत्कार स्वीकार करके व्रज में प्रवेश किया । उधर यशोदामैया और रोहिणीजी का ह्रदय वात्सल्यस्नेह से उमड़ रहा था। उन्होंने श्याम और राम के घर पहुँचते ही उनकी इच्छा के अनुसार तथा समय के अनुरूप पहले से ही सोच-सँजोकर रखी हुई वस्तुएँ उन्हें खिलायीं-पिलायीं और पहनायीं । माताओं ने तेल-उबटन आदि लगाकर स्नान कराया। इससे उनकी दिनभर घूमने-फिरने की मार्ग की थकान दूर हो गयी। फिर उन्होंने सुन्दर वस्त्र पहनाकर दिव्य पुष्पों की माला पहनायी तथा चन्दन लगाया तत्पश्चात् दोनों भाइयों ने माताओं का परोसा हुआ स्वादिष्ट अन्न भोजन किया। उसके बाद बड़े लाड़-प्यार से दुलार-दुलार कर यशोदा और रोहिणी ने उन्हें सुन्दर शय्या पर सुलाया। श्याम और राम बड़े आराम से सो गये ।

भगवान श्रीकृष्ण इस प्रकार वृन्दावन में अनेकों लीलाएँ करते। एक दिन अपने सखा ग्वालबालों के साथ वे यमुना-तट पर गये। राजन्! उस दिन बलरामजी उनके साथ नहीं थे । उस समय जेठ-अषाढ़ के घाम से गौएँ और ग्वालबाल अत्यन्त पीड़ित हो रहे थे। प्यास से उनका कण्ठ सूख रहा था। इसलिये उन्होंने यमुनाजी का विषैला जल पी लिया । परीक्षित्! होनहार के वश उन्हें इस बात का ध्यान ही नहीं रहा था। उस विषैले जल के पीते ही सब गौएँ और ग्वालबाल प्राणहीन होकर यमुनाजी के तट पर गिर पड़े । उन्हें ऐसी अवस्था में देखकर योगेश्वरों के भी ईश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी अमृत बरसानेवाली दृष्टि से उन्हें जीवित कर दिया। उनके स्वामी और सर्वस्व तो एकमात्र श्रीकृष्ण ही थे । परीक्षित्! चेतना आने पर वे सब यमुनाजी के तटपर उठ खड़े हुए और आश्चर्यचकित होकर एक-दूसरे की ओर देखने लगे । राजन्! अन्त में उन्होंने यही निश्चय किया कि हम लोग विषैला जल पी लेने के कारण मर चुके थे, परन्तु हमारे श्रीकृष्ण ने अपनी अनुग्रहभरी दृष्टि से हमें देखकर हमें फिर से जिला दिया है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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