"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 25 श्लोक 15-28" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पञ्चविंशोऽध्यायः श्लोक 15-28 का हिन्दी अनुवाद </div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पञ्चविंशोऽध्यायः श्लोक 15-28 का हिन्दी अनुवाद </div>
  
वे मन-ही-मन कहने लगे—‘हमने इन्द्र का यज्ञ भंग कर दिया है, इसी से वे व्रज का नाश करने के लिये बिना ऋतु के ही यह प्रचण्ड वायु और ओलों के साथ घनघोर वर्षा कर रहे हैं । अच्छा, मैं अपनी योगमाया से इनका भलीभाँति जवाब दूँगा। ये मूर्खतावश अपने को लोकपाल मानते हैं, इनके ऐश्वर्य और धन का घमण्ड तथा अज्ञान मैं चूर-चूर कर दूँगा । देव्तालोग तो सत्वप्रधान होते हैं। इनमें अपने ऐश्वर्य और पद का अभिमान न होना चाहिये। अतः यह उचित ही है कि इस सत्वगुण से च्युत दुष्ट देवताओं का मैं मान भंग कर दूँ। इससे अन्त में उन्हें शान्ति ही मिलेगी । यह सारा व्रज मेरे आश्रित है, मेरे द्वारा स्वीकृत है और एकमात्र मैं ही इनका रक्षक हूँ। अतः मैं अपनी योगमाया से इनकी रक्षा करूँगा। संतों की रक्षा करना तो मेरा व्रत ही है। अब उसके पालन का अवसर आ पहुँचा है’<ref> भगवान् कहते हैं—‘जो केवल एक बार मेरी शरण में आ जाता है और ‘मैं तुम्हारा हूँ’ इस प्रकार याचना करता है, उसे मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय कर देता हूँ—यह मेरा व्रत है।’
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वे मन-ही-मन कहने लगे—‘हमने इन्द्र का यज्ञ भंग कर दिया है, इसी से वे व्रज का नाश करने के लिये बिना ऋतु के ही यह प्रचण्ड वायु और ओलों के साथ घनघोर वर्षा कर रहे हैं । अच्छा, मैं अपनी योगमाया से इनका भलीभाँति जवाब दूँगा। ये मूर्खतावश अपने को लोकपाल मानते हैं, इनके ऐश्वर्य और धन का घमण्ड तथा अज्ञान मैं चूर-चूर कर दूँगा । देव्तालोग तो सत्वप्रधान होते हैं। इनमें अपने ऐश्वर्य और पद का अभिमान न होना चाहिये। अतः यह उचित ही है कि इस सत्वगुण से च्युत दुष्ट देवताओं का मैं मान भंग कर दूँ। इससे अन्त में उन्हें शान्ति ही मिलेगी । यह सारा व्रज मेरे आश्रित है, मेरे द्वारा स्वीकृत है और एकमात्र मैं ही इनका रक्षक हूँ। अतः मैं अपनी योगमाया से इनकी रक्षा करूँगा। संतों की रक्षा करना तो मेरा व्रत ही है। अब उसके पालन का अवसर आ पहुँचा है’<ref> भगवान  कहते हैं—‘जो केवल एक बार मेरी शरण में आ जाता है और ‘मैं तुम्हारा हूँ’ इस प्रकार याचना करता है, उसे मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय कर देता हूँ—यह मेरा व्रत है।’
 
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इस प्रकार कहकर भगवान् श्रीकृष्ण ने खेल-खेल में एक ही हाथ से गिरिराज गोवर्द्धन को उखाड़ लिया और जैसे छोटे-छोटे बालक बरसाती छत्ते के पुष्प को उखाड़कर हाथ में रख लेते हैं, वैसे ही उन्होंने उस पर्वत को धारण कर लिया ।
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इस प्रकार कहकर भगवान  श्रीकृष्ण ने खेल-खेल में एक ही हाथ से गिरिराज गोवर्द्धन को उखाड़ लिया और जैसे छोटे-छोटे बालक बरसाती छत्ते के पुष्प को उखाड़कर हाथ में रख लेते हैं, वैसे ही उन्होंने उस पर्वत को धारण कर लिया ।
  
इसके बाद भगवान् ने गोपों ने कहा—‘माताजी, पिताजी और व्रजवासियों! तुम लोग अपनी गौओं और सब सामग्रियों के साथ इस पर्वत के गड्ढ़े में आकर आराम से बैठ जाओ । देखो, तुम लोग ऐसी शंका न करना कि मेरे हाथ से यह पर्वत गिर पड़ेगा। तुम लोग तनीक भी मत डरो। इस आँधी-पानी के डर से तुम्हें बचाने के लिये ही मैंने यह युक्ति रची है’। जब भगवान् श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सबको आश्वासन दिया—ढाढ़स बँधाया, तब सब-के-सब ग्वाल अपने-अपने गोधन, छकड़ों, आश्रीतों, पुरोहितों और भृत्यों को अपने-अपने साथ लेकर सुभीत के अनुसार गोवर्द्धन के गड्ढ़े में आ घुसे ।
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इसके बाद भगवान  ने गोपों ने कहा—‘माताजी, पिताजी और व्रजवासियों! तुम लोग अपनी गौओं और सब सामग्रियों के साथ इस पर्वत के गड्ढ़े में आकर आराम से बैठ जाओ । देखो, तुम लोग ऐसी शंका न करना कि मेरे हाथ से यह पर्वत गिर पड़ेगा। तुम लोग तनीक भी मत डरो। इस आँधी-पानी के डर से तुम्हें बचाने के लिये ही मैंने यह युक्ति रची है’। जब भगवान  श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सबको आश्वासन दिया—ढाढ़स बँधाया, तब सब-के-सब ग्वाल अपने-अपने गोधन, छकड़ों, आश्रीतों, पुरोहितों और भृत्यों को अपने-अपने साथ लेकर सुभीत के अनुसार गोवर्द्धन के गड्ढ़े में आ घुसे ।
  
[[कृष्ण|भगवान् श्रीकृष्ण]] ने सब व्रजवासियों के देखते-देखते भूख-प्यास की पीड़ा, आराम-विश्राम की आवश्यकता आदि सब कुछ भुलाकर सात दिन तक लगाकर उस पर्वत को उठाये रखा। वे एक डग भी वहाँ से इधर-उधर नहीं हुए । श्रीकृष्ण की योगमाया का यह प्रभाव देखकर इन्द्र के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। अपना संकल्प पूरा न होने के कारण उनकी सारी हेकड़ी बंद हो गयी, वे भौंचक्के-से रह गये। इनके बाद उन्होंने मेघों को अपने-आप वर्षा करने से रोक दिया । जब गोवर्द्धनधारी भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि वह भयंकर आँधी और घनघोर वर्षा बंद हो गयी, आकाश से बादल छँट गये और सूर्य दीखने लगे, तब उन्होंने गोपों से कहा— ‘मेरे प्यारे गोपों! अब तुम लोग निडर हो जाओ और अपनी स्त्रियों, गोधन और बच्चों के साथ बाहर निकल आओ। देखो, अब आँधी-पानी बंद हो गया तथा नदियों का पानी भी उतर गया’। भगवान् की ऐसी आज्ञा पाकर अपने-अपने गोधन, स्त्रियों, बच्चों और बूढ़ों को साथ ले तथा अपनी सामग्री छकड़ों पर लादकर धीरे-धीरे सब लोग बाहर निकल आये ।
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[[कृष्ण|भगवान  श्रीकृष्ण]] ने सब व्रजवासियों के देखते-देखते भूख-प्यास की पीड़ा, आराम-विश्राम की आवश्यकता आदि सब कुछ भुलाकर सात दिन तक लगाकर उस पर्वत को उठाये रखा। वे एक डग भी वहाँ से इधर-उधर नहीं हुए । श्रीकृष्ण की योगमाया का यह प्रभाव देखकर इन्द्र के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। अपना संकल्प पूरा न होने के कारण उनकी सारी हेकड़ी बंद हो गयी, वे भौंचक्के-से रह गये। इनके बाद उन्होंने मेघों को अपने-आप वर्षा करने से रोक दिया । जब गोवर्द्धनधारी भगवान  श्रीकृष्ण ने देखा कि वह भयंकर आँधी और घनघोर वर्षा बंद हो गयी, आकाश से बादल छँट गये और सूर्य दीखने लगे, तब उन्होंने गोपों से कहा— ‘मेरे प्यारे गोपों! अब तुम लोग निडर हो जाओ और अपनी स्त्रियों, गोधन और बच्चों के साथ बाहर निकल आओ। देखो, अब आँधी-पानी बंद हो गया तथा नदियों का पानी भी उतर गया’। भगवान  की ऐसी आज्ञा पाकर अपने-अपने गोधन, स्त्रियों, बच्चों और बूढ़ों को साथ ले तथा अपनी सामग्री छकड़ों पर लादकर धीरे-धीरे सब लोग बाहर निकल आये ।
  
सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण ने भी सब प्राणियों के देखते-देखते खेल-खेल में ही गिरिराज को पूर्ववत् उसके स्थान पर रख दिया ।
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सर्वशक्तिमान् भगवान  श्रीकृष्ण ने भी सब प्राणियों के देखते-देखते खेल-खेल में ही गिरिराज को पूर्ववत् उसके स्थान पर रख दिया ।
  
  

१२:३४, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

दशम स्कन्ध: पञ्चविंशोऽध्यायः (25) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पञ्चविंशोऽध्यायः श्लोक 15-28 का हिन्दी अनुवाद

वे मन-ही-मन कहने लगे—‘हमने इन्द्र का यज्ञ भंग कर दिया है, इसी से वे व्रज का नाश करने के लिये बिना ऋतु के ही यह प्रचण्ड वायु और ओलों के साथ घनघोर वर्षा कर रहे हैं । अच्छा, मैं अपनी योगमाया से इनका भलीभाँति जवाब दूँगा। ये मूर्खतावश अपने को लोकपाल मानते हैं, इनके ऐश्वर्य और धन का घमण्ड तथा अज्ञान मैं चूर-चूर कर दूँगा । देव्तालोग तो सत्वप्रधान होते हैं। इनमें अपने ऐश्वर्य और पद का अभिमान न होना चाहिये। अतः यह उचित ही है कि इस सत्वगुण से च्युत दुष्ट देवताओं का मैं मान भंग कर दूँ। इससे अन्त में उन्हें शान्ति ही मिलेगी । यह सारा व्रज मेरे आश्रित है, मेरे द्वारा स्वीकृत है और एकमात्र मैं ही इनका रक्षक हूँ। अतः मैं अपनी योगमाया से इनकी रक्षा करूँगा। संतों की रक्षा करना तो मेरा व्रत ही है। अब उसके पालन का अवसर आ पहुँचा है’[१]। इस प्रकार कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने खेल-खेल में एक ही हाथ से गिरिराज गोवर्द्धन को उखाड़ लिया और जैसे छोटे-छोटे बालक बरसाती छत्ते के पुष्प को उखाड़कर हाथ में रख लेते हैं, वैसे ही उन्होंने उस पर्वत को धारण कर लिया ।

इसके बाद भगवान ने गोपों ने कहा—‘माताजी, पिताजी और व्रजवासियों! तुम लोग अपनी गौओं और सब सामग्रियों के साथ इस पर्वत के गड्ढ़े में आकर आराम से बैठ जाओ । देखो, तुम लोग ऐसी शंका न करना कि मेरे हाथ से यह पर्वत गिर पड़ेगा। तुम लोग तनीक भी मत डरो। इस आँधी-पानी के डर से तुम्हें बचाने के लिये ही मैंने यह युक्ति रची है’। जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सबको आश्वासन दिया—ढाढ़स बँधाया, तब सब-के-सब ग्वाल अपने-अपने गोधन, छकड़ों, आश्रीतों, पुरोहितों और भृत्यों को अपने-अपने साथ लेकर सुभीत के अनुसार गोवर्द्धन के गड्ढ़े में आ घुसे ।

भगवान श्रीकृष्ण ने सब व्रजवासियों के देखते-देखते भूख-प्यास की पीड़ा, आराम-विश्राम की आवश्यकता आदि सब कुछ भुलाकर सात दिन तक लगाकर उस पर्वत को उठाये रखा। वे एक डग भी वहाँ से इधर-उधर नहीं हुए । श्रीकृष्ण की योगमाया का यह प्रभाव देखकर इन्द्र के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। अपना संकल्प पूरा न होने के कारण उनकी सारी हेकड़ी बंद हो गयी, वे भौंचक्के-से रह गये। इनके बाद उन्होंने मेघों को अपने-आप वर्षा करने से रोक दिया । जब गोवर्द्धनधारी भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि वह भयंकर आँधी और घनघोर वर्षा बंद हो गयी, आकाश से बादल छँट गये और सूर्य दीखने लगे, तब उन्होंने गोपों से कहा— ‘मेरे प्यारे गोपों! अब तुम लोग निडर हो जाओ और अपनी स्त्रियों, गोधन और बच्चों के साथ बाहर निकल आओ। देखो, अब आँधी-पानी बंद हो गया तथा नदियों का पानी भी उतर गया’। भगवान की ऐसी आज्ञा पाकर अपने-अपने गोधन, स्त्रियों, बच्चों और बूढ़ों को साथ ले तथा अपनी सामग्री छकड़ों पर लादकर धीरे-धीरे सब लोग बाहर निकल आये ।

सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण ने भी सब प्राणियों के देखते-देखते खेल-खेल में ही गिरिराज को पूर्ववत् उसके स्थान पर रख दिया ।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भगवान कहते हैं—‘जो केवल एक बार मेरी शरण में आ जाता है और ‘मैं तुम्हारा हूँ’ इस प्रकार याचना करता है, उसे मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय कर देता हूँ—यह मेरा व्रत है।’

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