"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 47 श्लोक 11-15" के अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
('== दशम स्कन्ध: सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः (47) (पूर्वाध)== <div sty...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
छो (Text replace - "भगवान् " to "भगवान ")
 
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति १: पंक्ति १:
== दशम स्कन्ध: सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः (47) (पूर्वाध)==
+
== दशम स्कन्ध: सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः (47) (पूर्वार्ध)==
  
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः श्लोक 11-15 का हिन्दी अनुवाद </div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः श्लोक 11-15 का हिन्दी अनुवाद </div>
  
एक गोपी को उस समय समरण हो रहा था भगवान् श्रीकृष्ण के मिलन की लीला का। उसी समय उसने देखा कि पास ही एक भौंरा गुनगुना रहा है। उसने ऐसा समझा मानो मुझे रूठी हुई समझकर श्रीकृष्ण ने मनाने के लिये दूत भेजा हो। वह गोपी भौंरे से इस प्रकार कहने लगी—
+
एक गोपी को उस समय समरण हो रहा था भगवान  श्रीकृष्ण के मिलन की लीला का। उसी समय उसने देखा कि पास ही एक भौंरा गुनगुना रहा है। उसने ऐसा समझा मानो मुझे रूठी हुई समझकर श्रीकृष्ण ने मनाने के लिये दूत भेजा हो। वह गोपी भौंरे से इस प्रकार कहने लगी—
  
 
गोपी ने कहा—रे मधुप! तू कपटी का सखा है; इसलिये तू भी कपटी है। तू हमारे पैरों को मत छू। झूठे प्रणाम करके हमसे अनुनय-विनय मत कर। हम देख रही हैं कि श्रीकृष्ण की जो वनमाला हमारी सौतों के वक्षःस्थल के स्पर्श से मसली हुई है, उसका पीला-पीला कुंकुम तेरी मुछो पर भी लगा हुआ है। तू स्वयं भी तो किसी कुसुम से प्रेम नहीं करता, यहाँ—से-वहाँ उड़ा करता है। जैसे तेरे स्वामी, वैसा ही तू! मधुपति श्रीकृष्ण मथुरा की मानिनी नायिकाओं को मनाया करें, उनका वह कुंकुमरूप कृपा-प्रसाद, जो यदुवंशियों की सभा में उपहास करने योग्य है, अपने ही पास रखे। उसे तेरे द्वारा यहाँ भेजने की क्या आवश्यकता है ?  
 
गोपी ने कहा—रे मधुप! तू कपटी का सखा है; इसलिये तू भी कपटी है। तू हमारे पैरों को मत छू। झूठे प्रणाम करके हमसे अनुनय-विनय मत कर। हम देख रही हैं कि श्रीकृष्ण की जो वनमाला हमारी सौतों के वक्षःस्थल के स्पर्श से मसली हुई है, उसका पीला-पीला कुंकुम तेरी मुछो पर भी लगा हुआ है। तू स्वयं भी तो किसी कुसुम से प्रेम नहीं करता, यहाँ—से-वहाँ उड़ा करता है। जैसे तेरे स्वामी, वैसा ही तू! मधुपति श्रीकृष्ण मथुरा की मानिनी नायिकाओं को मनाया करें, उनका वह कुंकुमरूप कृपा-प्रसाद, जो यदुवंशियों की सभा में उपहास करने योग्य है, अपने ही पास रखे। उसे तेरे द्वारा यहाँ भेजने की क्या आवश्यकता है ?  

१२:३७, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

दशम स्कन्ध: सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः (47) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः श्लोक 11-15 का हिन्दी अनुवाद

एक गोपी को उस समय समरण हो रहा था भगवान श्रीकृष्ण के मिलन की लीला का। उसी समय उसने देखा कि पास ही एक भौंरा गुनगुना रहा है। उसने ऐसा समझा मानो मुझे रूठी हुई समझकर श्रीकृष्ण ने मनाने के लिये दूत भेजा हो। वह गोपी भौंरे से इस प्रकार कहने लगी—

गोपी ने कहा—रे मधुप! तू कपटी का सखा है; इसलिये तू भी कपटी है। तू हमारे पैरों को मत छू। झूठे प्रणाम करके हमसे अनुनय-विनय मत कर। हम देख रही हैं कि श्रीकृष्ण की जो वनमाला हमारी सौतों के वक्षःस्थल के स्पर्श से मसली हुई है, उसका पीला-पीला कुंकुम तेरी मुछो पर भी लगा हुआ है। तू स्वयं भी तो किसी कुसुम से प्रेम नहीं करता, यहाँ—से-वहाँ उड़ा करता है। जैसे तेरे स्वामी, वैसा ही तू! मधुपति श्रीकृष्ण मथुरा की मानिनी नायिकाओं को मनाया करें, उनका वह कुंकुमरूप कृपा-प्रसाद, जो यदुवंशियों की सभा में उपहास करने योग्य है, अपने ही पास रखे। उसे तेरे द्वारा यहाँ भेजने की क्या आवश्यकता है ?

जैसा तू काला है, वैसे ही वे भी हैं। तू भी पुष्पों का रस लेकर उड़ जाता है, वैसे ही वे भी निकले। उन्होंने हमें केवल एक बार—हाँ, ऐसा ही लगता है—केवल एक बार अपनी तनिक-सी मोहिनी और परम मादक अधरसुधा पिलायी थी और फिर हम भोली-भाली गोपियों को छोड़कर वे यहाँ से चले गये। पता नहीं; सुकुमारी लक्ष्मी उनके चरणकमलों की सेवा कैसे करती रहती हैं! अवश्य ही वे छैल-छबीले श्रीकृष्ण की चिकनी-चुपड़ी बातों में आ गयी होंगी। चितचोर ने उनका भी चित्त चुरा लिया होगा ।

अरे भ्रमर! हम वनवासिनी हैं। हमारे तो घर-द्वार भी नहीं है। तू हम लोगों के सामने यदुवंशशिरोमणि श्रीकृष्ण का बहुत-सा गुणगान क्यों कर रहा है ? यह सब भला हम लोगों को मनाने के लिये ही तो ? परन्तु नहीं-नहीं, वे हमारे लिये कोई नये नहीं हैं। हमारे लिये जाने-पहिचाने, बिलकुल पुराने हैं। तेरी चापलूसी हमारे पास नहीं चलेगी। तू जा, यहाँ से चला जा और जिनके साथ सदा विजय रहती है, उन श्रीकृष्ण की मधुरपुरवासिनी सखियों के सामने जाकर उनका गुणगान कर। वे नयी हैं, उनकी लीलाएँ कम जानती हैं और इस समय वे उनकी प्यारी हैं; उनके ह्रदय की पीड़ा उन्होंने मिटा दी है। वे तेरी प्रार्थना स्वीकार करेंगी, तेरी चापलूसी से प्रसन्न होकर तुझे मुँहमाँगा वस्तु देंगी । भौंरे! वे हमारे लिये छटपटा रहे हैं, ऐसा तू क्यों कहता है ? उनकी कपटभरी मनोहर मुसकान और भौंहों के इशारे से जो वश में न हो जायँ, उनके पास दौड़ी न आवें—ऐसी कौन-सी स्त्रियाँ हैं ? अरे अनजान! स्वर्ग में, पातल में और पृथ्वी में ऐसी एक भी स्त्री नहीं है। औरों की तो बात ही क्या, स्वयं लक्ष्मीजी भी उनके चरणरज की सेवा किया करती हैं।


फिर हम श्रीकृष्ण के लिये किस गिनती में हैं ? परन्तु तू उनके पास जाकर कहना कि ‘तुम्हारा नाम तो ‘उत्तमश्लोक’ है, अच्छे-अच्छे लोग तुम्हारी कीर्ति का गान करते हैं; परन्तु इसकी सार्थकता तो इसी में है कि तुम दीनों पर दया करो। नहीं तो कृष्ण! तुम्हारा ‘उत्तमश्लोक’ नाम झूठा पद जाता है ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-