"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 47 श्लोक 20-28": अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः श्लोक 20-28 का हिन्दी अनुवाद </div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः श्लोक 20-28 का हिन्दी अनुवाद </div>


हमारे प्रियतम के प्यारे सखा! जान पड़ता है तुम एक बार उधर जाकर फिर लौट आये हो। अवश्य ही हमारे प्रियतम ने मनाने के लिये तुम्हें भेजा होगा। प्रिय भ्रमर! तूम सब प्रकार से हमारे माननीय हो। कहो, तुम्हारी क्या इच्छा है ? हमसे जो चाहो सो माँग लो। अच्छा, तुम सच बताओ, क्या हमें वहाँ ले चलना चाहते हो ? अजी, उनके पास जाकर लौटना बड़ा कठिन है। हम तो उनके पास जा चुकी हैं। परन्तु तुम हमें वहाँ ले जाकर करोगे क्या ? प्यारे भ्रमर! उनके साथ—उनके वक्षःस्थल पर तो उनकी प्यारी पत्नी लक्ष्मीजी सदा रहती हैं न ? तब वहाँ हमारा निर्वाह कैसे होगा । अच्छा, हमारे प्रियतम के प्यारे दूत मधुकर! हमें यह बतलाओ कि आर्यपुत्र भगवान् श्रीकृष्ण गुरुकुल से लौटकर मधुपुरी में अब सुख से तो हैं न ? क्या वे कभी नन्दबाबा, यशोदारानी, यहाँ के घर, सगे-सम्बन्धी और ग्वालबालों की भी याद करते हैं ? और क्या हम दासियों की भी कोई बात कभी चलाते हैं ? प्यारे भ्रमर! हमें यह भी बतलाओ कि कभी वे अपनी अगर के समय दिव्य सुगन्ध से युक्त भुजा हमारे सिरों पर रखेंगे ? क्या हमारे जीवन में कभी ऐसा शुभ अवसर भी आयेगा ?  
हमारे प्रियतम के प्यारे सखा! जान पड़ता है तुम एक बार उधर जाकर फिर लौट आये हो। अवश्य ही हमारे प्रियतम ने मनाने के लिये तुम्हें भेजा होगा। प्रिय भ्रमर! तूम सब प्रकार से हमारे माननीय हो। कहो, तुम्हारी क्या इच्छा है ? हमसे जो चाहो सो माँग लो। अच्छा, तुम सच बताओ, क्या हमें वहाँ ले चलना चाहते हो ? अजी, उनके पास जाकर लौटना बड़ा कठिन है। हम तो उनके पास जा चुकी हैं। परन्तु तुम हमें वहाँ ले जाकर करोगे क्या ? प्यारे भ्रमर! उनके साथ—उनके वक्षःस्थल पर तो उनकी प्यारी पत्नी लक्ष्मीजी सदा रहती हैं न ? तब वहाँ हमारा निर्वाह कैसे होगा । अच्छा, हमारे प्रियतम के प्यारे दूत मधुकर! हमें यह बतलाओ कि आर्यपुत्र भगवान  श्रीकृष्ण गुरुकुल से लौटकर मधुपुरी में अब सुख से तो हैं न ? क्या वे कभी नन्दबाबा, यशोदारानी, यहाँ के घर, सगे-सम्बन्धी और ग्वालबालों की भी याद करते हैं ? और क्या हम दासियों की भी कोई बात कभी चलाते हैं ? प्यारे भ्रमर! हमें यह भी बतलाओ कि कभी वे अपनी अगर के समय दिव्य सुगन्ध से युक्त भुजा हमारे सिरों पर रखेंगे ? क्या हमारे जीवन में कभी ऐसा शुभ अवसर भी आयेगा ?  


श्रीशुकदेव जी कहते हैं—परीक्षित्! गोपियाँ भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये अत्यन्त उत्सुक—लालायित हो रही थीं, उनके लिये तड़प रही थीं। उनकी बातें सुनकर उद्धवजी ने उन्हें उनके प्रियतम का सन्देश सुनाकर सान्त्वना देते हुए इस प्रकार कहा—
श्रीशुकदेव जी कहते हैं—परीक्षित्! गोपियाँ भगवान  श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये अत्यन्त उत्सुक—लालायित हो रही थीं, उनके लिये तड़प रही थीं। उनकी बातें सुनकर उद्धवजी ने उन्हें उनके प्रियतम का सन्देश सुनाकर सान्त्वना देते हुए इस प्रकार कहा—


उद्धवजी ने कहा—अहो गोपियों! तुम कृतकृत्य हो। तुम्हारा जीवन सफल है। देवियों! तुम सारे संसार के लिये पूजनीय हो; क्योंकि तुम लोगों ने इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण को अपना ह्रदय, अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया है । दान, व्रत, तप, होम, जप, वेदाध्ययन, ध्यान, धारणा, समाधि और कल्याण के अन्य विविध साधनों के द्वारा भगवान् की भक्ति प्राप्त हो, यही प्रयत्न किया जाता है । यह बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम लोगों ने पवित्र कीर्ति भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति वही सर्वोत्तम प्रेमभक्ति प्राप्त की है और उसी का आदर्श स्थापित किया है, जो बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है । सचमुच यह कितने सौभाग्य की बात है कि तुमने अपने पुत्र, पति, देह, स्वजन और घरों को छोड़कर पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण को , जो सबके परम पति हैं, पति के रूप में वरण किया है । महाभाग्यवती गोपियों! भगवान् श्रीकृष्ण के वियोग से तुमने उन इन्द्रियातीत परमात्मा के प्रति वह भाव प्राप्त कर लिया है, जो सभी वस्तुओं के रूप में उनका दर्शन कराता है। तुम लोगों का वन भाव मेरे सामने भी प्रकट हुआ, यह मेरे ऊपर तुम देवियों की बड़ी ही दया है । मैं अपने स्वामी का गुप्त काम करने वाला दूत हूँ। तम्हारे प्रियतम भगवान् श्रीकृष्ण ने तुम लोगों को परम सुख देने के लिये यह प्रिय सन्देश भेजा है। कल्याणियों! वही लेकर मैं तुम लोगों के पास आया हूँ, अब उसे सुनो ।  
उद्धवजी ने कहा—अहो गोपियों! तुम कृतकृत्य हो। तुम्हारा जीवन सफल है। देवियों! तुम सारे संसार के लिये पूजनीय हो; क्योंकि तुम लोगों ने इस प्रकार भगवान  श्रीकृष्ण को अपना ह्रदय, अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया है । दान, व्रत, तप, होम, जप, वेदाध्ययन, ध्यान, धारणा, समाधि और कल्याण के अन्य विविध साधनों के द्वारा भगवान  की भक्ति प्राप्त हो, यही प्रयत्न किया जाता है । यह बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम लोगों ने पवित्र कीर्ति भगवान  श्रीकृष्ण के प्रति वही सर्वोत्तम प्रेमभक्ति प्राप्त की है और उसी का आदर्श स्थापित किया है, जो बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है । सचमुच यह कितने सौभाग्य की बात है कि तुमने अपने पुत्र, पति, देह, स्वजन और घरों को छोड़कर पुरुषोत्तम भगवान  श्रीकृष्ण को , जो सबके परम पति हैं, पति के रूप में वरण किया है । महाभाग्यवती गोपियों! भगवान  श्रीकृष्ण के वियोग से तुमने उन इन्द्रियातीत परमात्मा के प्रति वह भाव प्राप्त कर लिया है, जो सभी वस्तुओं के रूप में उनका दर्शन कराता है। तुम लोगों का वन भाव मेरे सामने भी प्रकट हुआ, यह मेरे ऊपर तुम देवियों की बड़ी ही दया है । मैं अपने स्वामी का गुप्त काम करने वाला दूत हूँ। तम्हारे प्रियतम भगवान  श्रीकृष्ण ने तुम लोगों को परम सुख देने के लिये यह प्रिय सन्देश भेजा है। कल्याणियों! वही लेकर मैं तुम लोगों के पास आया हूँ, अब उसे सुनो ।  


{{लेख क्रम |पिछला=श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 47 श्लोक 16-19 |अगला=श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 47 श्लोक 29-38}}
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१२:३७, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

दशम स्कन्ध: सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः (47) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः श्लोक 20-28 का हिन्दी अनुवाद

हमारे प्रियतम के प्यारे सखा! जान पड़ता है तुम एक बार उधर जाकर फिर लौट आये हो। अवश्य ही हमारे प्रियतम ने मनाने के लिये तुम्हें भेजा होगा। प्रिय भ्रमर! तूम सब प्रकार से हमारे माननीय हो। कहो, तुम्हारी क्या इच्छा है ? हमसे जो चाहो सो माँग लो। अच्छा, तुम सच बताओ, क्या हमें वहाँ ले चलना चाहते हो ? अजी, उनके पास जाकर लौटना बड़ा कठिन है। हम तो उनके पास जा चुकी हैं। परन्तु तुम हमें वहाँ ले जाकर करोगे क्या ? प्यारे भ्रमर! उनके साथ—उनके वक्षःस्थल पर तो उनकी प्यारी पत्नी लक्ष्मीजी सदा रहती हैं न ? तब वहाँ हमारा निर्वाह कैसे होगा । अच्छा, हमारे प्रियतम के प्यारे दूत मधुकर! हमें यह बतलाओ कि आर्यपुत्र भगवान श्रीकृष्ण गुरुकुल से लौटकर मधुपुरी में अब सुख से तो हैं न ? क्या वे कभी नन्दबाबा, यशोदारानी, यहाँ के घर, सगे-सम्बन्धी और ग्वालबालों की भी याद करते हैं ? और क्या हम दासियों की भी कोई बात कभी चलाते हैं ? प्यारे भ्रमर! हमें यह भी बतलाओ कि कभी वे अपनी अगर के समय दिव्य सुगन्ध से युक्त भुजा हमारे सिरों पर रखेंगे ? क्या हमारे जीवन में कभी ऐसा शुभ अवसर भी आयेगा ?

श्रीशुकदेव जी कहते हैं—परीक्षित्! गोपियाँ भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये अत्यन्त उत्सुक—लालायित हो रही थीं, उनके लिये तड़प रही थीं। उनकी बातें सुनकर उद्धवजी ने उन्हें उनके प्रियतम का सन्देश सुनाकर सान्त्वना देते हुए इस प्रकार कहा—

उद्धवजी ने कहा—अहो गोपियों! तुम कृतकृत्य हो। तुम्हारा जीवन सफल है। देवियों! तुम सारे संसार के लिये पूजनीय हो; क्योंकि तुम लोगों ने इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण को अपना ह्रदय, अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया है । दान, व्रत, तप, होम, जप, वेदाध्ययन, ध्यान, धारणा, समाधि और कल्याण के अन्य विविध साधनों के द्वारा भगवान की भक्ति प्राप्त हो, यही प्रयत्न किया जाता है । यह बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम लोगों ने पवित्र कीर्ति भगवान श्रीकृष्ण के प्रति वही सर्वोत्तम प्रेमभक्ति प्राप्त की है और उसी का आदर्श स्थापित किया है, जो बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है । सचमुच यह कितने सौभाग्य की बात है कि तुमने अपने पुत्र, पति, देह, स्वजन और घरों को छोड़कर पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण को , जो सबके परम पति हैं, पति के रूप में वरण किया है । महाभाग्यवती गोपियों! भगवान श्रीकृष्ण के वियोग से तुमने उन इन्द्रियातीत परमात्मा के प्रति वह भाव प्राप्त कर लिया है, जो सभी वस्तुओं के रूप में उनका दर्शन कराता है। तुम लोगों का वन भाव मेरे सामने भी प्रकट हुआ, यह मेरे ऊपर तुम देवियों की बड़ी ही दया है । मैं अपने स्वामी का गुप्त काम करने वाला दूत हूँ। तम्हारे प्रियतम भगवान श्रीकृष्ण ने तुम लोगों को परम सुख देने के लिये यह प्रिय सन्देश भेजा है। कल्याणियों! वही लेकर मैं तुम लोगों के पास आया हूँ, अब उसे सुनो ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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