"श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 13 श्लोक 17-30" के अवतरणों में अंतर

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इस प्रकार पाण्डव गृहस्थ के काम-धंधों में रम गये और उन्हीं के पीछे एक प्रकार से यह बात भूल गये कि अनजान में ही हमारा जीवन मृत्यु की ओर जा रहा है; अब देखते-देखते उनके सामने वह समय आ पहुँचा जिसे कोई टाल नहीं सकता ।
 
इस प्रकार पाण्डव गृहस्थ के काम-धंधों में रम गये और उन्हीं के पीछे एक प्रकार से यह बात भूल गये कि अनजान में ही हमारा जीवन मृत्यु की ओर जा रहा है; अब देखते-देखते उनके सामने वह समय आ पहुँचा जिसे कोई टाल नहीं सकता ।
परन्तु विदुरजी ने काल की गति जानकर अपने बड़े भाई धृतराष्ट्र से कहा—‘महाराज! देखिये, अब बड़ा भयंकर समय आ गया है, झटपट यहाँ से निकल चलिये । हम सब लोगों के सिर पर वह सर्वसमर्थ काल मँडराने लगा है, जिसके टालने का कहीं भी कोई उपाय नहीं है । काल के वशीभूत होकर जीव का अपने प्रियतम प्राणों से भी बात-की-बात में वियोग हो जाता है; फिर धन, जन आदि दूसरी वस्तुओं की तो बात ही क्या है । आपके चाचा, ताऊ, भाई, सगे-सम्बन्धी और पुत्र—सभी मारे गये, आपकी उम्र भी ढल चुकी, शरीर बुढ़ापे का शिकार हो गया, आप पराये घर में पड़े हुए हैं । ओह! इस प्राणी को जीवित रहने की कितनी प्रबल इच्छा होती है! इसी के कारण तो आप भीम का दिया हुआ टुकड़ा खाकर कुत्ते का-सा जीवन बिता रहे हैं । जिनको आपने आग में जलाने की चेष्टा की, विष देकर मार डालना चाहा, भरी सभा में जिनकी विवाहिता पत्नी को अपमानित किया, जिनकी भूमि और धन छीन लिये, उन्हीं के अन्न से पले हुए प्राणों को रखने में क्या गौरव है । आपके अज्ञान की हद हो गयी कि अब भी जीना चाहते हैं! परन्तु आपके चाहने से क्या होगा; पुराने वस्त्र की तरह बुढ़ापे से गला हुआ आपका शरीर आपके न चाहने पर भी क्षीण हुआ जा रहा है । अब इस शरीर से आपका कोई स्वार्थ सधने वाला नहीं है; इसमें फँसिये मत; इसकी ममता का बन्धन काट डालिये। जो संसार के सम्बन्धियों से अलग रहकर उनके अनजान में अपने शरीर का त्याग करता है, वही धीर कहा गया है । चाहे अपनी समझ से हो या दूसरे के समझाने से—जो इस संसार को दुःखरूप समझकर इससे विरक्त हो जाता है और अपने अन्तःकरण को वश में करके ह्रदय में भगवान् को धारणकर संन्यास के लिये घर से निकल पड़ता है, वही उत्तम मनुष्य है । इसके आगे जो समय आने वाला है, वह प्रायः मनुष्यों के गुणों को घटाने वाला होगा; इसलिये आप अपने कुटुम्बियों से छिपकर उत्तराखण्ड में चले जाइये’ ।
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परन्तु विदुरजी ने काल की गति जानकर अपने बड़े भाई धृतराष्ट्र से कहा—‘महाराज! देखिये, अब बड़ा भयंकर समय आ गया है, झटपट यहाँ से निकल चलिये । हम सब लोगों के सिर पर वह सर्वसमर्थ काल मँडराने लगा है, जिसके टालने का कहीं भी कोई उपाय नहीं है । काल के वशीभूत होकर जीव का अपने प्रियतम प्राणों से भी बात-की-बात में वियोग हो जाता है; फिर धन, जन आदि दूसरी वस्तुओं की तो बात ही क्या है । आपके चाचा, ताऊ, भाई, सगे-सम्बन्धी और पुत्र—सभी मारे गये, आपकी उम्र भी ढल चुकी, शरीर बुढ़ापे का शिकार हो गया, आप पराये घर में पड़े हुए हैं । ओह! इस प्राणी को जीवित रहने की कितनी प्रबल इच्छा होती है! इसी के कारण तो आप भीम का दिया हुआ टुकड़ा खाकर कुत्ते का-सा जीवन बिता रहे हैं । जिनको आपने आग में जलाने की चेष्टा की, विष देकर मार डालना चाहा, भरी सभा में जिनकी विवाहिता पत्नी को अपमानित किया, जिनकी भूमि और धन छीन लिये, उन्हीं के अन्न से पले हुए प्राणों को रखने में क्या गौरव है । आपके अज्ञान की हद हो गयी कि अब भी जीना चाहते हैं! परन्तु आपके चाहने से क्या होगा; पुराने वस्त्र की तरह बुढ़ापे से गला हुआ आपका शरीर आपके न चाहने पर भी क्षीण हुआ जा रहा है । अब इस शरीर से आपका कोई स्वार्थ सधने वाला नहीं है; इसमें फँसिये मत; इसकी ममता का बन्धन काट डालिये। जो संसार के सम्बन्धियों से अलग रहकर उनके अनजान में अपने शरीर का त्याग करता है, वही धीर कहा गया है । चाहे अपनी समझ से हो या दूसरे के समझाने से—जो इस संसार को दुःखरूप समझकर इससे विरक्त हो जाता है और अपने अन्तःकरण को वश में करके ह्रदय में भगवान  को धारणकर संन्यास के लिये घर से निकल पड़ता है, वही उत्तम मनुष्य है । इसके आगे जो समय आने वाला है, वह प्रायः मनुष्यों के गुणों को घटाने वाला होगा; इसलिये आप अपने कुटुम्बियों से छिपकर उत्तराखण्ड में चले जाइये’ ।
 
जब छोटे भाई विदुर ने अंधे राजा धृतराष्ट्र को इस प्रकार समझाया, तब उनकी प्रज्ञा के नेत्र खुल गये; वे भाई-बन्धुओं के सुदृढ़ स्नेह-पाशों को काटकर अपने छोटे भाई विदुर के दिखलाये हुए मार्ग से निकल पड़े । जब परम पतिव्रता सुबलनन्दिनी गान्धारी ने देखा कि मेरे पतिदेव तो उस हिमालय की यात्रा कर रहे हैं जो संन्यासियों को वैसा ही सुख देता है जैसा वीर पुरुषों को लड़ाई के मैदान में अपने शत्रु के द्वारा किये हुए न्यायोचित प्रहार से होता है। तब वे भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ीं ।
 
जब छोटे भाई विदुर ने अंधे राजा धृतराष्ट्र को इस प्रकार समझाया, तब उनकी प्रज्ञा के नेत्र खुल गये; वे भाई-बन्धुओं के सुदृढ़ स्नेह-पाशों को काटकर अपने छोटे भाई विदुर के दिखलाये हुए मार्ग से निकल पड़े । जब परम पतिव्रता सुबलनन्दिनी गान्धारी ने देखा कि मेरे पतिदेव तो उस हिमालय की यात्रा कर रहे हैं जो संन्यासियों को वैसा ही सुख देता है जैसा वीर पुरुषों को लड़ाई के मैदान में अपने शत्रु के द्वारा किये हुए न्यायोचित प्रहार से होता है। तब वे भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ीं ।
 
अजातशत्रु युधिष्ठिर ने प्रातःकाल सन्ध्या-वन्दन तथा अग्निहोत्र करके ब्राम्हणों को नमस्कार किया और उन्हें तिल, गौ, भूमि और सुवर्ण का दान दिया। इसके बाद जब वे गुरुजनों की चरण वन्दना के लिये राजमहल में गये, तब उन्हें धृतराष्ट्र, विदुर तथा गान्धारी के दर्शन नहीं हुए ।
 
अजातशत्रु युधिष्ठिर ने प्रातःकाल सन्ध्या-वन्दन तथा अग्निहोत्र करके ब्राम्हणों को नमस्कार किया और उन्हें तिल, गौ, भूमि और सुवर्ण का दान दिया। इसके बाद जब वे गुरुजनों की चरण वन्दना के लिये राजमहल में गये, तब उन्हें धृतराष्ट्र, विदुर तथा गान्धारी के दर्शन नहीं हुए ।

१२:४८, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

प्रथम स्कन्धःत्रयोदश अध्यायः (13)

श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः त्रयोदश अध्यायः श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद
विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और गान्धारी का वन में जाना


इस प्रकार पाण्डव गृहस्थ के काम-धंधों में रम गये और उन्हीं के पीछे एक प्रकार से यह बात भूल गये कि अनजान में ही हमारा जीवन मृत्यु की ओर जा रहा है; अब देखते-देखते उनके सामने वह समय आ पहुँचा जिसे कोई टाल नहीं सकता । परन्तु विदुरजी ने काल की गति जानकर अपने बड़े भाई धृतराष्ट्र से कहा—‘महाराज! देखिये, अब बड़ा भयंकर समय आ गया है, झटपट यहाँ से निकल चलिये । हम सब लोगों के सिर पर वह सर्वसमर्थ काल मँडराने लगा है, जिसके टालने का कहीं भी कोई उपाय नहीं है । काल के वशीभूत होकर जीव का अपने प्रियतम प्राणों से भी बात-की-बात में वियोग हो जाता है; फिर धन, जन आदि दूसरी वस्तुओं की तो बात ही क्या है । आपके चाचा, ताऊ, भाई, सगे-सम्बन्धी और पुत्र—सभी मारे गये, आपकी उम्र भी ढल चुकी, शरीर बुढ़ापे का शिकार हो गया, आप पराये घर में पड़े हुए हैं । ओह! इस प्राणी को जीवित रहने की कितनी प्रबल इच्छा होती है! इसी के कारण तो आप भीम का दिया हुआ टुकड़ा खाकर कुत्ते का-सा जीवन बिता रहे हैं । जिनको आपने आग में जलाने की चेष्टा की, विष देकर मार डालना चाहा, भरी सभा में जिनकी विवाहिता पत्नी को अपमानित किया, जिनकी भूमि और धन छीन लिये, उन्हीं के अन्न से पले हुए प्राणों को रखने में क्या गौरव है । आपके अज्ञान की हद हो गयी कि अब भी जीना चाहते हैं! परन्तु आपके चाहने से क्या होगा; पुराने वस्त्र की तरह बुढ़ापे से गला हुआ आपका शरीर आपके न चाहने पर भी क्षीण हुआ जा रहा है । अब इस शरीर से आपका कोई स्वार्थ सधने वाला नहीं है; इसमें फँसिये मत; इसकी ममता का बन्धन काट डालिये। जो संसार के सम्बन्धियों से अलग रहकर उनके अनजान में अपने शरीर का त्याग करता है, वही धीर कहा गया है । चाहे अपनी समझ से हो या दूसरे के समझाने से—जो इस संसार को दुःखरूप समझकर इससे विरक्त हो जाता है और अपने अन्तःकरण को वश में करके ह्रदय में भगवान को धारणकर संन्यास के लिये घर से निकल पड़ता है, वही उत्तम मनुष्य है । इसके आगे जो समय आने वाला है, वह प्रायः मनुष्यों के गुणों को घटाने वाला होगा; इसलिये आप अपने कुटुम्बियों से छिपकर उत्तराखण्ड में चले जाइये’ । जब छोटे भाई विदुर ने अंधे राजा धृतराष्ट्र को इस प्रकार समझाया, तब उनकी प्रज्ञा के नेत्र खुल गये; वे भाई-बन्धुओं के सुदृढ़ स्नेह-पाशों को काटकर अपने छोटे भाई विदुर के दिखलाये हुए मार्ग से निकल पड़े । जब परम पतिव्रता सुबलनन्दिनी गान्धारी ने देखा कि मेरे पतिदेव तो उस हिमालय की यात्रा कर रहे हैं जो संन्यासियों को वैसा ही सुख देता है जैसा वीर पुरुषों को लड़ाई के मैदान में अपने शत्रु के द्वारा किये हुए न्यायोचित प्रहार से होता है। तब वे भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ीं । अजातशत्रु युधिष्ठिर ने प्रातःकाल सन्ध्या-वन्दन तथा अग्निहोत्र करके ब्राम्हणों को नमस्कार किया और उन्हें तिल, गौ, भूमि और सुवर्ण का दान दिया। इसके बाद जब वे गुरुजनों की चरण वन्दना के लिये राजमहल में गये, तब उन्हें धृतराष्ट्र, विदुर तथा गान्धारी के दर्शन नहीं हुए ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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