"श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 17-32" के अवतरणों में अंतर
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− | अर्जुन ने इन मीठी और विचित्र बातों से द्रौपदी को सान्त्वना दी और अपने मित्र | + | अर्जुन ने इन मीठी और विचित्र बातों से द्रौपदी को सान्त्वना दी और अपने मित्र भगवान श्रीकृष्ण की सलाह से उन्हें सारथि बनाकर कवच धारण कर और अपने भयानक गाण्डीव धनुष को लेकर वे रथ पर सवार हुए तथा गुरु पुत्र अश्वत्थामा के पीछे दौड़ पड़े । |
बच्चों की हत्या से अश्वत्थामा का भी मन उद्विग्न हो गया था। जब उसने दूर से ही देखा कि अर्जुन मेरी ओर झपटे हुए आ रहे हैं, तब वह अपने प्राणों की रक्षा के लिये पृथ्वी पर जहाँ तक भाग सकता था, रूद्र से भयभीत सूर्य की भाँति भागता रहा । जब उसने देखा कि मेरे रथ के घोड़े थक गये हैं और मैं बिलकुल अकेला हूँ, तब उसने अपने को बचाने का एकमात्र साधन ब्रम्हास्त्र ही समझा । यद्यपि उसे ब्रम्हास्त्र लौटाने की विधि मालूम न थी, फिर भी प्राण संकट देखकर उसने आचमन किया और ध्यानस्थ होकर ब्रम्हास्त्र का सन्धान किया । उस अस्त्र से अब दिशाओं में एक बड़ा प्रचण्ड तेज फैल गया। अर्जुन ने देखा कि अब तो मेरे प्राणों पर ही आ बनी है, तब उन्होंने श्रीकृष्ण से प्रार्थना की । | बच्चों की हत्या से अश्वत्थामा का भी मन उद्विग्न हो गया था। जब उसने दूर से ही देखा कि अर्जुन मेरी ओर झपटे हुए आ रहे हैं, तब वह अपने प्राणों की रक्षा के लिये पृथ्वी पर जहाँ तक भाग सकता था, रूद्र से भयभीत सूर्य की भाँति भागता रहा । जब उसने देखा कि मेरे रथ के घोड़े थक गये हैं और मैं बिलकुल अकेला हूँ, तब उसने अपने को बचाने का एकमात्र साधन ब्रम्हास्त्र ही समझा । यद्यपि उसे ब्रम्हास्त्र लौटाने की विधि मालूम न थी, फिर भी प्राण संकट देखकर उसने आचमन किया और ध्यानस्थ होकर ब्रम्हास्त्र का सन्धान किया । उस अस्त्र से अब दिशाओं में एक बड़ा प्रचण्ड तेज फैल गया। अर्जुन ने देखा कि अब तो मेरे प्राणों पर ही आ बनी है, तब उन्होंने श्रीकृष्ण से प्रार्थना की । | ||
अर्जुन ने कहा—श्रीकृष्ण! तुम सच्चिदानन्द स्वरुप परमात्मा हो। तुम्हारी शक्ति अनन्त है। तुम्हीं भक्तों को अभय देने वाले हो। जो संसार की धधकती हुई आग में जल रहे हैं, उन जीवों को उससे उबारने वाले एकमात्र तुम्हीं हो । तुम प्रकृति से परे रहने वाले आदि पुरुष साक्षात् परमेश्वर हो। अपनी चित्त-शक्ति (स्वरुप-शक्ति)—से बहिरंग एवं त्रिगुणमयी माय को दूर भगाकर अपने अद्वितीय स्वरुप में स्थित हो । वही तुम अपने प्रभाव से माया-मोहित जीवों के लिये धर्मादि रुप कल्याण का विधान करते हो । तुम्हारा यह अवतार पृथ्वी का भार हरण करने के लिये और तुम्हारे अनन्य प्रेमी भक्तों के निरन्तर स्मरण-ध्यान करने के लिये है । स्वयम्प्रकाशस्वरुप श्रीकृष्ण! क्या है, कहाँ से, क्यों आ रहा है—इसका मुझे बिलकुल पता नहीं है!। | अर्जुन ने कहा—श्रीकृष्ण! तुम सच्चिदानन्द स्वरुप परमात्मा हो। तुम्हारी शक्ति अनन्त है। तुम्हीं भक्तों को अभय देने वाले हो। जो संसार की धधकती हुई आग में जल रहे हैं, उन जीवों को उससे उबारने वाले एकमात्र तुम्हीं हो । तुम प्रकृति से परे रहने वाले आदि पुरुष साक्षात् परमेश्वर हो। अपनी चित्त-शक्ति (स्वरुप-शक्ति)—से बहिरंग एवं त्रिगुणमयी माय को दूर भगाकर अपने अद्वितीय स्वरुप में स्थित हो । वही तुम अपने प्रभाव से माया-मोहित जीवों के लिये धर्मादि रुप कल्याण का विधान करते हो । तुम्हारा यह अवतार पृथ्वी का भार हरण करने के लिये और तुम्हारे अनन्य प्रेमी भक्तों के निरन्तर स्मरण-ध्यान करने के लिये है । स्वयम्प्रकाशस्वरुप श्रीकृष्ण! क्या है, कहाँ से, क्यों आ रहा है—इसका मुझे बिलकुल पता नहीं है!। | ||
− | + | भगवान ने कहा—अर्जुन! यह अश्वत्थामा का चलाया हुआ ब्रम्हास्त्र है। यह बात समझ लो कि प्राण संकट उपस्थित होने से उसने इसका प्रयोग तो कर दिया है, परन्तु वह इस अस्त्र को लौटाना नहीं जानता । किसी भी दूसरे अस्त्र में इसको दबा देने की शक्ति नहीं है। तुम शस्त्रास्त्र विद्या को भलीभाँति जानते ही हो, ब्रम्हास्त्र के तेज से ही इस ब्रम्हास्त्र की प्रचण्ड आग को बुझा दो । | |
− | सूतजी कहते हैं—अर्जुन विपक्षी वीरों को मारने में बड़े प्रवीण थे। | + | सूतजी कहते हैं—अर्जुन विपक्षी वीरों को मारने में बड़े प्रवीण थे। भगवान की बात सुनकर उन्होंने आचमन किया और भगवान की परिक्रमा करके ब्रम्हास्त्र के निवारण के लिये ब्रम्हास्त्र का ही सन्धान किया । बाणों से वेष्ठित उन दोनों ब्रम्हास्त्रों के तेज प्रलयकालीन सूर्य एवं अग्नि के समान आपस में टकराकर सारे आकाश और दिशाओं में फैल गये और बढ़ने लगे । तीनों लोगों को जलाने वाली उन उन दोनों अस्त्रों की बढ़ी हुई लपटों से प्रजा जलने लगी और उसे देखकर सबने यही समझा कि यह प्रलयकाल की सांवर्तक अग्नि है । उस आग से प्रजा का और लोकों का नाश होते देखकर भगवान की अनुमति से अर्जुन ने उन दोनों को ही लौटा लिया । |
१२:४८, २९ जुलाई २०१५ का अवतरण
प्रथम स्कन्धः सप्तम अध्यायः(7)
अर्जुन ने इन मीठी और विचित्र बातों से द्रौपदी को सान्त्वना दी और अपने मित्र भगवान श्रीकृष्ण की सलाह से उन्हें सारथि बनाकर कवच धारण कर और अपने भयानक गाण्डीव धनुष को लेकर वे रथ पर सवार हुए तथा गुरु पुत्र अश्वत्थामा के पीछे दौड़ पड़े । बच्चों की हत्या से अश्वत्थामा का भी मन उद्विग्न हो गया था। जब उसने दूर से ही देखा कि अर्जुन मेरी ओर झपटे हुए आ रहे हैं, तब वह अपने प्राणों की रक्षा के लिये पृथ्वी पर जहाँ तक भाग सकता था, रूद्र से भयभीत सूर्य की भाँति भागता रहा । जब उसने देखा कि मेरे रथ के घोड़े थक गये हैं और मैं बिलकुल अकेला हूँ, तब उसने अपने को बचाने का एकमात्र साधन ब्रम्हास्त्र ही समझा । यद्यपि उसे ब्रम्हास्त्र लौटाने की विधि मालूम न थी, फिर भी प्राण संकट देखकर उसने आचमन किया और ध्यानस्थ होकर ब्रम्हास्त्र का सन्धान किया । उस अस्त्र से अब दिशाओं में एक बड़ा प्रचण्ड तेज फैल गया। अर्जुन ने देखा कि अब तो मेरे प्राणों पर ही आ बनी है, तब उन्होंने श्रीकृष्ण से प्रार्थना की । अर्जुन ने कहा—श्रीकृष्ण! तुम सच्चिदानन्द स्वरुप परमात्मा हो। तुम्हारी शक्ति अनन्त है। तुम्हीं भक्तों को अभय देने वाले हो। जो संसार की धधकती हुई आग में जल रहे हैं, उन जीवों को उससे उबारने वाले एकमात्र तुम्हीं हो । तुम प्रकृति से परे रहने वाले आदि पुरुष साक्षात् परमेश्वर हो। अपनी चित्त-शक्ति (स्वरुप-शक्ति)—से बहिरंग एवं त्रिगुणमयी माय को दूर भगाकर अपने अद्वितीय स्वरुप में स्थित हो । वही तुम अपने प्रभाव से माया-मोहित जीवों के लिये धर्मादि रुप कल्याण का विधान करते हो । तुम्हारा यह अवतार पृथ्वी का भार हरण करने के लिये और तुम्हारे अनन्य प्रेमी भक्तों के निरन्तर स्मरण-ध्यान करने के लिये है । स्वयम्प्रकाशस्वरुप श्रीकृष्ण! क्या है, कहाँ से, क्यों आ रहा है—इसका मुझे बिलकुल पता नहीं है!। भगवान ने कहा—अर्जुन! यह अश्वत्थामा का चलाया हुआ ब्रम्हास्त्र है। यह बात समझ लो कि प्राण संकट उपस्थित होने से उसने इसका प्रयोग तो कर दिया है, परन्तु वह इस अस्त्र को लौटाना नहीं जानता । किसी भी दूसरे अस्त्र में इसको दबा देने की शक्ति नहीं है। तुम शस्त्रास्त्र विद्या को भलीभाँति जानते ही हो, ब्रम्हास्त्र के तेज से ही इस ब्रम्हास्त्र की प्रचण्ड आग को बुझा दो । सूतजी कहते हैं—अर्जुन विपक्षी वीरों को मारने में बड़े प्रवीण थे। भगवान की बात सुनकर उन्होंने आचमन किया और भगवान की परिक्रमा करके ब्रम्हास्त्र के निवारण के लिये ब्रम्हास्त्र का ही सन्धान किया । बाणों से वेष्ठित उन दोनों ब्रम्हास्त्रों के तेज प्रलयकालीन सूर्य एवं अग्नि के समान आपस में टकराकर सारे आकाश और दिशाओं में फैल गये और बढ़ने लगे । तीनों लोगों को जलाने वाली उन उन दोनों अस्त्रों की बढ़ी हुई लपटों से प्रजा जलने लगी और उसे देखकर सबने यही समझा कि यह प्रलयकाल की सांवर्तक अग्नि है । उस आग से प्रजा का और लोकों का नाश होते देखकर भगवान की अनुमति से अर्जुन ने उन दोनों को ही लौटा लिया ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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