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'''ज़ब्त, ज़ब्ती''' भूमि राजस्व के निर्धारण की एक | '''ज़ब्त, ज़ब्ती''' [[भूमि]] राजस्व के निर्धारण की एक [[पद्धति]]। माप पर आधारित, [[भारत]] में सूरों और [[मुगल|मुगलों]] के अधीन प्रचलित। साधाणत: ज़ब्त, परंतु कभी-कभी ज़ब्ती तथा जरीब या 'अमल-ए-जरीब' कहलाती थी। अबुल फज़ल के अनुसार सूर राजा शेरशाह (1540-45) और इस्लाम शाह (1545-54) इस पद्धति को प्रचलित कराने के लिए उत्तरदायी थे। इसकी जो प्रमुख विशेषता थी, अन्य पद्धतियों (प्राचीन पद्धतियों) से भिन्न, जो माप पर आधारित थी अर्थात् 'कनकूत' प्रति बीघा [[फसल|फसलों]] की दर (रयी) पूर्व से ही निर्धारित हो जाती थी न कि फसल की कटाई के समय। वास्तविक भूमि राजस्व की दर (रयी) की 1/3 (एक तिहाई) थी, और यह नियम नापी हुई भूमि पर राजस्व प्राप्ति के लिए लागू किया जाता था। वह राजस्व पहले जिंस में ही लिया जाता था, तदुपरांत तत्कालीन मूल्यों के आधार पर नकद में परिवर्तित कर दिया जाता था। परिवर्तन वास्तव में [[भ्रष्टाचार]] एवं अयोग्यता का स्रोत था। अस्तु, [[अकबर]] (1556-1605) ने भूमि राजस्व को नकद में ही निर्धारित कराया। उपज तथा तत्कालीन दस वर्षों (1571-81) के प्रचलित मूल्य दरों का विस्तृत निरीक्षण करने के पश्चात् नकद [[[भूमि]] राजस्व (दस्तूर, दस्तूर-उल-अमल) प्रति बीघा विभिन्न फसलों के लिए प्रत्येक क्षेत्र (परगनों का संघ) में निर्धारित होता था। ज़ब्त में भूमि राजस्व, बोई हुई आराजी दस्तूर से गुणा करके नकद निर्धारित होता था। दस्तूर जिनमें समय समय पर परिवर्तन होता था, प्राय: प्रति वर्ष उपज और मूल्यों की दरों को देखे बिना लागू होता था। दैवी विपत्ति पड़ने पर माँग में कटौती, बिना दस्तूर में परिवर्तन के आपत्तिग्रस्त क्षेत्र (नाबुद) को आराजी में से घटाकर किया जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि वास्तव में, भूमि की पैमाइश प्रत्येक वर्ष नहीं होती थी, बल्कि पूर्व वर्षों की संख्याओं को ही, स्वेच्छा से परिवर्तन कर, ग्रहण कर लेते थे। पैमाइश केवल तभी होती थी जब कि किसान अथवा अधिकारी पहले की पैमाइश से संतुष्ट न हो, अगर वह वर्तमान उपज पर आधारित न रही हो (दे. 'नसक')। | ||
शेरशाह ने ज़ब्त पद्धति को, मुल्तान और कदाचित बंगाल को छोड़कर अपने संपूर्ण साम्राज्य में लागू किया था। अकबर के अधीन जब्त क्षेत्र का और अधिक विकास हुआ, यद्यपि यह संदेहजनक है कि दिल्ली और प्रांतों के बाहर विस्तृत खेतिहर भूमि की नाप तथा निर्धारण हुआ हो। मोरलैंड की विचारधारा के प्रतिकूल 17वीं शताब्दी में जब्त पद्धति का ह्रास नहीं हुआ। वास्तव में, इसका मुर्शीद कुली खां (1652-58) के द्वारा दक्षिण के मुगल प्रांतों में अधिक विस्तार हुआ था। उत्तरी भारत के प्रांतों में भी माप किए हुए क्षेत्र का विस्तार औरंगजेब (1659-1707) के अधीन, आइने अकबरी (1595) में लिखित क्षेत्र से काफी अधिक हुआ। मुगल साम्राज्य के पतन के साथ यह पद्धति, जिसको केंद्रित शासन के लिए बढ़ावा दिया गया था, या तो त्याग दी गई या परिवर्तित कर दी गई। परंतु कुछ समय पूर्व तक पंजाब और उत्तर प्रदेश में 'जब्ती लगान' की प्रथा थी, जो कुछ फसलों पर आराजी के आधार पर नकद में वसूल होता था। | [[शेरशाह]] ने ज़ब्त पद्धति को, मुल्तान और कदाचित [[बंगाल]] को छोड़कर अपने संपूर्ण साम्राज्य में लागू किया था। [[अकबर]] के अधीन जब्त क्षेत्र का और अधिक विकास हुआ, यद्यपि यह संदेहजनक है कि [[दिल्ली]] और प्रांतों के बाहर विस्तृत खेतिहर भूमि की नाप तथा निर्धारण हुआ हो। मोरलैंड की विचारधारा के प्रतिकूल 17वीं शताब्दी में जब्त पद्धति का ह्रास नहीं हुआ। वास्तव में, इसका मुर्शीद कुली खां (1652-58) के द्वारा दक्षिण के मुगल प्रांतों में अधिक विस्तार हुआ था। उत्तरी भारत के प्रांतों में भी माप किए हुए क्षेत्र का विस्तार औरंगजेब (1659-1707) के अधीन, आइने अकबरी (1595) में लिखित क्षेत्र से काफी अधिक हुआ। मुगल साम्राज्य के पतन के साथ यह पद्धति, जिसको केंद्रित शासन के लिए बढ़ावा दिया गया था, या तो त्याग दी गई या परिवर्तित कर दी गई। परंतु कुछ समय पूर्व तक [[पंजाब]] और [[उत्तर प्रदेश]] में 'जब्ती लगान' की प्रथा थी, जो कुछ फसलों पर आराजी के आधार पर नकद में वसूल होता था। | ||
०५:४९, १ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण
जब्ती
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4 |
पृष्ठ संख्या | 387 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | राम प्रसाद त्रिपाठी |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | इरफान हबीब |
ज़ब्त, ज़ब्ती भूमि राजस्व के निर्धारण की एक पद्धति। माप पर आधारित, भारत में सूरों और मुगलों के अधीन प्रचलित। साधाणत: ज़ब्त, परंतु कभी-कभी ज़ब्ती तथा जरीब या 'अमल-ए-जरीब' कहलाती थी। अबुल फज़ल के अनुसार सूर राजा शेरशाह (1540-45) और इस्लाम शाह (1545-54) इस पद्धति को प्रचलित कराने के लिए उत्तरदायी थे। इसकी जो प्रमुख विशेषता थी, अन्य पद्धतियों (प्राचीन पद्धतियों) से भिन्न, जो माप पर आधारित थी अर्थात् 'कनकूत' प्रति बीघा फसलों की दर (रयी) पूर्व से ही निर्धारित हो जाती थी न कि फसल की कटाई के समय। वास्तविक भूमि राजस्व की दर (रयी) की 1/3 (एक तिहाई) थी, और यह नियम नापी हुई भूमि पर राजस्व प्राप्ति के लिए लागू किया जाता था। वह राजस्व पहले जिंस में ही लिया जाता था, तदुपरांत तत्कालीन मूल्यों के आधार पर नकद में परिवर्तित कर दिया जाता था। परिवर्तन वास्तव में भ्रष्टाचार एवं अयोग्यता का स्रोत था। अस्तु, अकबर (1556-1605) ने भूमि राजस्व को नकद में ही निर्धारित कराया। उपज तथा तत्कालीन दस वर्षों (1571-81) के प्रचलित मूल्य दरों का विस्तृत निरीक्षण करने के पश्चात् नकद [[[भूमि]] राजस्व (दस्तूर, दस्तूर-उल-अमल) प्रति बीघा विभिन्न फसलों के लिए प्रत्येक क्षेत्र (परगनों का संघ) में निर्धारित होता था। ज़ब्त में भूमि राजस्व, बोई हुई आराजी दस्तूर से गुणा करके नकद निर्धारित होता था। दस्तूर जिनमें समय समय पर परिवर्तन होता था, प्राय: प्रति वर्ष उपज और मूल्यों की दरों को देखे बिना लागू होता था। दैवी विपत्ति पड़ने पर माँग में कटौती, बिना दस्तूर में परिवर्तन के आपत्तिग्रस्त क्षेत्र (नाबुद) को आराजी में से घटाकर किया जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि वास्तव में, भूमि की पैमाइश प्रत्येक वर्ष नहीं होती थी, बल्कि पूर्व वर्षों की संख्याओं को ही, स्वेच्छा से परिवर्तन कर, ग्रहण कर लेते थे। पैमाइश केवल तभी होती थी जब कि किसान अथवा अधिकारी पहले की पैमाइश से संतुष्ट न हो, अगर वह वर्तमान उपज पर आधारित न रही हो (दे. 'नसक')।
शेरशाह ने ज़ब्त पद्धति को, मुल्तान और कदाचित बंगाल को छोड़कर अपने संपूर्ण साम्राज्य में लागू किया था। अकबर के अधीन जब्त क्षेत्र का और अधिक विकास हुआ, यद्यपि यह संदेहजनक है कि दिल्ली और प्रांतों के बाहर विस्तृत खेतिहर भूमि की नाप तथा निर्धारण हुआ हो। मोरलैंड की विचारधारा के प्रतिकूल 17वीं शताब्दी में जब्त पद्धति का ह्रास नहीं हुआ। वास्तव में, इसका मुर्शीद कुली खां (1652-58) के द्वारा दक्षिण के मुगल प्रांतों में अधिक विस्तार हुआ था। उत्तरी भारत के प्रांतों में भी माप किए हुए क्षेत्र का विस्तार औरंगजेब (1659-1707) के अधीन, आइने अकबरी (1595) में लिखित क्षेत्र से काफी अधिक हुआ। मुगल साम्राज्य के पतन के साथ यह पद्धति, जिसको केंद्रित शासन के लिए बढ़ावा दिया गया था, या तो त्याग दी गई या परिवर्तित कर दी गई। परंतु कुछ समय पूर्व तक पंजाब और उत्तर प्रदेश में 'जब्ती लगान' की प्रथा थी, जो कुछ फसलों पर आराजी के आधार पर नकद में वसूल होता था।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संदर्भ ग्रंथ- डब्ल्यू. एच. मोरलैंड : दी ऐग्रेरियन सिस्टम ऑव मुस्लिम इंडिया, इलाहाबाद, कापी पृष्ठ, 74.150, इरफान हवीब : दी ऐग्रेरियन सिस्टम ऑव मुगल इंडिया' (1556-1707), बंबई , 1963, पृष्ठ 200.215, 219-230।