"महाभारत विराट पर्व अध्याय 26 श्लोक 1-18" के अवतरणों में अंतर
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०६:०९, २ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण
षड्विंश (26) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)
दुर्योधन का सभासदों से पाण्डवों का पता लगाने के लिये परामर्श तथा इस विषय में कर्ण और दुःशासन की सम्मति
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! तदनन्तर राजा दुर्योधन उस समय दूतों की बात पर विचार करके बहुत देर तक मन-ही-मन कुछ सोचता रहा। उसके बाद उसने सभासदों से कहा- ‘कार्यों के अन्तिम परिणामों को ठीक-ठीक समरू लेना अत्यनत कठिन है; अतः आप सब लोग इस बात को समझें कि पाण्डव कहाँ चले गये ? ‘ इस तेरहवें वर्ष में पाण्डवों के अज्ञातवास का अधिकांश समय बीत चुका है और थोड़े ही दिन शेष हैं। ‘यदि शेष समय भी पाण्डव इसी प्रकार यहाँ व्यतीत कर लें, तो वे प्रतिज्ञापालन के भार से मुक्त हो जायेंगे। फिर तो वे सत्यव्रती पाण्उव मद की धारा बहाने वाले गजराजों और विषधर सर्पों के समान क्रोध में भरकर निश्चय ही कौरवों के लिये दुःखदायी हो जायँगे। ‘वे सब समय की नियत अवधि को जानते हैं; अतः कहीं ऐसा वेष धारण करके छिपे होंगे, जिससे उन्हें पहचानना कठिन हो गया है, इसलिये आप लोग शीघ्र उका पता लगाने की चेष्टा करें, जिससे वे क्रोध को दबाकर उतने ही समय के लिये अर्थात् बारह वर्षों के लिये वन में चले जायँ। ऐसा होने पर ही मेरा यह राज्य दीर्घकाल तक के लिये निद्र्वन्द्व, व्यग्रताशून्य तथा निष्कण्टक हो जायेगा’। यह सुनकर कर्ण ने कहा- ‘भरतनन्दन ! तब शीघ्र ही दूसरे कार्यकुशल गुप्तचर भेजें जायँ, जो धूर्त होने के साथ ही छिपे रहकर अपना कार्य अच्छी तरह कर सकें। ‘वे गुप्तरूप से धन-धान्य सम्पन्न एवं जनसमुदाय से भरे हुए देशों में जायँ और वहाँ सुरम्य सभाओं में, सिद्ध संन्यासी महात्माओं के आश्रम में, राजनगरों में, नाना प्रकार के तीर्थों में औ सर्वोत्तम स्थानों में, वहाँ निवास करने वाले मनुष्यों से विनयपूर्ण युक्ति से पूछकर उनका पता लगावें। ‘पाण्डव छिपकर किसी गुप्त स्थान मे निवास करते होंगे; अतः जो कार्यसाधन में तत्पर, उन्हें अच्छी तरह पहचानने वाले, बुद्धिमानी से स्वयं भी छिपकर कार्य करने वाले और अत्यनत कुशल हों, ऐसे अनेक गुप्तचर नदी-तटवर्ती कुओं, तीर्थों, गाँवों, नगरों, रमणीय आश्रमों, पर्वतों तथा गुफाओं मेंजा-जाकर उनकी खोज करें’। तदनन्तर सदा पापभावना में अनुरक्त रहने वाला दुर्योधन से छोटा भाई दुःशासन अपने बड़े भाई से बोला- राजन् ! नरेश्वा ! जिन गुप्तचरों पर हमारा अणिक विश्वास हो, उन्हें देने योग्य सब साधन देकर पुनः पाण्डवों की खोज के लिये भेजा जाय। ‘कर्ण ने जो बात कही है, वह सब हम करें। इनके बताये हुए स्थानों में जहाँ-तहाँ घूमकर सभी गुपतचर उनका पता लगायें’। ‘ये तथा और भी बहुत से लोग एक देश से दूसरे देश में विधिपूर्वक खोज करें। अभी तक तो पाण्डवों के गन्तव्य स्थान, निवास तथा प्रवृत्ति का कुछ भी पता नहीं लग रहा है। ‘या तो वे अधिक गुप्त स्थानों में छिपे है या समुद्र के उस पास चले गये हैं। यह भी सम्भव हैं कि अपने को शूरवीर मानने वाले पाण्डव ों को उस महान् वन में अजगर निगल गये हों। ‘अथवा वे किसी विषम परिस्थिति में पड़कर सदा के लिये नष्ट हो गये हों। अतः कुरुनन्दन ! मुनेश्वर ! आप अपने चित्त को स्वस्थ करके जो ठीक समझ में आये, वह कार्य पूर्ण उत्साह के साथ करें’।
इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत गोहरणपर्व में कर्ण और दुःशासन के वचन विषयक छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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