"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 352 श्लोक 1-11": अवतरणों में अंतर
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== | ==द्विपञ्चाशदधिकत्रिशततम (352) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)== | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: द्विपञ्चाशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
नारद के द्वारा इन्द्र को उन्छवृत्ति वाले ब्राह्मण की कथा सुनाने का उपक्रम | नारद के द्वारा इन्द्र को उन्छवृत्ति वाले ब्राह्मण की कथा सुनाने का उपक्रम | ||
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत शानितपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में उन्छवृत्ति का उपाख्यान विषयक तीन सौ बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत शानितपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में उन्छवृत्ति का उपाख्यान विषयक तीन सौ बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div> | ||
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 351 श्लोक 16-23|अगला=महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 353 श्लोक 1-9}} | |||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== |
०५:२९, ३ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण
द्विपञ्चाशदधिकत्रिशततम (352) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
नारद के द्वारा इन्द्र को उन्छवृत्ति वाले ब्राह्मण की कथा सुनाने का उपक्रम
युधिष्ठिर ने कहा - पितामह ! आपके बतलाये हुए कल्याणमय मोक्ष सम्बन्धी धर्मों का मैंने श्रवण किया। अब आप आश्रमधर्मों का पालन करने वाले मनुष्यों के लिये जो सबसे उत्तम धर्म हो, उसका उपदेश करें।
भीष्मजी ने कहा - राजन् ! सभी आश्रमों में स्वधर्मपालन का विधान है, सबमें स्वर्ग का तथा महान् सत्यफल- मोक्ष का भी साधन है। धर्म के यज्ञ, दान, तप आदि बहुत से द्वार हैं; अतः इस जगत् में धर्म की कोई भी क्रिया निष्फल नहीं होती। भरतश्रेष्ठ ! जो-जो मनुष्य जिस-जिस विषय स्वर्ग या मोक्ष के लिये साधन करके उसमें सुनिश्चित सफलता को प्राप्त कर लेता है, उसी साधन या धर्म को वह श्रेष्ठ समझता है, देसरे को नहीं। पुरुषसिंह ! इस विषय में मैं तुम्हें एक कथा सुना रहा हूँ, उसे सुनो। पूर्वकाल में महर्षि नारद ने इन्द्र को यह कथा सुनायी थी। राजन् ! महर्षि नारद तीनों लोकों द्वारा सम्मानित सिद्ध पुरुष हैं। वायु के समान उनकी सर्वत्र अबाधित गति है। वे क्रमशः सभी लोकों में घूमते रहते हैं। महाधनुर्धर नरेश ! एक समय वे नारदजी देवराज इन्द्र के यहाँ पधारे। इन्द्र ने उन्हें अपने समीप ही बिठाकर उनका बड़ा आदर-सत्कार किया। जब नारदजी थोड़ी देर बैइकर विश्राम ले चुके, तब शचीपति इन्द्र ने पूछा- ‘निष्पाप महर्षे ! इधर आपने कोई आश्चर्यजनक घटना देखी है क्या ? ‘ब्रह्मर्षे ! आप सिद्ध पुरुष हैं और कौतूहलवश चराचर प्राणियों से युक्त तीनों लोकों में सदा साक्षी की भाँति विचरते पहते हैं। ‘देवर्षे ! जगत् में कोई भी ऐसी बात नहीं है, जो आपको ज्ञात न हो। यदि आपने कोई अद्भुत बात देखी हो, सुनी हो अथवा अनुभव की हो तो वह मुझे बताइये’। राजन् ! उनके इस प्रकार पूछने पर वक्ताओं में रेष्ठ नारदजी ने अपने पास बैइे हुए सुरेन्द्र को एक विस्तृत कथा सुनायी। इन्द्र के पूछने पर द्विजश्रेष्ठ नारद ने उन्हें जैसे और जिस ढंग से वह कथा कही थी, वैसे ही मैं भी कहूँगा। तुम तो मेरी कही हुई उस कथा को ध्यान देकर सुनो।।
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