"महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-58": अवतरणों में अंतर
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द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)
श्रीभगवान ने कहा- राजन ! द्वादशी तिथि को, विषुव पर्व में, चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण के समय, उत्तरायण तथा दक्षिणायन के आरम्भ के दिन,श्रवण-नक्षत्र में तथा व्यतीपात योग में पीपल का या दर्शन होने पर मेरी गायत्री का अथवा अष्टाक्षर मंत्र (ऊं नमो नारायण)- का जप करना चाहिये । ऐसा करने से मनुष्य के पूर्वकृत् पापों का नि:संदेह नाश हो जाता है। युधिष्ठिर ने पूछा- देव ! अब यह बतलाइये कि पीपल का दर्शन आपके दर्शन के समान क्यों माना जाता है। इसे सुनने के लिये मेरे मन में बड़ी उत्कण्ठा है। श्रीभगवान ने कहा- राजन् ! मैं ही पीपल के वृक्ष के रूप में रहकर तीनों लोकों का पालन करता हूं । जहां पीपल का वृक्ष नहीं है, वहां मेरा वास नहीं है। राजन् ! जहां में रहता हूं, वहां पीपल भी रहता है । जो मनुष्य भक्ति भाव से पीपल-वृक्ष की पूजा करता है, वह साक्षात मेरी ही पूजा करता है। जो क्रोध करके पीपल पर प्रहार करताहै, वह वास्तव में मुझ पर ही प्रहार करता है । इसलिये पीपल की सदा प्रदशिक्षणा करनी चाहिये, उसको काटना नहीं चाहिये। व्रत का पारण, सरलता, देवताओं की सेवा और गुरुशुश्रूषा- ये सब तीर्थ कहे जाते गये हैं। माता-पिता, स्त्रियों को संतुष्ट रखना और गृहस्थ-धर्म का पालन करना- ये सब तीर्थ कहे गये हैं। अतिथि-सेवा में लगे रहना परम तीर्थ है। वेद का अध्ययन सनातन तीर्थ है । ब्रह्मचर्य का पालन करना परम तीर्थ है । आहवनीययादि तीन प्रकार की अग्नियां- ये तीर्थ कहे जाते हैं। कुन्तीनन्दन ! इन सबका मूल है ‘धर्म’- ऐसा जानकर इनमें मन लगाओ तथा तीर्थों में जाओ; क्योंकि धर्म करने से धर्म की वृद्धि होती है । दो प्रकार के तीर्थ बताये जाते हैं- स्थावर और जंगम । स्थावार तीर्थ से जंगम तीर्थ श्रेष्ठ है; क्योंकि उससे ज्ञान की प्राप्ति होती है। भारत ! इस लोक में पुण्य कर्म के अनुष्ठान से विशुद्ध हुए पुरुष के हृदय में सब तीर्थ वास करते हैं, इसलिये वह तीर्थस्वरूप कहलाता है। गुरु रूपी तीर्थ से परमात्मा का ज्ञान प्राप्त होता है, इसलिये उससे बढ़कर कोई तीर्थ नहीं है । ज्ञानतीर्थ सर्वश्रेष्ठ तीर्थ है और ब्रह्मतीर्थ सनातन है। पाएडुन्नदन ! समस्त तीर्थों में भी क्षमा सबसे बड़ा तीर्थ है । क्षमाशील मनुष्यों को इस लोक और परलोक में भी सुख मिलता है। कोई मान करे या अपमान, पूजा करे या तिरस्कार, अथवा गाली दे या डांट बतावे, इन सभी परिस्थितियों में जो क्षमाशील बना रहता है, वह तीर्थ कहलाता है। क्षमा ही यश, दान, यज्ञ और मनोनिग्रह है । अहिंसा, धर्म और इन्द्रियों का संयम क्षमा के ही स्वरूप हैं। क्षमा ही दया और क्षमा ही यज्ञ है । क्षमा से ही सारा जगत टिका हुआ है; अत: जो ब्राह्मण क्षमावान है, वह देवता कहलाता है, वही सबसे श्रेष्ठ है। क्षमाशील मनुष्य को स्वर्ग, यश और मोक्ष की प्राप्ति होती है; इसलिये क्षमावान पुरुष साधु कहलाता है। राजन् ! आत्मारूप नदी परम पावन तीर्थ है, यह सब तीर्थों में प्रधान है । आत्मा को सदा यज्ञरूप माना गया है । स्वर्ग, मोक्ष- सब आत्मा के ही अधीन है। जो सदाचार के पालन से अत्यन्त निमर्ल हो गया है तथा सत्य और क्षमा के द्वारा जिसमें अतुलनीय शीतलता आ गयी हैं- ऐसे ज्ञानरूपी जल में निरन्तर स्नान करने वाले पुरुष को केवल पानी से भरे हुए तीर्थ की क्या आवश्यकता है?
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