"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 49 श्लोक 21-41" के अवतरणों में अंतर

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उनचासवाँ अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)

महाभारत: शान्तिपर्व : उनचासवाँ अध्याय: श्लोक 33-63 का हिन्दी अनुवाद

परशुरामजी ने गन्धमादन पर्वत पर महादेव जी को संतुष्ट करके उनसे अनेक प्रकार के अस्त्र और अत्यन्त तेजस्वी कुठार प्राप्त किये। उस कुठार की धार कभी कुण्ठित नहीं होती थीं। वह जलती हुई आग के समान उद्दीप्त दिखायी देता था। उस अप्रमेय शक्तिशाली कुठार के कारण परशुरामजी सम्पूर्ण लोकों में अप्रतिम वीर हो गये। इसी समय राजा कृतवीर्य का बलवान पुत्र अर्जुन हैहयवश्ं का राजा हुआ, जो एक तेजस्वी क्षत्रिय था। दत्तात्रेयजी की कृपा से राजा अर्जुन ने एक हजार भुजाएँ प्राप्त की थीं। वह महातेजस्वी चक्रवर्ती नरेश था। उस परम धर्मज्ञ नरेश ने अपने बाहुबल से पर्वतों और द्वीपों सहित इस सम्पूर्ण पृथ्वी को युद्ध में जीतकर अश्वमेध यज्ञ में ब्राह्मणों को दान कर दिया था। कुन्तीनन्दन! एक समय भूखे-प्यासे हुए अग्निदेव ने पराक्रमी सहस्त्रबाहु अर्जुन से भिक्षा माँगी और अर्जुन ने अग्नि को वह भिक्षा दे दी। तत्पश्चात् बलशाली अग्निदेव कार्तवीर्य अर्जुन के बाणों के अग्रभाग से गाँवों, गोष्ठों, नगरों और राष्ट्रों को भस्म कर डालने की इच्छा से प्रज्वलित हो उठे। उन्होंने उस महापराक्रमी नरेश कार्तवीर्य के प्रभाव से पर्वतों और वनस्पतियों को जलाना आरम्भ किया। हवा का सहारा पाकर उत्तरोत्तर प्रज्वलित होते हुए अग्निदेव ने हैहयराज को साथ लेकर महात्मा आपव के सूने एवं सुरम्य आश्रम को जलाकर भस्म कर दिया। महाबाहु अच्युत ! कार्तवीर्य के द्वारा अपने आश्रम के जला दिये जाने पर शक्तिशाली आपव मुनि को बडा रोष हुआ। उन्होंने कृतवीर्य पुत्र अर्जुन को शाप देते हुए कहा। अर्जुन! तुमने मेरे इस विशाल वन को भी जलाये बिना नहीं छोडा, इसलिये संग्राम में तुम्हारी इन भुजाओं को परशुराम जी काट डालेंगे। भारत !अर्जुन महातेजस्वी, बलवान, नित्य शान्ति परायण, ब्राह्मण भक्त शरणागतों को शरण देने वाला, दानी और शूरवीर था। अतः उसने उस समय उनम महात्मा के दिये हुए शाप पर कोई ध्यान नहीं दिया। शापवश उसके बलवान पुत्र ही पिता के वध में कारण बन गये। भरतश्रेष्ठ !उस शाप के कारण सदा क्रूरकर्म करने वाले वे घमंडी राजकुमार एक दिन जमदग्नि मुनि की होमधेनु के बछडे को चुरा ले आये। उस बछडे के लाये जाने की बात बुद्धिमान हैहयराज कार्तवीर्य को मालूम नहीं थी, तथापि उसी के लिये महात्मा परशुराम का उसके साथ घोर युद्ध छिड गया। राजेन्द्र! तब रोष में भरे हुए प्रभावशाली जमदग्निनन्दन परशुराम ने अर्जुन की उन भुजाओं को काट डाला और इधर-उधर घूमते हुए उस बछडे को वे हैहयों के अन्तः पुरसे निकालकर अपने आश्रम में ले आये। नरेश्वर! अर्जुन के पुत्र बुद्धिहीन और मुर्ख थे। उन्होंने संगठित हो महात्मा जगदग्नि के आश्रम पर जाकर भल्लों के अग्रभाग से उनके मस्तक को धड से काट गिराया। उस समय यशस्वी परशुरामजी समिधा और कुशा लाने के लिये आश्रम से दूर चले गये थे। पिता के इस प्रकार मारे जाने से परशुराम के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने इस पृथ्वी को क्षत्रियों से सूनी कर देने की भीष्म प्रतिज्ञा करके हथियार उठाया। भृगुकुल के सिंह पराक्रमी परशुराम ने सहस्त्रों हैहयों का वध करके इस पृथ्वी पर रक्त की कीच मचा दी। इस प्रकार शीघ्र ही पृथ्वी को क्षत्रियों से हीन करके महातेजस्वी परशुराम अत्यन्त दया से द्रवित हो वन में ही चले गये। तदनन्तर कई हजार वर्ष बीत जाने पर एक दिन वहाँ स्वभावतः क्रोधी परशुराम पर आक्षेप किया गया। महाराज ! विश्वामित्र के पौत्र तथा रैभ्य के पुत्र महातेजस्वी परावसु ने भरी सभा में आक्षेप करते हुए कहा- राम ! राजा ययाति के स्वर्ग से गिरने के समय जो प्रतर्दन आदि सज्जन पुरूष यज्ञ में एकत्र हुए थे, क्या वे क्षत्रिय नहीं थे? तुम्हारी प्रतिज्ञा झूठी है। तुम व्यर्थ ही जनता की सभा में डींग हाँका करते हो कि मैंने क्षत्रियों का अन्त कर दिया। मैं तो समझता हूँ कि तुमने क्षत्रिय वीरों के भय से ही पर्वत की शरण ली है। इस समय पृथ्वी पर सब और पुनः सैकडों क्षत्रिय भर गये है। राजन् ! परावसु की बात सुनकर भृगुवंशी परशुराम ने पुनः शस्त्र उठा लिया। पहले उन्होंने जिन सैकडों क्षत्रियों को छोड दिया था, वे ही बढकर महापराक्रमी भूपाल बन बैठे थे। नरेश्वर ! उन्होंने पुनः उन सबके छोटे छोटे बच्चों तक को शीघ्र ही मार डाला। जो बच्चे गर्भ में रह गये थे, उन्हीं से पुनः यह सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी। परशुरामजी एक एक गर्भ के उत्पन्न होने पर पुनः उसका वध कर डालते थे। उस समय क्षत्राणियाँ कुछ ही पुत्रों को बचा सकी थी। इस प्रकार शक्तिशाली परशुरामजी ने इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से हीन करके अश्वमेध यज्ञ किया और उसकी समाप्ति होने पर दक्षिणा के रूप् में यह सारी पृथ्वी उन्होंने कश्यपजी को दे दी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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