"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 220 भाग 5": अवतरणों में अंतर
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विंशत्यधिकद्विशततम (220) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
श्वेतकेतु ने कहा – शब्द और अर्थ में एक प्रकार से कोई नियत सम्बन्ध नहीं है । कमल के पत्ते पर स्थित जल की भाँति शब्द एवं अर्थ का अनियत सम्बन्ध है, ऐसा जानो। सुवर्चला बोली – महाप्राज्ञ ! अर्थपर ही शब्द की स्थिति है, अन्यथा उसकी स्थिति नहीं हो सकती। साधु शिरोमणे ! यदि बिना अर्थ का कोई शब्द हो तो उसे बताइये। श्वेतकेतु ने कहा – अर्थ के साथ शब्दका वाचकत्वरूप सम्बन्ध है और वह सम्बन्ध नित्य है । यदि शब्द है तो उसका अर्थ भी सदा है ही। विपरीत क्रम से उच्चारण करनेपर भी शब्द का कुछ-न-कुछ अर्थ होता ही है (जैसे नदी, दीन इत्यादि)। सुवर्चला बोली –शब्द अर्थात् वेद का आधार है अर्थभूत परमात्मा ।ऐसा ही विद्वानों ने कहा है और यही मेरा भी मत है । उस अर्थ का आधार लिये बिना तो शब्द टिक ही नहीं सकता ।परंतु आप तो इनमें कोई नियत सम्बन्ध ही नहीं मानते हैं, अत: आपका कथन प्रसिद्धि के विपरीत है। श्वेतकेतु ने कहा – मैंने प्रसिद्धि के विपरीत कुछ नहीं कहा है । देखों, आकाश के बिना पृथ्वी अथवा पार्थिव जगत् टिक नहीं सकता तथापि इनमें कोई नित्य सम्बन्ध नहीं है । शब्द और अर्थ का सम्बन्ध भी वैसा ही मानना चाहिये। सुवर्चला बोली – यह ‘अहम्’ शब्द सदा ही आत्मा के अर्थ में स्पष्टरूप से प्रयुक्त होता है; परंतु ‘यतो वाचो निवर्तन्ते’ इस श्रुति के अनुसार वहॉ वाणीकी पहॅुच नहीं है; अत: आत्मा के लिये ‘अहम्’ पद का प्रयोगभी मिथ्या ही होगा। श्वेतकेतु ने कहा – शुभव्रते ! अहम् शब्द का आत्म भाव में प्रयोग नहीं होता; किंतु अहम् भाव का ही आत्म भाव मे प्रयोग होता है; क्योकि सगुण पदार्थ के बोधक वचन अचिन्त्य परब्रह्रा परमात्मा का बोध कराने में असमर्थ हैं। जैसे मिट्टी के घड़े में मृत्ति का भाव-भाव होता है, उसी प्रकार परमात्मा से उत्पन्न हुए प्रत्येक पदार्थ में परमात्मभाव अभीष्ट है; अतएव अचिन्त्य परब्रह्रा परमात्मा में अहम् भाव ही आत्मभाव है और वही यथार्थ है। ‘मैं’ ‘तुम’ और ‘यह‘ ये सब नाम परब्रह्रा परमात्मा में हमलोगों द्वारा कल्पित है (वास्तविक नहीं है), अत: ‘उस परमात्मा तक वाणी की पहॅुच नहीं हो पाती’ श्रुति के इस कथन से कोई विरोध नहीं है। अतएव भीरू ! मनुष्य भ्रान्तचित्त द्वारा ही अहम् आदि पदों का प्रयोग करता है । जैसे आकाशमें स्थित सम्पूर्ण विश्व उसमें सटा हुआ सा दीखता है, उसी प्रकार परमात्मा में स्थित हुआ सारा दृश्य प्रपंच उससे जुड़ा हुआ सा जान पड़ता है। ब्रह्रा के साथ जगत् का जो सम्बन्ध है, उसी सम्बन्ध से यह उसी का कार्य जान पड़ता है। जैसे सारा जगत् आकाश से पृथक् है तो भी उसके विकारों से सम्बन्ध होने के कारण सदा उससे मिश्रित ही रहता है, उसी प्रकार जगत् से ब्रह्रा का कोई सम्पर्क नहीं है तो भी यह उसी से उत्पन्न होने के कारण तद् रूप माना जाता है। वह ब्रह्रा परम शुद्ध और उपमारहित है; अत: वाणी द्वारा उसका वर्णन नहीं किया ज सकता । इन चर्मचक्षुओं से उसको नही देखा जा सकता है तथा ज्ञानदृष्टि से उसका साक्षात्कार होता है, ऐसा मेरा मत है। सुवर्चला बोली – तब तो यह मानना होगा कि जिस प्रकार निर्विकार, निराकार,नि:सीम और सर्वव्यापी आकाश का सर्वदा ही दर्शन होता है, उसी के समान ज्ञानस्वरूप आत्मा का भी दर्शन होता है।
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