"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 52 श्लोक 1-20" के अवतरणों में अंतर

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बावनवाँ अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: बावनवाँ अध्याय: श्लोक 1-39 का हिन्दी अनुवाद

राजा कुशिक और उनकी रानी के द्वारा महर्षि च्यवन की सेवा युधिष्ठिर ने पूछा- महाबाहो। मेरे मन में एक महासागर के समान महान संदेह हो गया है। महाप्राज्ञ। उसे सुनिये और सुनकर उसकी व्याख्या कीजिये। प्रभो। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ जमदग्निनन्दन परशुरामजी के विषय में मेरा कौतुहल बढ़ाहुआ है; अतःआप मेरे प्रश्‍न का विशद विवेचन किजिये। ये सत्यपराक्रमी परशुरामजी कैसे उत्पन्न हुए? ब्रह्मर्षियों का यह वंश क्षत्रिय धर्म से सम्पन्न कैसे हो गया? अतः राजन। आप परशुरामजी की उत्पत्ति का प्रसंग पूर्ण रूप से बताईये। राजा कुशिक का वंश तो क्षत्रिय था, उससे ब्राह्माण जाति की उत्पत्ति कैसे हुई? पुरूष सिंह। महात्मा परशुराम और विश्‍वामित्र का महान प्रभाव अदभुत था। राजा कुशिक और महर्षि ऋचिक- ये ही अपने-अपने वंश के प्रवर्तक थे। उनके पुत्र गाधि और जमदग्नि को लांघकर उनके पौत्र विश्‍वामित्र और परशुराम में ही यह विजातीयता का दोष क्यों आया? इसमें जो यथार्थ कारण हो, उसकी व्याख्या कीजिये ।भीष्मजी ने कहा- भारत। इस विषय में महर्षि च्यवन और राजा कुशिक के संवाद रूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। पूर्वकाल में भृगुपुत्र च्यवन को यह बात मालूम हुई कि हमारे वंश में कुशिक वंश की कन्या के सम्बन्ध से क्षत्रियत्व का महान दोष आने वाला है। यह जानकर उन परम बुद्विमान मुनिश्रेष्ठ ने मन-ही-मन सारे गुण-दोष और बलाबल का विचार किया। तत्पश्‍चातकृषिकों के समस्त कुल को भस्‍म कर डालने की इच्छा से तपोधन च्यवन राजा कुशिक के पास गये और इस प्रकार बाले- ‘निष्पाप नरेश। मेरे मन में कुछ काल तक तुम्हारे साथ रहने की इच्छा हुई है’।कुशिक ने कहा- भगवन। यह अतिथि सेवा रूप सहधर्म विद्वान पुरूष यहां सदा धारण करते हैं और कन्याओं के प्रदान काल अर्थात कन्या के विवाह के समय में यहां पण्डित जन इसका उपदेश देते हैं। तपोधन अब तक तो इस धर्म के मार्ग का पालन नहीं हुआ और समय निकल गया, परन्तु अब आपके सहयोग और कृपा से इसका पालन करूंगा। अतः आप मुझे आज्ञा पालन करें कि मैं आपकी क्या सेवा करूं।।इतना कहकर राजा कुशिक ने महामुनि च्यवन को बैठने के लिये आसन दिया और स्‍वयं अपनी पत्नि के साथ उस स्थान पर आये, जहां वे मुनि विराजमान थे। राजा ने स्वयं गडुआ हाथ में लेकर मुनि को पैर धोने के लिये जल निवेदन किया। इसके बाद महात्मा को अर्ध्‍यआदि देने की सम्पूर्ण क्रियाएं पूर्ण करायीं। इसके बाद नियमतः व्रत पालन करने वाले महामनस्वी राजा कुशिक ने शांत भाव से च्यवन मुनि को विधिपूर्वक मधुपर्क भोजन कराया ।इस प्रकार उन ब्रह्मर्षि का यथावत सत्कार करके वे फिर उनसे बोले- भगवन। हम दोनों पति-पत्नि अपके अधीन हैं। बताईये हम आपकी क्या सेवा करें। ‘कठोर व्रत कर पालन करने वाले महर्षि। यदि आप राज्य, धन, गौ एवं यज्ञ के निमित्त दान लेना चाहते हो तो बतावें। वह सब मैं आपको दे सकता हूं। यह राजभवन, यह राज्य और यह धर्मानुकूल राज्य सिंहासन सब आपका है। आप ही राजा हैं, इस पृथ्वी का पालन कीजिये। मैं तो सदा आपकी आज्ञा के अधीन रहने वाला सेवक हूं’।उनके ऐसा कहने पर भृगु पुत्र च्यवन मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए और कुशिक से इस प्रकार बोले-‘राजन। न मैं राज्य चाहता हूं न धन। न युवतियों की इच्छा रखता हूं न गौओं, देशों और यज्ञ की ही। आप मेरी यह बात सुनिये। ‘यदि आप लोगों को जंचे तो मैं एक नियम लागू करूंगा। उसमें आप दोनों पति-पत्नि को सर्वथा सावधान रहकर बिना किसी हिचक के मेरी सेवा करनी होगी। मुनि की यह बात सुनकर राज दम्पति को बड़ा हर्ष हुआ। भारत। उन दोनों ने उन्हें उत्तर दिया, ‘बहुत अच्छा, हम आपकी सेवा करेंगे’ । तदन्तर राजा कुशिक महर्षि च्यवन को बड़े आनन्द के साथ अपने सुन्दर महल के भीतर ले गये। वहां उन्होंने मुनि को एक सजा-सजाया कमरा दिखाया, जो देखने योग्य था । उस घर को दिखाकर वे बोले- ‘तपोधन। यह आपके लिये शैय्या बिछी हुई है। आप इच्छानुसार यहां आराम कीजिये। हम लोग आपको प्रसन्न रखने का प्रयत्न करेंगे’ । इस प्रकार उनमें बाते होते-होते सूर्यास्त हो गया। तब महर्षि ने राजा को अन्न और जल ले आने की आज्ञा दी ।उस समय राजा कुशिक ने उनके चरणों में प्रणाम करके पूछा-‘महर्षे। आपको कौन-सा भोजन अभीष्ट है? आपकी सेवा में क्या-क्या सामान लाऊं?’ । भरतनन्दन। यह सुनकर वे बड़ी प्रसन्नता के साथ राजा से बोले- ‘तुम्हारे यहां जो भोजन तैयार हो, वही ला दो’। नरेश्‍वर। मुनि ने उस कथन का आदर करते हुए ‘जो आज्ञा’ कहकर गये और जो भोजन तैयार था, उसे लाकर उन्होंने मुनि के सामने प्रस्तुत कर दिया । प्रभो।तदनन्तर भोजन करके धर्मज्ञ भगवान च्यवन ने राजदम्पत्ति से कहा- ‘अब मैं सोना चाहता हूं मुझे नींद सता रही है’ । इसके बाद मुनिश्रेष्ठ भगवान च्यवन शयनागार में जाकर सो गये और पत्नि सहित राजा कुशिक उनकी सेवा में खड़े रहे । उस समय भृगु पुत्र ने उन दोनों से कहा- तुम लोग सोते समय मुझे जगाना मत। मेरे दोनों पैर दबाते रहना और स्‍वयं भी निरन्तर जागते रहना । धर्मज्ञ राज कुशिक ने निःशंक होकर कहा, ‘बहुत अच्छा’। रात बीता, सबेरा हुआ, किंतु उन पति-पत्नि ने मुनि को जगाया नहीं । महाराज। वे दोनों दम्पत्ति मन और इन्द्रियों को वश में करके महर्षि की आज्ञा आज्ञानुसार उनकी सेवा में लगे रहे । उधर ब्रह्मर्षि भगवान च्यवन राजा को सेवा का आदेश देकर इक्कीस दिनों तक एक ही करवट से सोते रह गये । कुरूनन्दन। राजा और रानी बिना कुछ खाये-पीये हर्ष पूर्वक महर्षि की उपासना और आराधना में लगे रहे।बाईसवें दिन तपस्या के धनी महातपस्वी च्यवन अपने आप उठे और राजा से कुछ कहे बिना ही महल से बाहर निकल गये। राजा-रानी भूख से पीड़ितऔर परिश्रम से दुर्वल हो गये थे। तो भी वे मुनि के पीछे-पीछे गये, परंतु उन मुनि श्रेष्ठ ने इन दोनों की ओर आंख उठाकर देखा तक नहीं। राजेन्द्र वे भृगुकुल शिरोमणि राजा-रानी के देखते-देखते वहां से अन्तर्धान हो गये। इससे अत्यन्त दुःखी हो राजा पृथ्वी पर गिर पड़े। दो घड़ी में किसी तरह अपने को संभालकर वे महा तेजस्वी राजा उठे और महारानी को साथ लेकर पुनः मुनि को ढूंढने का महान प्रयत्न करने लगे ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तगर्त दानधर्मपर्वमें च्‍यवन और कुशिका का संवादविषयक बावनवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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