"भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-55": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
('<h4 style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">20. योग-त्रयी </h4> <poem style="text-align:center"> ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
No edit summary
 
पंक्ति २०: पंक्ति २०:
अर्थः
अर्थः
साधुवृत्ति के धैर्यशाली लोग जो मेरी अनन्य भक्ति करते हैं, उन्हें किसी बात की वासना नहीं रहती। स्वयं मेरे द्वारा ही दी हुई जन्म मरण रहति मुक्त स्थिति भी वे नहीं चाहते।
साधुवृत्ति के धैर्यशाली लोग जो मेरी अनन्य भक्ति करते हैं, उन्हें किसी बात की वासना नहीं रहती। स्वयं मेरे द्वारा ही दी हुई जन्म मरण रहति मुक्त स्थिति भी वे नहीं चाहते।
17.  नैरपेक्ष्यं परं प्राहुर् निःश्रेयसमनल्पकम्।
तस्मान्निराशिषो भक्तिर् निरपेक्षस्य मे भवेत्।।
अर्थः
निरपेक्षता ही अत्यंत श्रेष्ठ, बहुत बड़ा निःश्रेयस् यानी सर्वोत्तम कल्याण है- ऐसा (ज्ञानी पुरुष) कहते हैं। इसलिए आशा वासनाओं को त्याग निरपेक्ष रहने वाले को ही मेरी भक्ति प्राप्त होगी।
 
18.  न मय्येकांत-भक्तानां गुण-दोषोद्भवा गुणाः।
साधूनां समचितानां बुद्धेः परमुपेयुषाम्।।
अर्थः
जो मुझमें अनन्य भक्ति रखते हैं, जिनके चित्त में समता व्याप्त है और जिन्हें बुद्धि से परे का परम तत्व प्राप्त हो चुका है, ऐसे लोगों को विविध-निषेध से होने वाले पुण्य-पाप से कोई संबंध नहीं रहता।
</poem>  
</poem>  
{{लेख क्रम |पिछला=भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-54|अगला=भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-56}}
{{लेख क्रम |पिछला=भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-54|अगला=भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-56}}

०७:००, ९ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

20. योग-त्रयी

 
13. जात-श्रद्धो मत्कथासु निर्विण्णः सर्व-कर्मसु।
वेद दुःखात्मकान् कामान् परित्यागेऽप्यनीश्वरः।।
अर्थः
मेरी लीला-कथा पर श्रद्धा होकर सब कर्मों से विराग होने लगे, ‘सब कामनाएँ दुःखरूप हैं’ यह मालूम पड़े, तो भी मनुष्य उन्हें छोड़ने में समर्थ नहीं होता।
 
14. ततो भजेत मां प्रीतः श्रद्धालुर् दृढ-निश्चयः।
जुषमाणश्च तान् कामान् दुःखोदर्कांश्च गर्हयन्।।
अर्थः
इसलिए श्रद्धा और दृढ़ निश्चय से मुझ पर प्रेम रखकर भक्ति करे; और उन विषयों का सेवन करते समय वे दुःखजनक हैं, इस प्रकार उनके विषय में घृणा कर मानव का कर्तव्य है कि श्रद्धा और दृढ़ निश्चय से मुझ पर प्रेम रखकर भक्ति करे।
 
15. प्रोक्तेन भक्ति-योगेन भजतो माऽसकृन्मुनेः।
कामा हृदय्या नश्यन्ति सर्वे मयि हृदि स्थिते।।
अर्थः
पीछे बताये हुए भक्तियोग का आधार लेकर जो मुनि मेरा अखंड भजन करता है, उसके हृदय की सभी वासनाएँ नष्ट हो जाती हैं; क्योंकि मैं परमेश्वर उसके हृदय में वास् करता हूँ।
 
16. न किंचित् साधवो धीरा भक्ता ह्येकान्तिनी मम।
वांछन्त्यपि मया दत्तं कैवल्यं अपुनर्भवम्।।
अर्थः
साधुवृत्ति के धैर्यशाली लोग जो मेरी अनन्य भक्ति करते हैं, उन्हें किसी बात की वासना नहीं रहती। स्वयं मेरे द्वारा ही दी हुई जन्म मरण रहति मुक्त स्थिति भी वे नहीं चाहते।
17. नैरपेक्ष्यं परं प्राहुर् निःश्रेयसमनल्पकम्।
तस्मान्निराशिषो भक्तिर् निरपेक्षस्य मे भवेत्।।
अर्थः
निरपेक्षता ही अत्यंत श्रेष्ठ, बहुत बड़ा निःश्रेयस् यानी सर्वोत्तम कल्याण है- ऐसा (ज्ञानी पुरुष) कहते हैं। इसलिए आशा वासनाओं को त्याग निरपेक्ष रहने वाले को ही मेरी भक्ति प्राप्त होगी।
 
18. न मय्येकांत-भक्तानां गुण-दोषोद्भवा गुणाः।
साधूनां समचितानां बुद्धेः परमुपेयुषाम्।।
अर्थः
जो मुझमें अनन्य भक्ति रखते हैं, जिनके चित्त में समता व्याप्त है और जिन्हें बुद्धि से परे का परम तत्व प्राप्त हो चुका है, ऐसे लोगों को विविध-निषेध से होने वाले पुण्य-पाप से कोई संबंध नहीं रहता।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-