"महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 37 श्लोक 1-16" के अवतरणों में अंतर

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;नारद जी से धृतराष्ट्र आदि के दावानल में दग्ध हो जाने का हाल जानकर युधिष्ठिर आदि का शोक करना
 
;नारद जी से धृतराष्ट्र आदि के दावानल में दग्ध हो जाने का हाल जानकर युधिष्ठिर आदि का शोक करना
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय ! पाण्डवों को तपोवन से आये जब दो वर्ष व्यतीत हो गये, तब एक दिन देवर्षि नारद दैवेच्छा से घूमते-घामते राजा युधिष्ठिर के यहाँ आ पहुँचे। महाबाहु कुरूराज युधिष्ठिर ने नारद जी की पूजा करके उन्हें आसन पर बिठाया । जब वे आसन पर बैठकर थोड़ी देर विश्राम कर चुके, तब वक्ताओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर ने उनसे इस प्रकार पूछा। ‘भगवान् ! इधर दीर्घकाल से मैं आपकी उपस्थिति यहाँ नहीं देखता हूँ । ब्रह्मन् ! कुशल तो है न ? अथवा आप को शुभ की प्राप्ति होती है न ? ‘विप्रवर ! इस समय आपने किन-किन देशों का निरीक्षण किया है ? बताइये मैं आप की क्या सेवा करूँ ? क्योंकि आप हम लोगों की परम गति हैं’। नारद जी ने कहा–नरेश्वर ! बहुत दिन पहले मैंने तुम्हें देखा था, इसीलिये मैं तपोवन से सीधे यहाँ चला आ रहा हूँ । रास्ते में मैंने बहुत-से तीर्थों और गंगा जी का भी दर्शन किया है। युधिष्ठिर बोले- भगवान् ! गंगा के किनारे रहने वाले मनुष्य मेरे पास आकर कहा करते हैं कि महामनस्वी महाराज धृतराष्ट्र इन दिनों बड़ी कठोर तपस्या में लगे हुए हैं। क्या आपने भी उन्हें देखा है ? वे कुरूश्रेष्ठ वहाँ कुशल से तो हैं न ? गान्धारी,कुन्ती तथा सूतपुत्र संजय भी सकुशल हैं न ? आज कल मेरे ताऊ राजा धृतराष्ट्र कैसे रहते हैं ? भगवान् ! यदि आपने उन्हें देखा हो तो मैं उन का समाचार सुनना चाहता हूँ । नारद जी ने कहा - महाराज ! मैंने उस तपोवन में जो कुछ देखा और सुना है, वह सारा वृत्तान्त ठीक-ठीक बतला रहा हूँ । तुम स्थिरचित्त होकर सुनो। कुरूकुल को आनन्दित करने वाले नरेश ! जब तुम लोग वन से लौट आये, तब तुम्हारे बुद्धिमान् ताऊ राजा धृतराष्ट्र गान्धारी,बहू कुन्ती, सूत संजय, अग्निहोत्रऔर पुरोहित के साथ कुरूक्षेत्र से गंगा द्वार (हरिद्वार)- को चले गये। वहाँ जाकर तपस्या के धनी तुम्हारे ताऊ ने कठोर तपस्या आरम्भ की । वे मुहँ में पत्थर का टुकड़ा रखकर वायु का आहार करते और मौन रहते थे। उस वन में जितने ऋषि रहते थे, वे लोग उनका विशेष सम्मान करने लगे । महातपस्वी धृतराष्ट्र के शरीर पर चमड़े सेढकी हुई हड्डियों का ढाँचामात्र रह गया था । उस अवस्था में उन्होंने छः महिने व्यतीत किये। भारत ! गान्धारी केवल जल पीकर रहने लगीं । कुन्ती देवी एक महीने तक उपवास करके एक दिन भोजन करती थीं और संजय छठे समय अर्थात् दो दिन उपवास करके तीसरे दिन संध्या को आहार ग्रहण करते थे। प्रभो ! राजा धृतराष्ट्र उस वन में कभी दिखायी देते और कभी अदृश्य हो जाते थे । यज्ञ कराने वाले ब्राह्मण वहाँ उन के द्वारा स्थापित की हुई अग्नि में विधिवत् हवन करते रहते थे। अब राजा का कोई निश्चित स्थान नहीं रह गया । वे वन में सब ओर विचरते रहते थे । गान्धारी और कुन्ती ये दोनों देवियाँ साथ रहकर राजा के पीछे-पीछे लगी रहती थीं । संजय भी उन्हीं का अनुसरण करते थे।
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वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय ! पाण्डवों को तपोवन से आये जब दो वर्ष व्यतीत हो गये, तब एक दिन देवर्षि नारद दैवेच्छा से घूमते-घामते राजा युधिष्ठिर के यहाँ आ पहुँचे। महाबाहु कुरूराज युधिष्ठिर ने नारद जी की पूजा करके उन्हें आसन पर बिठाया । जब वे आसन पर बैठकर थोड़ी देर विश्राम कर चुके, तब वक्ताओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर ने उनसे इस प्रकार पूछा। ‘भगवान  ! इधर दीर्घकाल से मैं आपकी उपस्थिति यहाँ नहीं देखता हूँ । ब्रह्मन् ! कुशल तो है न ? अथवा आप को शुभ की प्राप्ति होती है न ? ‘विप्रवर ! इस समय आपने किन-किन देशों का निरीक्षण किया है ? बताइये मैं आप की क्या सेवा करूँ ? क्योंकि आप हम लोगों की परम गति हैं’। नारद जी ने कहा–नरेश्वर ! बहुत दिन पहले मैंने तुम्हें देखा था, इसीलिये मैं तपोवन से सीधे यहाँ चला आ रहा हूँ । रास्ते में मैंने बहुत-से तीर्थों और गंगा जी का भी दर्शन किया है। युधिष्ठिर बोले- भगवान  ! गंगा के किनारे रहने वाले मनुष्य मेरे पास आकर कहा करते हैं कि महामनस्वी महाराज धृतराष्ट्र इन दिनों बड़ी कठोर तपस्या में लगे हुए हैं। क्या आपने भी उन्हें देखा है ? वे कुरूश्रेष्ठ वहाँ कुशल से तो हैं न ? गान्धारी,कुन्ती तथा सूतपुत्र संजय भी सकुशल हैं न ? आज कल मेरे ताऊ राजा धृतराष्ट्र कैसे रहते हैं ? भगवान  ! यदि आपने उन्हें देखा हो तो मैं उन का समाचार सुनना चाहता हूँ । नारद जी ने कहा - महाराज ! मैंने उस तपोवन में जो कुछ देखा और सुना है, वह सारा वृत्तान्त ठीक-ठीक बतला रहा हूँ । तुम स्थिरचित्त होकर सुनो। कुरूकुल को आनन्दित करने वाले नरेश ! जब तुम लोग वन से लौट आये, तब तुम्हारे बुद्धिमान ताऊ राजा धृतराष्ट्र गान्धारी,बहू कुन्ती, सूत संजय, अग्निहोत्रऔर पुरोहित के साथ कुरूक्षेत्र से गंगा द्वार (हरिद्वार)- को चले गये। वहाँ जाकर तपस्या के धनी तुम्हारे ताऊ ने कठोर तपस्या आरम्भ की । वे मुहँ में पत्थर का टुकड़ा रखकर वायु का आहार करते और मौन रहते थे। उस वन में जितने ऋषि रहते थे, वे लोग उनका विशेष सम्मान करने लगे । महातपस्वी धृतराष्ट्र के शरीर पर चमड़े सेढकी हुई हड्डियों का ढाँचामात्र रह गया था । उस अवस्था में उन्होंने छः महिने व्यतीत किये। भारत ! गान्धारी केवल जल पीकर रहने लगीं । कुन्ती देवी एक महीने तक उपवास करके एक दिन भोजन करती थीं और संजय छठे समय अर्थात् दो दिन उपवास करके तीसरे दिन संध्या को आहार ग्रहण करते थे। प्रभो ! राजा धृतराष्ट्र उस वन में कभी दिखायी देते और कभी अदृश्य हो जाते थे । यज्ञ कराने वाले ब्राह्मण वहाँ उन के द्वारा स्थापित की हुई अग्नि में विधिवत् हवन करते रहते थे। अब राजा का कोई निश्चित स्थान नहीं रह गया । वे वन में सब ओर विचरते रहते थे । गान्धारी और कुन्ती ये दोनों देवियाँ साथ रहकर राजा के पीछे-पीछे लगी रहती थीं । संजय भी उन्हीं का अनुसरण करते थे।
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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==संबंधित लेख==
 
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०८:३८, ९ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

सप्तत्रिंश (37) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (नारदागमन पर्व)

महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: सप्तत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
नारद जी से धृतराष्ट्र आदि के दावानल में दग्ध हो जाने का हाल जानकर युधिष्ठिर आदि का शोक करना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय ! पाण्डवों को तपोवन से आये जब दो वर्ष व्यतीत हो गये, तब एक दिन देवर्षि नारद दैवेच्छा से घूमते-घामते राजा युधिष्ठिर के यहाँ आ पहुँचे। महाबाहु कुरूराज युधिष्ठिर ने नारद जी की पूजा करके उन्हें आसन पर बिठाया । जब वे आसन पर बैठकर थोड़ी देर विश्राम कर चुके, तब वक्ताओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर ने उनसे इस प्रकार पूछा। ‘भगवान ! इधर दीर्घकाल से मैं आपकी उपस्थिति यहाँ नहीं देखता हूँ । ब्रह्मन् ! कुशल तो है न ? अथवा आप को शुभ की प्राप्ति होती है न ? ‘विप्रवर ! इस समय आपने किन-किन देशों का निरीक्षण किया है ? बताइये मैं आप की क्या सेवा करूँ ? क्योंकि आप हम लोगों की परम गति हैं’। नारद जी ने कहा–नरेश्वर ! बहुत दिन पहले मैंने तुम्हें देखा था, इसीलिये मैं तपोवन से सीधे यहाँ चला आ रहा हूँ । रास्ते में मैंने बहुत-से तीर्थों और गंगा जी का भी दर्शन किया है। युधिष्ठिर बोले- भगवान ! गंगा के किनारे रहने वाले मनुष्य मेरे पास आकर कहा करते हैं कि महामनस्वी महाराज धृतराष्ट्र इन दिनों बड़ी कठोर तपस्या में लगे हुए हैं। क्या आपने भी उन्हें देखा है ? वे कुरूश्रेष्ठ वहाँ कुशल से तो हैं न ? गान्धारी,कुन्ती तथा सूतपुत्र संजय भी सकुशल हैं न ? आज कल मेरे ताऊ राजा धृतराष्ट्र कैसे रहते हैं ? भगवान ! यदि आपने उन्हें देखा हो तो मैं उन का समाचार सुनना चाहता हूँ । नारद जी ने कहा - महाराज ! मैंने उस तपोवन में जो कुछ देखा और सुना है, वह सारा वृत्तान्त ठीक-ठीक बतला रहा हूँ । तुम स्थिरचित्त होकर सुनो। कुरूकुल को आनन्दित करने वाले नरेश ! जब तुम लोग वन से लौट आये, तब तुम्हारे बुद्धिमान ताऊ राजा धृतराष्ट्र गान्धारी,बहू कुन्ती, सूत संजय, अग्निहोत्रऔर पुरोहित के साथ कुरूक्षेत्र से गंगा द्वार (हरिद्वार)- को चले गये। वहाँ जाकर तपस्या के धनी तुम्हारे ताऊ ने कठोर तपस्या आरम्भ की । वे मुहँ में पत्थर का टुकड़ा रखकर वायु का आहार करते और मौन रहते थे। उस वन में जितने ऋषि रहते थे, वे लोग उनका विशेष सम्मान करने लगे । महातपस्वी धृतराष्ट्र के शरीर पर चमड़े सेढकी हुई हड्डियों का ढाँचामात्र रह गया था । उस अवस्था में उन्होंने छः महिने व्यतीत किये। भारत ! गान्धारी केवल जल पीकर रहने लगीं । कुन्ती देवी एक महीने तक उपवास करके एक दिन भोजन करती थीं और संजय छठे समय अर्थात् दो दिन उपवास करके तीसरे दिन संध्या को आहार ग्रहण करते थे। प्रभो ! राजा धृतराष्ट्र उस वन में कभी दिखायी देते और कभी अदृश्य हो जाते थे । यज्ञ कराने वाले ब्राह्मण वहाँ उन के द्वारा स्थापित की हुई अग्नि में विधिवत् हवन करते रहते थे। अब राजा का कोई निश्चित स्थान नहीं रह गया । वे वन में सब ओर विचरते रहते थे । गान्धारी और कुन्ती ये दोनों देवियाँ साथ रहकर राजा के पीछे-पीछे लगी रहती थीं । संजय भी उन्हीं का अनुसरण करते थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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