"श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 5 श्लोक 30-42": अवतरणों में अंतर
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== |
०९:५६, ९ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण
द्वितीय स्कन्ध:पञ्चम अध्यायः (5)
वैकारिक अहंकार से मन की और इन्द्रियों के दस अधिष्ठातृ देवताओं की भी उत्पत्ति हुई। उनके नाम हैं—दिशा, वायु, सूर्य, वरुण, अश्विनीकुमार, अग्नि, इन्द्र, विष्णु, मित्र और प्रजापति । तैजस, अहंकार के विकार से श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और घ्राण—ये पाँच कर्मेंदियाँ उत्पन्न हुईं। साथ ही ज्ञानशक्ति रूप बुद्धि और क्रियाशक्ति रूप प्राण भी तैजस अहंकार से ही उत्पन्न हुए ।
श्रेष्ठ ब्रम्हवित्! जिस समय ये पंचभूत, इन्द्रिय, मन और सत्व आदि तीनों गुण परस्पर संगठित नहीं थे तब अपने रहने के लिये भोगों के साधन रूप शरीर की रचना कर सके । जब भगवान ने इन्हें अपनी शक्ति से प्रेरित किया तब वे तत्व परस्पर एक-दूसरे के साथ मिल गये और उन्होंने आपस में कार्य-कारण भाव स्वीकार करके व्यष्टि-समष्टि पिण्ड और ब्रम्हाण दोनों की रचना की । वह ब्रम्हाण रूप अंडा एक सहस्त्र वर्ष तक निर्जीव रूप से जल में पड़ा रहा; फिर काल, कर्म और स्वभाव को स्वीकार करने वाले भगवान ने उसे जीवित कर दिया । उस अंडे को फोड़कर उसमें से वही विराट् पुरुष निकला, जिसकी जंघा, चरण, भुजाएँ, नेत्र, मुख और सिर सहस्त्रों की संख्या में हैं । विद्वान् पुरुष (उपासना के लिये) उसी के अंगों में समस्त लोक और उनमें रहने वाली वस्तुओं की कल्पना करते हैं। उसकी कमर से नीचे के अंगों में सातों पाताल की और उसके पेडू से ऊपर के अंगों में सातों स्वर्ग की कल्पना की जाती है । ब्राम्हण इस विराट् पुरुष का मुख है, भुजाएँ क्षत्रिय हैं, जाँघों से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए हैं । पैरों से लेकर कटीपर्यन्त सातों पाताल तथा भूलोक की कपना की गयी है; नाभि में भुवर्लोक की, ह्रदय में स्वर्लोक की और परमात्मा के वक्षःस्थल में महर्लोक की कल्पना की गयी है । उसके गले में जनलोक, दोनों स्तनों में तपोलोक और मस्तक में ब्रम्हा का नित्य निवास स्थान सत्य लोक है । उस विराट् पुरुष की कमर में अतल, जाँघों में वितल, घुटनों में पवित्र सुतललोक और जंघाओं में तलातल की कल्पना की गयी है । एड़ी के ऊपर की गाँठों में महातल, पंजे और एड़ियों में रसातल और तलुओं में पाताल समझना चाहिये। इस प्रकार विराट् पुरुष सर्वलोकमय है । विराट् भगवान के अंगों में इस प्रकार भी लोकों की कल्पना की जाती है उनके चरणों में पृथ्वी है, नाभि में भुवर्लोक है और सिर में स्वर्लोक है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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