"श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 1-15": अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण:  द्वितीय स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद </div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण:  द्वितीय स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद </div>


<center>राजा परीक्षित् के विविध प्रश्न</center>
<center>'''राजा परीक्षित् के विविध प्रश्न'''</center>


राजा परीक्षित् ने कहा—भगवन्! आप वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं। मैं आपसे यह जानना चाहता हूँ कि जब ब्रम्हाजी ने निर्गुण भगवान् के गुणों का वर्णन करने के लिये नारदजी को आदेश दिया, तब उन्होंने किन-किन को किस रुप में उपदेश किया ? एक तो अचिन्त्य शक्तियों के आश्रय भगवान् की कथाएँ ही लोगों का परम मंगल करने वाली हैं, दूसरे देवर्षि नारद का सबको भगवद्दर्शन कराने का स्वभाव है। अवश्य ही आप उनकी बातें मुझे सुनाइये  
राजा परीक्षित् ने कहा—भगवन्! आप वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं। मैं आपसे यह जानना चाहता हूँ कि जब ब्रम्हाजी ने निर्गुण भगवान् के गुणों का वर्णन करने के लिये नारदजी को आदेश दिया, तब उन्होंने किन-किन को किस रुप में उपदेश किया ? एक तो अचिन्त्य शक्तियों के आश्रय भगवान् की कथाएँ ही लोगों का परम मंगल करने वाली हैं, दूसरे देवर्षि नारद का सबको भगवद्दर्शन कराने का स्वभाव है। अवश्य ही आप उनकी बातें मुझे सुनाइये  
महाभाग्यवान् शुकदेवजी! आप मुझे ऐसा उपदेश कीजिये कि मैं अपने आसक्तिरहित मन को सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण में तन्मय करके अपना शरीर छोड़ सकूँ ।
महाभाग्यवान् शुकदेवजी! आप मुझे ऐसा उपदेश कीजिये कि मैं अपने आसक्तिरहित मन को सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण में तन्मय करके अपना शरीर छोड़ सकूँ ।
जो लोग उनकी लीलाओं का श्रद्धा के साथ नित्य श्रवण और कथन करते हैं, उनके हृदय में थोड़े ही समय में भगवान् प्रकट हो जाते हैं । श्रीकृष्ण कान के छिद्रों के द्वारा अपने भक्तों भक्तों के भावमय ह्रदयकमल पर जाकर बैठ जाते हैं और जैसे शरद् ऋतु जल का गँदलापन मिटा देती है, वैस ही वे भक्तों के मनोमल का नाश कर देते हैं । जिसका ह्रदय शुद्ध हो जाता है, वह श्रीकृष्ण के के चरणकमलों को एक क्षण के लिये भी नहीं छोड़ता—जैसे मार्ग के समस्त क्लेशों से छूटकर घर आया हुआ पथिक अपने घर को नहीं छोड़ता ।
जो लोग उनकी लीलाओं का श्रद्धा के साथ नित्य श्रवण और कथन करते हैं, उनके हृदय में थोड़े ही समय में भगवान् प्रकट हो जाते हैं । श्रीकृष्ण कान के छिद्रों के द्वारा अपने भक्तों भक्तों के भावमय ह्रदयकमल पर जाकर बैठ जाते हैं और जैसे शरद् ऋतु जल का गँदलापन मिटा देती है, वैस ही वे भक्तों के मनोमल का नाश कर देते हैं । जिसका ह्रदय शुद्ध हो जाता है, वह श्रीकृष्ण के के चरणकमलों को एक क्षण के लिये भी नहीं छोड़ता—जैसे मार्ग के समस्त क्लेशों से छूटकर घर आया हुआ पथिक अपने घर को नहीं छोड़ता ।
भगवन्! जीव का पंचभूतों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। फिर भी इसका शरीर पंचभूतों से ही बनता है। तो क्या स्वभाव से ही ऐसा होता है, अथवा किसी कारण वश—आप इस बात का मर्म पूर्णरीति से जानते हैं । (आपने बतलाया कि) भगवान् की नाभि से वह कमल प्रकट हुआ, जिसमें लोकों की रचना हुई। यह जीव अपने सीमित अवयवों से जैसे परिच्छिन्न है, वैसे ही आपने परमात्मा को भी सीमित अवयवों से परिच्छिन्न-सा वर्णन किया (यह क्या बात है ?) । जिनकी कृपा से सर्वभूतमय ब्रम्हाजी प्राणियों की सृष्टि करते हैं, जिनके नाभिकमल से पैदा होने पर भी जिनकी कृपा से ही ये उनके रूप का दर्शन कर सके थे, वे संसार की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय के हेतु, सर्वान्तर्यामी और माया के स्वामी परमपुरुष परमात्मा अपनी माया का त्याग करके किसमें किस रूप से शयन करते हैं ?  पहले आपने बतलाया था कि विराट् पुरुष के अंगों से लोक और लोकपालों की रचना हुई और फिर यह भी बतलाया कि लोक और लोकपालों के रूप में उसके अंगों की कल्पना हुई। इन दोनों बातों का तात्पर्य क्या है ?
भगवन्! जीव का पंचभूतों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। फिर भी इसका शरीर पंचभूतों से ही बनता है। तो क्या स्वभाव से ही ऐसा होता है, अथवा किसी कारण वश—आप इस बात का मर्म पूर्णरीति से जानते हैं । (आपने बतलाया कि) भगवान् की नाभि से वह कमल प्रकट हुआ, जिसमें लोकों की रचना हुई। यह जीव अपने सीमित अवयवों से जैसे परिच्छिन्न है, वैसे ही आपने परमात्मा को भी सीमित अवयवों से परिच्छिन्न-सा वर्णन किया (यह क्या बात है ?) । जिनकी कृपा से सर्वभूतमय ब्रम्हाजी प्राणियों की सृष्टि करते हैं, जिनके नाभिकमल से पैदा होने पर भी जिनकी कृपा से ही ये उनके रूप का दर्शन कर सके थे, वे संसार की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय के हेतु, सर्वान्तर्यामी और माया के स्वामी परमपुरुष परमात्मा अपनी माया का त्याग करके किसमें किस रूप से शयन करते हैं ?  पहले आपने बतलाया था कि विराट् पुरुष के अंगों से लोक और लोकपालों की रचना हुई और फिर यह भी बतलाया कि लोक और लोकपालों के रूप में उसके अंगों की कल्पना हुई। इन दोनों बातों का तात्पर्य क्या है ?

१०:४७, ९ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

द्वितीय स्कन्ध: अष्टम अध्यायः (8)

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
राजा परीक्षित् के विविध प्रश्न

राजा परीक्षित् ने कहा—भगवन्! आप वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं। मैं आपसे यह जानना चाहता हूँ कि जब ब्रम्हाजी ने निर्गुण भगवान् के गुणों का वर्णन करने के लिये नारदजी को आदेश दिया, तब उन्होंने किन-किन को किस रुप में उपदेश किया ? एक तो अचिन्त्य शक्तियों के आश्रय भगवान् की कथाएँ ही लोगों का परम मंगल करने वाली हैं, दूसरे देवर्षि नारद का सबको भगवद्दर्शन कराने का स्वभाव है। अवश्य ही आप उनकी बातें मुझे सुनाइये महाभाग्यवान् शुकदेवजी! आप मुझे ऐसा उपदेश कीजिये कि मैं अपने आसक्तिरहित मन को सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण में तन्मय करके अपना शरीर छोड़ सकूँ । जो लोग उनकी लीलाओं का श्रद्धा के साथ नित्य श्रवण और कथन करते हैं, उनके हृदय में थोड़े ही समय में भगवान् प्रकट हो जाते हैं । श्रीकृष्ण कान के छिद्रों के द्वारा अपने भक्तों भक्तों के भावमय ह्रदयकमल पर जाकर बैठ जाते हैं और जैसे शरद् ऋतु जल का गँदलापन मिटा देती है, वैस ही वे भक्तों के मनोमल का नाश कर देते हैं । जिसका ह्रदय शुद्ध हो जाता है, वह श्रीकृष्ण के के चरणकमलों को एक क्षण के लिये भी नहीं छोड़ता—जैसे मार्ग के समस्त क्लेशों से छूटकर घर आया हुआ पथिक अपने घर को नहीं छोड़ता । भगवन्! जीव का पंचभूतों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। फिर भी इसका शरीर पंचभूतों से ही बनता है। तो क्या स्वभाव से ही ऐसा होता है, अथवा किसी कारण वश—आप इस बात का मर्म पूर्णरीति से जानते हैं । (आपने बतलाया कि) भगवान् की नाभि से वह कमल प्रकट हुआ, जिसमें लोकों की रचना हुई। यह जीव अपने सीमित अवयवों से जैसे परिच्छिन्न है, वैसे ही आपने परमात्मा को भी सीमित अवयवों से परिच्छिन्न-सा वर्णन किया (यह क्या बात है ?) । जिनकी कृपा से सर्वभूतमय ब्रम्हाजी प्राणियों की सृष्टि करते हैं, जिनके नाभिकमल से पैदा होने पर भी जिनकी कृपा से ही ये उनके रूप का दर्शन कर सके थे, वे संसार की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय के हेतु, सर्वान्तर्यामी और माया के स्वामी परमपुरुष परमात्मा अपनी माया का त्याग करके किसमें किस रूप से शयन करते हैं ? पहले आपने बतलाया था कि विराट् पुरुष के अंगों से लोक और लोकपालों की रचना हुई और फिर यह भी बतलाया कि लोक और लोकपालों के रूप में उसके अंगों की कल्पना हुई। इन दोनों बातों का तात्पर्य क्या है ? महाकल्प और उनके अन्तर्गत अवान्तर कल्प कितने हैं ? भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल का अनुमान किस प्रकार किया जाता है ? क्या स्थूल देहाभिमानी जीवों की आयु भी बँधी हुई है । ब्राम्हण श्रेष्ठ! काल की सूक्ष्म गति त्रुटि आदि और स्थूल गति वर्ष आदि किस प्रकार से जानी जाती है ? विविध कर्मों से जीवों की कितनी और कैसी गतियाँ होती हैं । देव, मनुष्य आदि योनियाँ सत्व, रज, तम—इन तीन गुणों के फलस्वरुप ही प्राप्त होती हैं। उनको चाहने वाले जीवों में से कौन-कौन किस-किस योनि को प्राप्त करने के लिये किस-किस प्रकार से कौन-कौन कर्म स्वीकार करते हैं ? पृथ्वी, पाताल, दिशा, आकाश, ग्रह, नक्षत्र, पर्वत, नदी, समुद्र, द्वीप और उनमें रहने वाले जीवों की उत्पत्ति कैसे होती है ? ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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