"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 240 श्लोक 16-30" के अवतरणों में अंतर

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==चत्वाकरिंशदधिकद्विशततम (240) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)==
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==चत्वारिंशदधिकद्विशततम (240) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)==
 
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: चत्वारिंशदधिकद्विशततम श्लोक 16-30 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: चत्वाकरिंशदधिकद्विशततम श्लोक 1-15  का हिन्दी अनुवाद</div>
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जैसे मछलीमार जाल काटने वाली दृष्‍ट मछली को पहले पकड़ता है, उसी तरह योगवेत्‍ता साधक पहले अपने मन को वश में करे । उसके बाद कान का, फिर नेत्र का, तदनन्‍तर जिह्वा और घ्राण आदि का निग्रह करे । यत्‍नशील साधक इन पांचों इन्द्रियों को वश में करके मन मे स्‍थापित करें । इसी प्रकार संकल्‍पों का परित्‍याग करके मन को बुद्धि में लीन करे । योगी पांचों इन्द्रियों को वश में करके उन्‍हें दृढ़तापूर्वक मन में स्‍थापित करे। जब छठे मन सहित ये इन्द्रियां बुद्धि में स्थिर होकर प्रसन्‍न (स्‍वच्‍छ) हो जाती है, तब उस योगी को ब्रह्मा का साक्षात्‍कार हो जाता है । वह योगी अपने अन्‍त:करण  मे धूमरहित प्रज्‍वलित अग्नि, दीप्तिमान, सूर्य तथा आकाश में चमकती हुई बिजली की ज्‍योति के समान प्रकाशस्‍वरूप आत्‍मा का दर्शन करता है । सब उस आत्‍मा में दृष्टिगोचर होते हैं और व्‍यापक होने के कारण वह आत्‍मा सब में दिखायी देता है । जो महात्‍मा ब्राह्माण मनीषी, महाज्ञानी, धैर्यवान् और सम्‍पूर्ण प्राणियों के हित मे तत्‍पर रहने वाले हैं, वे ही उस परमात्‍मा का दर्शन कर पाते हैं ।
 
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जो योगी प्रतिदिन नियत समय तक अकेला एकान्‍त स्‍थान में बैठकर भलीभॉति नियमों के पालनपूर्वक इस प्रकार योगाभ्‍यास करता है, वह अक्षर ब्रह्मा की समता को प्राप्‍त हो जाता है । योगसाधना में अग्रसर होने पर मोह, भ्रम और आवर्त आदि विघ्‍न प्राप्‍त होते हैं । फिर दिव्‍य सुगन्‍ध आती है और दिव्‍य शब्‍दों के श्रवण एवं दिव्‍य रूपों के दर्शन होते हैं । नाना प्रकार के अद्भुत रस और स्‍पर्श का अनुभव होता है । इच्‍छानुकूल सर्दी और गर्मी प्राप्‍त होती हैं  तथा वायुरूप होकर आकाश में चलने-फिरने की शक्ति आ जाती है । प्रतिभा बढ़ जाती है । दिव्‍य भोग अपने आप उपस्थित हो जाते हैं । इन सब सिद्धियों को योगबल से प्राप्‍त करके भी तत्‍ववेत्‍ता योगी उनका आदर न करे; क्‍योंकि ये सब योग के विघ्‍न हैं । अत: मन को उनकी ओर से लौटाकर आत्‍मा में ही एकाग्र करे । नित्‍य नियम से रहकर योगी मुनि किसी पर्वत के शिखर पर किसी देववृक्ष के समीप या एकान्‍त मन्दिर में अथवा वृक्षों के सम्‍मुख बैठकर तीन समय (सबेरे तथा रात के पहले और पिछले पहरों में) योग का अभ्‍यास करें । द्रव्‍य चाहने वाले मनुष्‍य जैसे सदा द्रव्‍यसमुदाय को कोठे में बांध करके रखता है, उसी तरह योग का साधक भी इन्द्रिय समुदाय को संयम में रखकर हृदयकमल में स्थित नित्‍य आत्‍मा का एकाग्रभाव से चिन्‍तन करे । मन को योग से उद्विग्‍न न होने दे । जिस उपाय से चंचल मन को रोका जा सके, योग का साधक उसका सेवन करे और उस साधन से वह कभी विचलित न हो । एकाग्रचित योगी पर्वत की सूनी गुफा, देवमन्दिर तथा एकान्‍तस्‍थ शून्‍य गृह को ही अपने निवास के लिये चुने । योग का साधक मन, वाणी या क्रिया द्वारा भी किसी दूसरे में आसक्‍त न हो । सबकी ओर से उपेक्षा का भाव रखे । नि‍यमित भोजन करे और लाभ हानि में भी समान भाव रखे । जो उसकी प्रशंसा करे और जो उसकी निन्‍दा करे, उन दोनों में वह समान भाव रखे, एक की भलाई या दूसरे की बुराई न सोचे ।  
जैसे मछलीमार जाल काटने वाली दृष्टन मछली को पहले पकड़ता है, उसी तरह योगवेत्तान साधक पहले अपने मन को वश में करे । उसके बाद कान का, फिर नेत्र का, तदनन्तमर जिह्वा और घ्राण आदि का निग्रह करे । यत्नाशील साधक इन पांचों इन्द्रियों को वश में करके मन मे स्था६पित करें । इसी प्रकार संकल्पों  का परित्याेग करके मन को बुद्धि में लीन करे । योगी पांचों इन्द्रियों को वश में करके उन्हें  दृढ़तापूर्वक मन में स्था‍पित करे। जब छठे मन सहित ये इन्द्रियां बुद्धि में स्थिर होकर प्रसन्नं (स्वमच्छ्) हो जाती है, तब उस योगी को ब्रह्मा का साक्षात्काकर हो जाता है । वह योगी अपने अन्त :करण  मे धूमरहित प्रज्वैलित अग्नि, दीप्तिमान, सूर्य तथा आकाश में चमकती हुई बिजली की ज्योलति के समान प्रकाशस्वमरूप आत्मार का दर्शन करता है । सब उस आत्माा में दृष्टिगोचर होते हैं और व्यादपक होने के कारण वह आत्मा। सबमें दिखायी देता है । जो महात्मा् ब्राह्माण मनीषी, महाज्ञानी, धैर्यवान् और सम्पूार्ण प्राणियों के हित मे तत्पार रहने वाले हैं, वे ही उस परमात्मास का दर्शनकर पाते हैं । जो योगी प्रतिदिन नियत समय तक अकेला एकान्ता स्थारन में बैठकर भलीभॉति नियमों के पालनपूर्वक इस प्रकार योगाभ्या‍स करता है, वह अक्षर ब्रह्मा की समता को प्राप्ता हो जाता है । योगसाधना में अग्रसर होने पर मोह, भ्रम और आवर्त आदि विघ्न२ प्राप्तन होते हैं । फिर दिव्यत सुगन्ध  आती है और दिव्य। शब्दोंघ के श्रवण एवं दिव्यह रूपों के दर्शन होते हैं । नाना प्रकार के अद्भुत रस और स्पकर्श का अनुभव होता है । इच्छायनुकूल सर्दी और गर्मी प्राप्तस होती हैं  तथा वायुरूप होकर आकाश में चलने-फिरने की शक्ति आ जाती है । प्रतिभा बढ़ जाती है । दिव्यन भोग अपने आप उपस्थित हो जाते हैं । इन सब सिद्धियों को योगबल से प्राप्त  करके भी तत्वइवेत्ता् योगी उनका आदर न करे; क्योंेकि ये सब योग के विघ्न  हैं । अत: मन को उनकी ओर से लौटाकर आत्माग में ही एकाग्र करे । नित्यक नियम से रहकर योगी मुनि किसी पर्वत के शिखर पर किसी देववृक्ष के समीप या एकान्ति मन्दिर में अथवा वृक्षों के सम्मुयख बैठकर तीन समय (सबेरे तथा रात के पहले और पिछले पहरों में) योग का अभ्याबस करें । द्रव्यप चाहने वाले मनुष्य  जैसे सदा द्रव्य।समुदाय को कोठे में बांध करके रखता है, उसी तरह योग का साधक भी इन्द्रिय समुदाय को संयम में रखकर हृदयकमल में स्थित नित्यभ आत्माद का एकाग्रभाव से चिन्त न करे । मन को योग से उद्विग्न  न होने दे । जिस उपाय से चंचल मन को रोका जा सके, योग का साधक उसका सेवन करे और उस साधन से वह कभी विचलित न हो । एकाग्रचित योगी पर्वत की सूनी गुफा, देवमन्दिर तथा एकान्‍तस्थ। शून्यग गृह को ही अपने निवास के लिये चुने । योग का साधक मन, वाणी या क्रिया द्वारा भी किसी दूसरे में आसक्ता न हो । सबकी ओर से उपेक्षा का भाव रखे । नि‍यमित भोजन करे और लाभ हानि में भी समान भाव रखे । जो उसकी प्रशंसा करे और जो उसकी निन्दाा करे, उन दोनों में वह समान भाव रखे, एक की भलाई या दूसरे की बुराई न सोचे ।
 
  
  
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०७:०७, १४ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

चत्वारिंशदधिकद्विशततम (240) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: चत्वारिंशदधिकद्विशततम श्लोक 16-30 का हिन्दी अनुवाद

जैसे मछलीमार जाल काटने वाली दृष्‍ट मछली को पहले पकड़ता है, उसी तरह योगवेत्‍ता साधक पहले अपने मन को वश में करे । उसके बाद कान का, फिर नेत्र का, तदनन्‍तर जिह्वा और घ्राण आदि का निग्रह करे । यत्‍नशील साधक इन पांचों इन्द्रियों को वश में करके मन मे स्‍थापित करें । इसी प्रकार संकल्‍पों का परित्‍याग करके मन को बुद्धि में लीन करे । योगी पांचों इन्द्रियों को वश में करके उन्‍हें दृढ़तापूर्वक मन में स्‍थापित करे। जब छठे मन सहित ये इन्द्रियां बुद्धि में स्थिर होकर प्रसन्‍न (स्‍वच्‍छ) हो जाती है, तब उस योगी को ब्रह्मा का साक्षात्‍कार हो जाता है । वह योगी अपने अन्‍त:करण मे धूमरहित प्रज्‍वलित अग्नि, दीप्तिमान, सूर्य तथा आकाश में चमकती हुई बिजली की ज्‍योति के समान प्रकाशस्‍वरूप आत्‍मा का दर्शन करता है । सब उस आत्‍मा में दृष्टिगोचर होते हैं और व्‍यापक होने के कारण वह आत्‍मा सब में दिखायी देता है । जो महात्‍मा ब्राह्माण मनीषी, महाज्ञानी, धैर्यवान् और सम्‍पूर्ण प्राणियों के हित मे तत्‍पर रहने वाले हैं, वे ही उस परमात्‍मा का दर्शन कर पाते हैं । जो योगी प्रतिदिन नियत समय तक अकेला एकान्‍त स्‍थान में बैठकर भलीभॉति नियमों के पालनपूर्वक इस प्रकार योगाभ्‍यास करता है, वह अक्षर ब्रह्मा की समता को प्राप्‍त हो जाता है । योगसाधना में अग्रसर होने पर मोह, भ्रम और आवर्त आदि विघ्‍न प्राप्‍त होते हैं । फिर दिव्‍य सुगन्‍ध आती है और दिव्‍य शब्‍दों के श्रवण एवं दिव्‍य रूपों के दर्शन होते हैं । नाना प्रकार के अद्भुत रस और स्‍पर्श का अनुभव होता है । इच्‍छानुकूल सर्दी और गर्मी प्राप्‍त होती हैं तथा वायुरूप होकर आकाश में चलने-फिरने की शक्ति आ जाती है । प्रतिभा बढ़ जाती है । दिव्‍य भोग अपने आप उपस्थित हो जाते हैं । इन सब सिद्धियों को योगबल से प्राप्‍त करके भी तत्‍ववेत्‍ता योगी उनका आदर न करे; क्‍योंकि ये सब योग के विघ्‍न हैं । अत: मन को उनकी ओर से लौटाकर आत्‍मा में ही एकाग्र करे । नित्‍य नियम से रहकर योगी मुनि किसी पर्वत के शिखर पर किसी देववृक्ष के समीप या एकान्‍त मन्दिर में अथवा वृक्षों के सम्‍मुख बैठकर तीन समय (सबेरे तथा रात के पहले और पिछले पहरों में) योग का अभ्‍यास करें । द्रव्‍य चाहने वाले मनुष्‍य जैसे सदा द्रव्‍यसमुदाय को कोठे में बांध करके रखता है, उसी तरह योग का साधक भी इन्द्रिय समुदाय को संयम में रखकर हृदयकमल में स्थित नित्‍य आत्‍मा का एकाग्रभाव से चिन्‍तन करे । मन को योग से उद्विग्‍न न होने दे । जिस उपाय से चंचल मन को रोका जा सके, योग का साधक उसका सेवन करे और उस साधन से वह कभी विचलित न हो । एकाग्रचित योगी पर्वत की सूनी गुफा, देवमन्दिर तथा एकान्‍तस्‍थ शून्‍य गृह को ही अपने निवास के लिये चुने । योग का साधक मन, वाणी या क्रिया द्वारा भी किसी दूसरे में आसक्‍त न हो । सबकी ओर से उपेक्षा का भाव रखे । नि‍यमित भोजन करे और लाभ हानि में भी समान भाव रखे । जो उसकी प्रशंसा करे और जो उसकी निन्‍दा करे, उन दोनों में वह समान भाव रखे, एक की भलाई या दूसरे की बुराई न सोचे ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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