"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 36 श्लोक 64-74": अवतरणों में अंतर

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==षट्-त्रिंश (36) अध्याय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: षट्-त्रिंश अधयाय: श्लोक 64-74 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: षट्-त्रिंश अध्याय: श्लोक 64-74 का हिन्दी अनुवाद</div>


इसी प्रकार समस्‍त गुणों से सम्‍पन्‍न मनुष्‍य को भी अकेले होनेपर शत्रु अपनी शक्ति के अंदर समझते हैं, जैसे अकेले वृक्ष को वायु। किंतु परस्‍पर मेल होने से और एक से दूसरेको सहारा मिलने से जातिवाले लोग इस प्रकार वृद्धि को प्राप्‍त होते हैं, जैसे तालाब में कमल। ब्राह्मण, गौ, कुटुम्‍बी, बालक, स्‍त्री, अन्‍नदाता और शरणागत-ये अवध्‍य होते हैं। राजन्! आपका कल्‍याण हो, मनुष्‍य में धन और आरोग्‍य को छोड़कर दूसरा कोई गुण नहीं है; क्‍योंकि रोगी तो मुर्देके समान है। महाराज! जो बिनारोग के उत्‍पन्‍न, कड़वा, सिर में दर्द पैदा करनेवाला, पाप से सम्‍बद्ध, कठोर, तीखा और गरम है, जो सज्‍जनोद्वारा पान करने योग्‍य है और जिसे दुर्जन नहीं पी सकते-उस क्रोध को आप पी जाइये और शांत होइये। रोग से पी‍डि‍त मनुष्‍य मधुर फलोंका आदर नहीं करते, विषयोंमेंभी उन्‍हें कुछ सुख या सार नहीं मिलता। रोगी सदा ही दुखी रहते है; वे न तो धनसंबंधी भोगों का और न सुख का ही अनुभव करते है। राजन् ! पहले जूए में द्रोपदी को जीती गयी देखकर मैंने आपसे कहा था-‘आप द्यूतक्रीडा में आसक्‍त दुर्योधन को रोकिये, विद्वान्लोग इस प्रवञ्चना के लिये मना करते हैं।‘ किंतु आपने मेरा कहना नहीं माना। वह बल नहीं, जिसका मृदुल स्‍वभाव के साथ विरोध हो; सूक्ष्‍म धर्मका शीध्र हीसेवन करना चाहिये। क्रूरतापूर्वक उपर्जित लक्ष्‍मी नश्र्वर होती है, यदि वह मृदुलतापूर्वक बढ़ायी गयी हो तो पुत्र-पौत्रोंतक स्थिररहती है। राजन्! आपके पुत्र पाण्‍डवों की रक्षा करें और पाण्‍डु के पुत्र आपकेपुत्रों की रक्षा करें। सभी कौरवएक-दूसरे के शत्रु को शत्रु और मित्र को मित्र समझे। सबका एक ही कर्तव्‍य हो, सभी सुखी और समृद्धिशाली होकर जीवन व्‍यतीत करें। अजमीढकुलनंदन! इस समय आप ही कौरवों के आधारस्‍तम्‍भ हैं, कुरूवंश आपके ही अधीन है। तात! कुंती के पुत्र अभी बालक हैं और वनवास से बहुत कष्‍ट पा चुके हैं; इस समय उनका पालन करके अपने यश की रक्षा कीजिये ।।७३।। कुरूराज! आप पाण्‍डवों से संधि कर लें, जिससे शत्रुओं को आपका छिद्र देखने का अवसर न मिले। नरदेव! समस्‍त पाण्‍डव सत्‍यपर डटे हुए हैं; अब आप अपनेपुत्र दुर्योधन को रोकिये।
इसी प्रकार समस्‍त गुणों से सम्‍पन्‍न मनुष्‍य को भी अकेले होनेपर शत्रु अपनी शक्ति के अंदर समझते हैं, जैसे अकेले वृक्ष को वायु। किंतु परस्‍पर मेल होने से और एक से दूसरेको सहारा मिलने से जातिवाले लोग इस प्रकार वृद्धि को प्राप्‍त होते हैं, जैसे तालाब में कमल। ब्राह्मण, गौ, कुटुम्‍बी, बालक, स्‍त्री, अन्‍नदाता और शरणागत-ये अवध्‍य होते हैं। राजन्! आपका कल्‍याण हो, मनुष्‍य में धन और आरोग्‍य को छोड़कर दूसरा कोई गुण नहीं है; क्‍योंकि रोगी तो मुर्देके समान है। महाराज! जो बिनारोग के उत्‍पन्‍न, कड़वा, सिर में दर्द पैदा करनेवाला, पाप से सम्‍बद्ध, कठोर, तीखा और गरम है, जो सज्‍जनोद्वारा पान करने योग्‍य है और जिसे दुर्जन नहीं पी सकते-उस क्रोध को आप पी जाइये और शांत होइये। रोग से पी‍डि‍त मनुष्‍य मधुर फलोंका आदर नहीं करते, विषयोंमेंभी उन्‍हें कुछ सुख या सार नहीं मिलता। रोगी सदा ही दुखी रहते है; वे न तो धनसंबंधी भोगों का और न सुख का ही अनुभव करते है। राजन् ! पहले जूए में द्रोपदी को जीती गयी देखकर मैंने आपसे कहा था-‘आप द्यूतक्रीडा में आसक्‍त दुर्योधन को रोकिये, विद्वान्लोग इस प्रवञ्चना के लिये मना करते हैं।‘ किंतु आपने मेरा कहना नहीं माना। वह बल नहीं, जिसका मृदुल स्‍वभाव के साथ विरोध हो; सूक्ष्‍म धर्मका शीध्र हीसेवन करना चाहिये। क्रूरतापूर्वक उपर्जित लक्ष्‍मी नश्र्वर होती है, यदि वह मृदुलतापूर्वक बढ़ायी गयी हो तो पुत्र-पौत्रोंतक स्थिररहती है। राजन्! आपके पुत्र पाण्‍डवों की रक्षा करें और पाण्‍डु के पुत्र आपकेपुत्रों की रक्षा करें। सभी कौरवएक-दूसरे के शत्रु को शत्रु और मित्र को मित्र समझे। सबका एक ही कर्तव्‍य हो, सभी सुखी और समृद्धिशाली होकर जीवन व्‍यतीत करें। अजमीढकुलनंदन! इस समय आप ही कौरवों के आधारस्‍तम्‍भ हैं, कुरूवंश आपके ही अधीन है। तात! कुंती के पुत्र अभी बालक हैं और वनवास से बहुत कष्‍ट पा चुके हैं; इस समय उनका पालन करके अपने यश की रक्षा कीजिये ।।७३।। कुरूराज! आप पाण्‍डवों से संधि कर लें, जिससे शत्रुओं को आपका छिद्र देखने का अवसर न मिले। नरदेव! समस्‍त पाण्‍डव सत्‍यपर डटे हुए हैं; अब आप अपनेपुत्र दुर्योधन को रोकिये।

०७:५१, १७ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

षट्-त्रिंश (36) अध्याय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: षट्-त्रिंश अध्याय: श्लोक 64-74 का हिन्दी अनुवाद

इसी प्रकार समस्‍त गुणों से सम्‍पन्‍न मनुष्‍य को भी अकेले होनेपर शत्रु अपनी शक्ति के अंदर समझते हैं, जैसे अकेले वृक्ष को वायु। किंतु परस्‍पर मेल होने से और एक से दूसरेको सहारा मिलने से जातिवाले लोग इस प्रकार वृद्धि को प्राप्‍त होते हैं, जैसे तालाब में कमल। ब्राह्मण, गौ, कुटुम्‍बी, बालक, स्‍त्री, अन्‍नदाता और शरणागत-ये अवध्‍य होते हैं। राजन्! आपका कल्‍याण हो, मनुष्‍य में धन और आरोग्‍य को छोड़कर दूसरा कोई गुण नहीं है; क्‍योंकि रोगी तो मुर्देके समान है। महाराज! जो बिनारोग के उत्‍पन्‍न, कड़वा, सिर में दर्द पैदा करनेवाला, पाप से सम्‍बद्ध, कठोर, तीखा और गरम है, जो सज्‍जनोद्वारा पान करने योग्‍य है और जिसे दुर्जन नहीं पी सकते-उस क्रोध को आप पी जाइये और शांत होइये। रोग से पी‍डि‍त मनुष्‍य मधुर फलोंका आदर नहीं करते, विषयोंमेंभी उन्‍हें कुछ सुख या सार नहीं मिलता। रोगी सदा ही दुखी रहते है; वे न तो धनसंबंधी भोगों का और न सुख का ही अनुभव करते है। राजन् ! पहले जूए में द्रोपदी को जीती गयी देखकर मैंने आपसे कहा था-‘आप द्यूतक्रीडा में आसक्‍त दुर्योधन को रोकिये, विद्वान्लोग इस प्रवञ्चना के लिये मना करते हैं।‘ किंतु आपने मेरा कहना नहीं माना। वह बल नहीं, जिसका मृदुल स्‍वभाव के साथ विरोध हो; सूक्ष्‍म धर्मका शीध्र हीसेवन करना चाहिये। क्रूरतापूर्वक उपर्जित लक्ष्‍मी नश्र्वर होती है, यदि वह मृदुलतापूर्वक बढ़ायी गयी हो तो पुत्र-पौत्रोंतक स्थिररहती है। राजन्! आपके पुत्र पाण्‍डवों की रक्षा करें और पाण्‍डु के पुत्र आपकेपुत्रों की रक्षा करें। सभी कौरवएक-दूसरे के शत्रु को शत्रु और मित्र को मित्र समझे। सबका एक ही कर्तव्‍य हो, सभी सुखी और समृद्धिशाली होकर जीवन व्‍यतीत करें। अजमीढकुलनंदन! इस समय आप ही कौरवों के आधारस्‍तम्‍भ हैं, कुरूवंश आपके ही अधीन है। तात! कुंती के पुत्र अभी बालक हैं और वनवास से बहुत कष्‍ट पा चुके हैं; इस समय उनका पालन करके अपने यश की रक्षा कीजिये ।।७३।। कुरूराज! आप पाण्‍डवों से संधि कर लें, जिससे शत्रुओं को आपका छिद्र देखने का अवसर न मिले। नरदेव! समस्‍त पाण्‍डव सत्‍यपर डटे हुए हैं; अब आप अपनेपुत्र दुर्योधन को रोकिये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत प्रजागरपर्व में विदुरजीके हितवाक्‍यविषयक छत्‍तीसवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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