"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 40 श्लोक 17-32": अवतरणों में अंतर
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==चत्वारिंश (40) | ==चत्वारिंश (40) अध्याय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)== | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: चत्वारिंश | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
तात! बिना फल-फूल के वृक्ष को जैसे पक्षी छोड़ देते हैं, उसी प्रकार उस प्रेत को उसके जातिवाले, सुहृद् और पुत्र चिता में छोड़कर लौट आते हैं। अग्रि में डाले हुए उस पुरूष के पीछे तो केवल उसका अपना किया हुआ बुरा या भला कर्म ही जाता है। इसलिये पुरूष को चाहिये कि वह धीरे-धीरे प्रयत्नपूर्वक धर्म का ही संग्रह करे। इस लोक और परलोक से ऊपर ओर नीचेतक सर्वत्र अज्ञानरूप महान् अंधकार फैला हुआ है। वह इन्द्रयों को महान् मोह में डालनेवाला है। राजन्! आप इसको जान लीजिये, जिससे यह आपका स्पर्श न कर सके। मेरी इस बात को सुनकर यदि आप सब ठीक-ठीक समझ सकेंगे तो इस मनुष्य लोक में आपको महान् यश प्राप्त होगा और इहलोक तथा परलोक में आपके लिये भय नहीं रहेगा। भारत! यह जीवात्मा एक नदी है। इसमें पुण्य ही तीर्थ है। सत्यस्वरूप परमात्मा से इसका उद्गम हुआ है। धैर्य ही इसके किनारे हैं। दया इसकी लहरें है। पुण्यकर्म करनेवाला मनुष्य इसमें स्नान करके पवित्र होता है; क्योंकि लोभरहित आत्मा सदा पवित्र ही है। काम-क्रोधादिरूप ग्राहसे भरी, पांच इन्द्रियों के जल से पूर्ण इस संसार नदी के जन्म-मरणरूप दुर्गम प्रवाह को धैर्य की नौका बनाकर पार कीजिये। जो बुद्धि, धर्म, विद्या और अवस्था में बड़े अपने बंधु-को आदर-सत्कार से प्रसन्न करके उससे कर्तव्य-अकर्तव्य के विषय में प्रश्न करता है, वह कभी मोह में नहीं पड़ता। शिश्न और उदर की धैर्य से रक्षा करे, अर्थात् कामवेग और भूख की ज्वाला को धैर्यपूर्वक सहे। इसी प्रकार हाथ्-पैर-की नेत्रों से, नेत्र ओर कानों की मन से तथा मन और वाणी की सत्कर्मों से रक्षा करे। जो प्रतिदिन जल से स्नान-संध्या–तर्पण आदि करता है, नित्य यज्ञोपवीत धारण किये रहता है, नित्य स्वाध्याय करता है, पतितों का अन्न त्याग देता है, सत्य बोलता ओर गुरू की सेवा करता है, वह ब्राह्मण कभी ब्रह्मलोक से भ्रष्ट नहीं होता। <br /> | तात! बिना फल-फूल के वृक्ष को जैसे पक्षी छोड़ देते हैं, उसी प्रकार उस प्रेत को उसके जातिवाले, सुहृद् और पुत्र चिता में छोड़कर लौट आते हैं। अग्रि में डाले हुए उस पुरूष के पीछे तो केवल उसका अपना किया हुआ बुरा या भला कर्म ही जाता है। इसलिये पुरूष को चाहिये कि वह धीरे-धीरे प्रयत्नपूर्वक धर्म का ही संग्रह करे। इस लोक और परलोक से ऊपर ओर नीचेतक सर्वत्र अज्ञानरूप महान् अंधकार फैला हुआ है। वह इन्द्रयों को महान् मोह में डालनेवाला है। राजन्! आप इसको जान लीजिये, जिससे यह आपका स्पर्श न कर सके। मेरी इस बात को सुनकर यदि आप सब ठीक-ठीक समझ सकेंगे तो इस मनुष्य लोक में आपको महान् यश प्राप्त होगा और इहलोक तथा परलोक में आपके लिये भय नहीं रहेगा। भारत! यह जीवात्मा एक नदी है। इसमें पुण्य ही तीर्थ है। सत्यस्वरूप परमात्मा से इसका उद्गम हुआ है। धैर्य ही इसके किनारे हैं। दया इसकी लहरें है। पुण्यकर्म करनेवाला मनुष्य इसमें स्नान करके पवित्र होता है; क्योंकि लोभरहित आत्मा सदा पवित्र ही है। काम-क्रोधादिरूप ग्राहसे भरी, पांच इन्द्रियों के जल से पूर्ण इस संसार नदी के जन्म-मरणरूप दुर्गम प्रवाह को धैर्य की नौका बनाकर पार कीजिये। जो बुद्धि, धर्म, विद्या और अवस्था में बड़े अपने बंधु-को आदर-सत्कार से प्रसन्न करके उससे कर्तव्य-अकर्तव्य के विषय में प्रश्न करता है, वह कभी मोह में नहीं पड़ता। शिश्न और उदर की धैर्य से रक्षा करे, अर्थात् कामवेग और भूख की ज्वाला को धैर्यपूर्वक सहे। इसी प्रकार हाथ्-पैर-की नेत्रों से, नेत्र ओर कानों की मन से तथा मन और वाणी की सत्कर्मों से रक्षा करे। जो प्रतिदिन जल से स्नान-संध्या–तर्पण आदि करता है, नित्य यज्ञोपवीत धारण किये रहता है, नित्य स्वाध्याय करता है, पतितों का अन्न त्याग देता है, सत्य बोलता ओर गुरू की सेवा करता है, वह ब्राह्मण कभी ब्रह्मलोक से भ्रष्ट नहीं होता। <br /> |
०७:५५, १७ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण
चत्वारिंश (40) अध्याय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)
तात! बिना फल-फूल के वृक्ष को जैसे पक्षी छोड़ देते हैं, उसी प्रकार उस प्रेत को उसके जातिवाले, सुहृद् और पुत्र चिता में छोड़कर लौट आते हैं। अग्रि में डाले हुए उस पुरूष के पीछे तो केवल उसका अपना किया हुआ बुरा या भला कर्म ही जाता है। इसलिये पुरूष को चाहिये कि वह धीरे-धीरे प्रयत्नपूर्वक धर्म का ही संग्रह करे। इस लोक और परलोक से ऊपर ओर नीचेतक सर्वत्र अज्ञानरूप महान् अंधकार फैला हुआ है। वह इन्द्रयों को महान् मोह में डालनेवाला है। राजन्! आप इसको जान लीजिये, जिससे यह आपका स्पर्श न कर सके। मेरी इस बात को सुनकर यदि आप सब ठीक-ठीक समझ सकेंगे तो इस मनुष्य लोक में आपको महान् यश प्राप्त होगा और इहलोक तथा परलोक में आपके लिये भय नहीं रहेगा। भारत! यह जीवात्मा एक नदी है। इसमें पुण्य ही तीर्थ है। सत्यस्वरूप परमात्मा से इसका उद्गम हुआ है। धैर्य ही इसके किनारे हैं। दया इसकी लहरें है। पुण्यकर्म करनेवाला मनुष्य इसमें स्नान करके पवित्र होता है; क्योंकि लोभरहित आत्मा सदा पवित्र ही है। काम-क्रोधादिरूप ग्राहसे भरी, पांच इन्द्रियों के जल से पूर्ण इस संसार नदी के जन्म-मरणरूप दुर्गम प्रवाह को धैर्य की नौका बनाकर पार कीजिये। जो बुद्धि, धर्म, विद्या और अवस्था में बड़े अपने बंधु-को आदर-सत्कार से प्रसन्न करके उससे कर्तव्य-अकर्तव्य के विषय में प्रश्न करता है, वह कभी मोह में नहीं पड़ता। शिश्न और उदर की धैर्य से रक्षा करे, अर्थात् कामवेग और भूख की ज्वाला को धैर्यपूर्वक सहे। इसी प्रकार हाथ्-पैर-की नेत्रों से, नेत्र ओर कानों की मन से तथा मन और वाणी की सत्कर्मों से रक्षा करे। जो प्रतिदिन जल से स्नान-संध्या–तर्पण आदि करता है, नित्य यज्ञोपवीत धारण किये रहता है, नित्य स्वाध्याय करता है, पतितों का अन्न त्याग देता है, सत्य बोलता ओर गुरू की सेवा करता है, वह ब्राह्मण कभी ब्रह्मलोक से भ्रष्ट नहीं होता।
वेदों को पढ़कर, अग्निहोत्रके लिये अग्नि के चारों ओर कुश बिछाकर नाना प्रकार के यज्ञोंद्वारा यजन कर और प्रजाजनों का पालन करके गौ और ब्राह्मणों के हित के लिये संग्राम में मूत्यु को प्राप्त हुआ क्षत्रिय शस्त्र से अन्त:करण पवित्र हो जाने के कारण ऊर्ध्वलोक को जाता है। वैश्य यदि वेद-शास्त्रों का अध्ययन करके ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा आश्रितजनोंको समय-समय पर धन देकर उनकी सहायता करे और यज्ञोद्वारा तीनों[१] अग्नियों के पवित्र धूम की सुगंध लेता रहे तो वह मरने के पश्चात् स्वर्ग लोक में दिव्य सुख भोगता है। शूद्र यदि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की क्रम से न्याय-पूर्वक सेवा करके संतुष्ट करता है तो वह व्यथा से रहितहो पापों से मुक्त होकर देह-त्याग के पश्र्चात् स्वर्गसुख का उपभोग करता है। महाराज! आपसे यह मैंने चारों वर्णों का धर्म बताया है; इसे बताने का कारण भी सुनिये। आपके कारण पाण्डुनंदन युघिष्ठिर क्षत्रियधर्म से गिर रहे हैं, अत: आप उन्हें पुन: राजधर्म में नियुक्त कीजिये।
घृतराष्ट्र ने कहा-विदुर! तुम प्रतिदिन मुझे जिस प्रकार उपदेश दिया करते हो, वह बहुत ठीक है। सौम्य! तुम मुझसे जो कुछ भी कहते हो, ऐसा ही मेरा भी विचार। यद्यपि मैं पाण्डवों के प्रति सदा ऐसी ही बुद्धि रखता हूं, तथापि दुर्योधन से मिलकर फिर बुद्धि पलट जाती है। प्रारब्ध का उल्लघंन करने की शक्ति किसी भी प्राणी में नहीं है। मैं तो प्रारब्ध को ही अचल मानता हूं, उसके सामने पूरूषार्थ तो व्यर्थ है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गार्हपत्याग्नि, दक्षिणाग्नि और आहवनीयाग्नि- ये तीन अग्नियां हैं।