"महाभारत सभा पर्व अध्याय 2 श्लोक 20-36" के अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
('==प्रथम (1) अध्‍याय: सभा पर्व (सभाक्रिया पर्व)== <div style="text-align:c...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति १: पंक्ति १:
==प्रथम (1) अध्‍याय: सभा पर्व (सभाक्रिया पर्व)==
+
==द्वितीय (2) अध्‍याय: सभा पर्व (सभाक्रिया पर्व)==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: सभा पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 20-36 का हिन्दी अनुवाद </div>
+
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: सभा पर्व:द्वितीय अध्याय: श्लोक 20-36 का हिन्दी अनुवाद </div>
  
 
श्रीकृष्ण के विछोह से अर्जुन को बड़ी व्यथा हो रही थी। गोविन्द ने उन्हें हृदय से लगाकर उनसे जाने की अनुमति ली। फिर उन्होनें युधिष्ठिर और भीमसेन का चरण स्पर्श किया। युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन ने भगवान् को छाती से लगा लिया और नकुल सहदेव ने उनके चरणों में प्रणाम किया (तब भगवान् ने भी उन दोनों को छाती से लगा लिया)। भारत ! शत्रुविजयी श्रीकृष्ण ने दो कोस दूर चले जाने पर युधिष्ठिर से जाने की अनुमति ले यह अनुरोध किया कि ‘अब आप लौट जाइये’। तदनन्तर धर्मज्ञ गोविन्द ने प्रणाम करके युधिष्ठिर के पैर पकड़ लिये। फिर पाण्डुकुमार धर्मराज युधिष्ठिर ने यादवश्रेष्ठ कमलनयन केशव को दोनों हाथों से उठाकर उनका मस्तक सूँघा और ‘जाओ’ कहकर उन्हें जाने की आज्ञा दी। तत्पश्चात् उनके साथ पुनः आने का निश्चित वादा करके भगवान् मधुसूदन पैदल आये हुए नागरिकों सहित पाण्डवों को बड़ी कठिनाई से लौटाया और प्रसन्नतापूर्वक अपनी पुरी द्वारका को चले गये, मानो इन्द्र अमरावती को जा रहे हों। <br />
 
श्रीकृष्ण के विछोह से अर्जुन को बड़ी व्यथा हो रही थी। गोविन्द ने उन्हें हृदय से लगाकर उनसे जाने की अनुमति ली। फिर उन्होनें युधिष्ठिर और भीमसेन का चरण स्पर्श किया। युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन ने भगवान् को छाती से लगा लिया और नकुल सहदेव ने उनके चरणों में प्रणाम किया (तब भगवान् ने भी उन दोनों को छाती से लगा लिया)। भारत ! शत्रुविजयी श्रीकृष्ण ने दो कोस दूर चले जाने पर युधिष्ठिर से जाने की अनुमति ले यह अनुरोध किया कि ‘अब आप लौट जाइये’। तदनन्तर धर्मज्ञ गोविन्द ने प्रणाम करके युधिष्ठिर के पैर पकड़ लिये। फिर पाण्डुकुमार धर्मराज युधिष्ठिर ने यादवश्रेष्ठ कमलनयन केशव को दोनों हाथों से उठाकर उनका मस्तक सूँघा और ‘जाओ’ कहकर उन्हें जाने की आज्ञा दी। तत्पश्चात् उनके साथ पुनः आने का निश्चित वादा करके भगवान् मधुसूदन पैदल आये हुए नागरिकों सहित पाण्डवों को बड़ी कठिनाई से लौटाया और प्रसन्नतापूर्वक अपनी पुरी द्वारका को चले गये, मानो इन्द्र अमरावती को जा रहे हों। <br />

०६:४३, २६ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

द्वितीय (2) अध्‍याय: सभा पर्व (सभाक्रिया पर्व)

महाभारत: सभा पर्व:द्वितीय अध्याय: श्लोक 20-36 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्ण के विछोह से अर्जुन को बड़ी व्यथा हो रही थी। गोविन्द ने उन्हें हृदय से लगाकर उनसे जाने की अनुमति ली। फिर उन्होनें युधिष्ठिर और भीमसेन का चरण स्पर्श किया। युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन ने भगवान् को छाती से लगा लिया और नकुल सहदेव ने उनके चरणों में प्रणाम किया (तब भगवान् ने भी उन दोनों को छाती से लगा लिया)। भारत ! शत्रुविजयी श्रीकृष्ण ने दो कोस दूर चले जाने पर युधिष्ठिर से जाने की अनुमति ले यह अनुरोध किया कि ‘अब आप लौट जाइये’। तदनन्तर धर्मज्ञ गोविन्द ने प्रणाम करके युधिष्ठिर के पैर पकड़ लिये। फिर पाण्डुकुमार धर्मराज युधिष्ठिर ने यादवश्रेष्ठ कमलनयन केशव को दोनों हाथों से उठाकर उनका मस्तक सूँघा और ‘जाओ’ कहकर उन्हें जाने की आज्ञा दी। तत्पश्चात् उनके साथ पुनः आने का निश्चित वादा करके भगवान् मधुसूदन पैदल आये हुए नागरिकों सहित पाण्डवों को बड़ी कठिनाई से लौटाया और प्रसन्नतापूर्वक अपनी पुरी द्वारका को चले गये, मानो इन्द्र अमरावती को जा रहे हों।
जब तक वे दिखायी दिये, तब तक पाण्डव अपने नेत्रों द्वारा उनका अनुसरण करते रहे। अत्यन्त प्रेम के कारण उनका मन श्रीकृष्ण के साथ ही चला गया। अभी केशव के दर्शन से पाण्डवों का मन तृप्त नहीं हुआ था, तभी नयनाभिराम भगवान् श्रीकृष्ण सहसा अदृश्य हो गये। पाण्डवों की श्रीकृष्ण दर्शन विषयक कामना अधूरी ही रह गयी। उन सबका मन भगवान् गोविन्द के साथ ही चला गया। अब वे पुरूश्रेष्ठ पाण्डव मार्ग से लौटकर तुरंत अपने नगर की ओर चल पडे़। उधर श्रीकृष्ण भी रथ के द्वारा शीघ्र ही द्वारका जा पहुँचे। सात्वतवंशी वीर सात्यकि भगवान् श्रीकृष्ण के पीछे बैठकर यात्रा कर रहे थे और सारथि दारूक आगे था। उन दोनों के साथ देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण वेगशाली गरूढ़ की भाँति द्वारका में पहुँच गये।
वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय ! अपनी मर्यादा से च्युत न होने वाले धर्मराज युधिष्ठिर भाइयों सहित मार्ग से लौटकर सुहृदों के साथ अपने श्रेष्ठ नगर के भीतर प्रविष्ट हुए। राजन् ! वहाँ पुरूष सिंह धर्मराज ने समस्त सुहृदों, भाइयों और पुत्रों को विदा करके राजमहल में द्रौपदी के साथ बैठकर प्रसन्नता का अनुभव किया। इधर भगवान् केशव भी उग्रसेन आदि श्रेष्ठ यादवों से सम्मानित हो प्रसन्नतापूर्वक द्वारकापुरी के भीतर गये। कमलनयन श्रीकृष्ण ने राजा उग्रसेन, बूढे़ पिता वसुदेव और यशस्विनी माता देवकी को प्रणाम करके बलराम जी के चरणों में मस्तक झुकाया। तत्पश्चात् जनार्दन ने प्रद्युम्न, साम्ब, निशठ, चारूदेष्ण, गद, अनिरूद्ध तथा भानु आदि को स्नेहपूर्वक हृदय से लगाया और बडे़-बूढ़ों की आज्ञा लेकर रूक्मिणी के महल में प्रवेश किया। इधर महाभाग मय ने भी धर्मपुत्र युधिष्ठिर के लिये विधिपूर्वक सम्पूर्ण रत्नों से विभूषित सभामण्डप बनाने की मन ही मन कल्पना की ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत सभाक्रियापर्व में भगवान श्रीकृष्ण की द्वारका यात्रा विषयक दूसरा अध्याय पूरा हुआ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।