"महाभारत आदि पर्व अध्याय 231 श्लोक 16-25": अवतरणों में अंतर

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एकत्रिंशदधिकद्विशततम (231) अध्‍याय: आदि पर्व (मयदर्शन पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: एकत्रिंशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 16-25 का हिन्दी अनुवाद

  शुक्लवर्ण वाले सर्वज्ञ अग्निदेव ! आप ही सूर्य होकर अपनी किरणों द्वारा पृथ्वी से जल को और सम्पूर्ण पार्थिव रसों को ग्रहण करते हैं तथा पुनः समय आने पर आवश्यकता देखकर वर्षा के द्वारा इस पृथ्वी पर जल रूप में उन सब रसों को प्रस्तुत कर देते हैं। उज्जवल वर्ण वाले अग्ने ! फिर आपसे ही हरे-हरे पत्तों वाले वनस्पति उत्पन्न होते हैं और आपसे ही पोखरियाँ तथा कल्याणमय महासागर पूर्ण होते हैं। प्रचण्ड किरणों वाले अग्निदेव ! हमारा यह शरीर रूप घर रसनेन्द्रियाधिपति वरूण देव का आलम्बन है। आप आज शीतल एवं कल्याणमय बनकर हमारे रक्षक होइये; हमें नष्ट न कीजिये। पिंगल नेत्र तथा लोहित ग्रीवा वाले हुताशन ! आप कृष्णवत्र्मा हैं। समुद्र तटवर्ती गृहों की भाँति हमें भी छोड़ दीजिये। दूर से ही निकल जाइये।

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय ! ब्रह्मवादी द्रोण के द्वारा इस प्रकार प्रार्थना की जाने पर प्रसन्नचित्त हुए अग्नि ने मन्दपाल से की हुई ‘प्रतिज्ञा का स्मरण करके द्रोण से कहा।

अग्नि बोले - जान पड़ता है, तुम द्रोण ऋषि हो; क्योंकि तुमने उस ब्रह्म का ही प्रतिपादन किया है। मैं तुम्हारा अभीष्ट सिद्ध करूँगा, तुम्हें कोई भय नहीं है। मन्दपाल मुनि ने पहले ही मुझसे तुम लोगों के विषय में निवेदन किया था कि ‘आप खाण्डववन का दाह करते समय मेरे पुत्रों को बचा दीजियेगा। द्रोण ! तुम्हारे पिता का वह वचन और तुमने यहाँ जो कुछ कहा है, वह भी मेरे लिये गौरव की वस्तु है। बोलो, तुम्हारी और कौन सी इच्छा पूर्ण करूँ ? ब्रह्मन् ! साधुशिरोमणे ! तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारे इस स्त्रोत से मैं बहुत प्रसन्न हूँ।

द्रोण ने कहा - शुक्लस्वरूप अग्ने ! ये बिलाव हमें प्रतिदिन उद्विग्न करते रहते हैं। हुताशन ! आप इन्हें बन्धु-बान्धवों सहित भस्म कर डालिये।

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय ! शांर्गकों की अनुमति से अग्निदेव ने वैसा ही किया और प्रज्वलित होकर वे सम्पूर्ण खाण्डववन को जलाने लगे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत मयदर्शनपर्व में शांर्गकोपाख्यान विषयक दो सौ इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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