"महाभारत सभा पर्व अध्याय 79 भाग-1": अवतरणों में अंतर
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वैशम्पायनजी कहते हैं—युधिष्ठिर के प्रस्थान करने पर कृष्णा ने यशस्विनी कुन्ती के पास जाकर अत्यन्त दु:ख से आतुर हो वन में जाने की आज्ञा माँगी । वहाँ जो दूसरी स्त्रियाँ बैठी थीं, उन सबकी यथायोग्य वन्दना करके सबसे गले मिलकर उसने वन में इच्छा प्रकट की । फिर तो पाण्डवों-अन्त: पुर में महान् आर्तनाद होने लगा। द्रौपदी को जाती देख कुन्ती अत्यन्त संतप्त हो उठीं और शोकाकुल वाणी द्वारा बड़ी कठिनाई से इस प्रकार बोलीं-'बेटी ! इस महान् संकट को पाकर तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये । तुम स्त्री के धर्मों को जानती हो, शील और सदाचार का पालन करने वाली हो। 'पवित्र मुसकान वाली बहू ! इसलिये पतियों के प्रति तुम्हारा क्या कर्तव्य है, यह तुम्हें बताने की आवश्यकता मैं नहीं समझती । तुम सती स्त्रियों के सद्गुणों से सम्पन्न हो; तुमने पति और पिता—दोनों के कुलों की शोभा बढ़ायी है। 'निष्पाप द्रौपदी ! ये कौरव बडे़ भाग्यशाली हैं, जिन्हें तुमने अपनी क्रोधाग्नि से जलाकर भस्म नहीं कर दिया । जाओ, तुम्हारा मार्ग विध्नबाधाओं से रहित हो; मेरे किये हुए शुभ चिन्तन अभ्युदय हो। 'जो बात अवश्य होने वाली है उसके होने पर साध्वी स्त्रियों के मन में व्याकुलता नहीं होती । तुम अपने श्रेष्ठ धर्म से सुरक्षित रहकर शीघ्र ही कल्याण प्राप्त करोगी। 'बेटी ! वन में रहते हुए मेरे पुत्र सहदेव की तुम सदा देख-भाल रखना, जिससे यह परम बुद्धिमान् सहदेव इस भारी संकट में पड़कर दुखी न होने पावे'। कुन्ती के ऐसा कहने पर नेत्रों से आँसू बहाती हुई द्रौपदी ने 'तथास्तु' कहकर उनकी आज्ञा शिरोचार्य की । उस समय उसके शरीर पर एक ही वस्त्र था, उसका भी कुछ भाग रज से सना हुआ था और उसके सिर के बाल बिखरे हुए थे । उसी दशा में वह अन्त:पुर से बाहर निकली। रोती-बिलखती, वन को जाती हुई द्रौपदी के पीछे-पीछे कुन्ती भी दु:ख से व्याकुल हो कुछ दूर तक गयीं, इतने ही में उन्होंने अपने सभी पुत्रों को देखा, जिनके वस्त्र और आभूषण उतार लिये गये थे। उनके सभी अंग मृगचर्म से ढँके हुए थे और वे लज्जावश नीचे मुख किये चले जा रहे थे । हर्ष में भरे हुए शत्रुओं ने उन्हें सब ओर से घेर रखा था और हितैषी सुहृद उनके लिये शोक कर रहे थे। उस अवस्था में उन सभी पुत्रों के निकट पहुँचकर कुन्ती के हृदय में अत्यन्त वात्सल्य उमड़ आया। वे उन्हें हृदय से लगाकर शोकवश बहुत विलाप करती हुई बोलीं। कुन्ती ने कहा—पुत्रो ! तुम उत्तम धर्म का पालन करने वाले तथा सदाचारी की मर्यादा से विभूषित हो । तुममें क्षु्द्रता का अभाव है । तुम भगवान् के सुहृढ़ भक्त और देवाराधन में सदा तत्पर रहने वाले हो । तो भी तुम्हारे ऊपर यह विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा है । विधाता का यह कैसा विपरीत विधान है । किसके अनिष्ट चिन्तन से तुम्हारे ऊपर यह महान् दु:ख आया है, यह बुद्धि से बार-बार विचार करने पर भी मुझे कुछ सूझ नहीं पड़ता। यह मेरे ही भाग्य का दोष हो सकता है । तुम तो उत्तम गुणों से युक्त हो तो भी अत्यन्त दु:ख और कष्ट भोगने के लिये ही मैंने तुम्हें जन्म दिया है। | वैशम्पायनजी कहते हैं—युधिष्ठिर के प्रस्थान करने पर कृष्णा ने यशस्विनी कुन्ती के पास जाकर अत्यन्त दु:ख से आतुर हो वन में जाने की आज्ञा माँगी । वहाँ जो दूसरी स्त्रियाँ बैठी थीं, उन सबकी यथायोग्य वन्दना करके सबसे गले मिलकर उसने वन में इच्छा प्रकट की । फिर तो पाण्डवों-अन्त: पुर में महान् आर्तनाद होने लगा। द्रौपदी को जाती देख कुन्ती अत्यन्त संतप्त हो उठीं और शोकाकुल वाणी द्वारा बड़ी कठिनाई से इस प्रकार बोलीं-'बेटी ! इस महान् संकट को पाकर तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये । तुम स्त्री के धर्मों को जानती हो, शील और सदाचार का पालन करने वाली हो। 'पवित्र मुसकान वाली बहू ! इसलिये पतियों के प्रति तुम्हारा क्या कर्तव्य है, यह तुम्हें बताने की आवश्यकता मैं नहीं समझती । तुम सती स्त्रियों के सद्गुणों से सम्पन्न हो; तुमने पति और पिता—दोनों के कुलों की शोभा बढ़ायी है। 'निष्पाप द्रौपदी ! ये कौरव बडे़ भाग्यशाली हैं, जिन्हें तुमने अपनी क्रोधाग्नि से जलाकर भस्म नहीं कर दिया । जाओ, तुम्हारा मार्ग विध्नबाधाओं से रहित हो; मेरे किये हुए शुभ चिन्तन अभ्युदय हो। 'जो बात अवश्य होने वाली है उसके होने पर साध्वी स्त्रियों के मन में व्याकुलता नहीं होती । तुम अपने श्रेष्ठ धर्म से सुरक्षित रहकर शीघ्र ही कल्याण प्राप्त करोगी। 'बेटी ! वन में रहते हुए मेरे पुत्र सहदेव की तुम सदा देख-भाल रखना, जिससे यह परम बुद्धिमान् सहदेव इस भारी संकट में पड़कर दुखी न होने पावे'। कुन्ती के ऐसा कहने पर नेत्रों से आँसू बहाती हुई द्रौपदी ने 'तथास्तु' कहकर उनकी आज्ञा शिरोचार्य की । उस समय उसके शरीर पर एक ही वस्त्र था, उसका भी कुछ भाग रज से सना हुआ था और उसके सिर के बाल बिखरे हुए थे । उसी दशा में वह अन्त:पुर से बाहर निकली। रोती-बिलखती, वन को जाती हुई द्रौपदी के पीछे-पीछे कुन्ती भी दु:ख से व्याकुल हो कुछ दूर तक गयीं, इतने ही में उन्होंने अपने सभी पुत्रों को देखा, जिनके वस्त्र और आभूषण उतार लिये गये थे। उनके सभी अंग मृगचर्म से ढँके हुए थे और वे लज्जावश नीचे मुख किये चले जा रहे थे । हर्ष में भरे हुए शत्रुओं ने उन्हें सब ओर से घेर रखा था और हितैषी सुहृद उनके लिये शोक कर रहे थे। उस अवस्था में उन सभी पुत्रों के निकट पहुँचकर कुन्ती के हृदय में अत्यन्त वात्सल्य उमड़ आया। वे उन्हें हृदय से लगाकर शोकवश बहुत विलाप करती हुई बोलीं। कुन्ती ने कहा—पुत्रो ! तुम उत्तम धर्म का पालन करने वाले तथा सदाचारी की मर्यादा से विभूषित हो । तुममें क्षु्द्रता का अभाव है । तुम भगवान् के सुहृढ़ भक्त और देवाराधन में सदा तत्पर रहने वाले हो । तो भी तुम्हारे ऊपर यह विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा है । विधाता का यह कैसा विपरीत विधान है । किसके अनिष्ट चिन्तन से तुम्हारे ऊपर यह महान् दु:ख आया है, यह बुद्धि से बार-बार विचार करने पर भी मुझे कुछ सूझ नहीं पड़ता। यह मेरे ही भाग्य का दोष हो सकता है । तुम तो उत्तम गुणों से युक्त हो तो भी अत्यन्त दु:ख और कष्ट भोगने के लिये ही मैंने तुम्हें जन्म दिया है। | ||
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१०:४१, १८ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण
एकोनाशीतितम (79) अध्याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)
द्रौपदी का कुन्ती से विदा लेना तथा कुन्ती का विलाप एवं नगर के नर-नारियों का शोकातुर होना
वैशम्पायनजी कहते हैं—युधिष्ठिर के प्रस्थान करने पर कृष्णा ने यशस्विनी कुन्ती के पास जाकर अत्यन्त दु:ख से आतुर हो वन में जाने की आज्ञा माँगी । वहाँ जो दूसरी स्त्रियाँ बैठी थीं, उन सबकी यथायोग्य वन्दना करके सबसे गले मिलकर उसने वन में इच्छा प्रकट की । फिर तो पाण्डवों-अन्त: पुर में महान् आर्तनाद होने लगा। द्रौपदी को जाती देख कुन्ती अत्यन्त संतप्त हो उठीं और शोकाकुल वाणी द्वारा बड़ी कठिनाई से इस प्रकार बोलीं-'बेटी ! इस महान् संकट को पाकर तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये । तुम स्त्री के धर्मों को जानती हो, शील और सदाचार का पालन करने वाली हो। 'पवित्र मुसकान वाली बहू ! इसलिये पतियों के प्रति तुम्हारा क्या कर्तव्य है, यह तुम्हें बताने की आवश्यकता मैं नहीं समझती । तुम सती स्त्रियों के सद्गुणों से सम्पन्न हो; तुमने पति और पिता—दोनों के कुलों की शोभा बढ़ायी है। 'निष्पाप द्रौपदी ! ये कौरव बडे़ भाग्यशाली हैं, जिन्हें तुमने अपनी क्रोधाग्नि से जलाकर भस्म नहीं कर दिया । जाओ, तुम्हारा मार्ग विध्नबाधाओं से रहित हो; मेरे किये हुए शुभ चिन्तन अभ्युदय हो। 'जो बात अवश्य होने वाली है उसके होने पर साध्वी स्त्रियों के मन में व्याकुलता नहीं होती । तुम अपने श्रेष्ठ धर्म से सुरक्षित रहकर शीघ्र ही कल्याण प्राप्त करोगी। 'बेटी ! वन में रहते हुए मेरे पुत्र सहदेव की तुम सदा देख-भाल रखना, जिससे यह परम बुद्धिमान् सहदेव इस भारी संकट में पड़कर दुखी न होने पावे'। कुन्ती के ऐसा कहने पर नेत्रों से आँसू बहाती हुई द्रौपदी ने 'तथास्तु' कहकर उनकी आज्ञा शिरोचार्य की । उस समय उसके शरीर पर एक ही वस्त्र था, उसका भी कुछ भाग रज से सना हुआ था और उसके सिर के बाल बिखरे हुए थे । उसी दशा में वह अन्त:पुर से बाहर निकली। रोती-बिलखती, वन को जाती हुई द्रौपदी के पीछे-पीछे कुन्ती भी दु:ख से व्याकुल हो कुछ दूर तक गयीं, इतने ही में उन्होंने अपने सभी पुत्रों को देखा, जिनके वस्त्र और आभूषण उतार लिये गये थे। उनके सभी अंग मृगचर्म से ढँके हुए थे और वे लज्जावश नीचे मुख किये चले जा रहे थे । हर्ष में भरे हुए शत्रुओं ने उन्हें सब ओर से घेर रखा था और हितैषी सुहृद उनके लिये शोक कर रहे थे। उस अवस्था में उन सभी पुत्रों के निकट पहुँचकर कुन्ती के हृदय में अत्यन्त वात्सल्य उमड़ आया। वे उन्हें हृदय से लगाकर शोकवश बहुत विलाप करती हुई बोलीं। कुन्ती ने कहा—पुत्रो ! तुम उत्तम धर्म का पालन करने वाले तथा सदाचारी की मर्यादा से विभूषित हो । तुममें क्षु्द्रता का अभाव है । तुम भगवान् के सुहृढ़ भक्त और देवाराधन में सदा तत्पर रहने वाले हो । तो भी तुम्हारे ऊपर यह विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा है । विधाता का यह कैसा विपरीत विधान है । किसके अनिष्ट चिन्तन से तुम्हारे ऊपर यह महान् दु:ख आया है, यह बुद्धि से बार-बार विचार करने पर भी मुझे कुछ सूझ नहीं पड़ता। यह मेरे ही भाग्य का दोष हो सकता है । तुम तो उत्तम गुणों से युक्त हो तो भी अत्यन्त दु:ख और कष्ट भोगने के लिये ही मैंने तुम्हें जन्म दिया है।
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