"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 269": अवतरणों में अंतर

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वे अज्ञानवश अन्य देवतओं की , अपनी इच्छा के अनुकूल भगवान् के अपूर्ण रूपों की शरण लेते हैं। वे अपनी संकीर्णतावश एक - न - एक विधि - नियम और आचार - विचार स्थापित कर लेते हैं जो उनकी प्रकृति की आवश्यकताओं को पूरा करता है। और, इस सब मे उनका अपना अदमय वैयक्तिक निर्णय ही उन्हें चलाता है, वे अपनी प्रकृति की इस तंग आवश्यकता के पीछे ही चलते हैं और उसीको परम सत्य मान लेते हैं, क्योंकि अभीतक उनमें अनंत की व्यापकता को ग्रहण करने की क्षमता नहीं होती यदि उनका विश्वास पूर्ण हो तो, इन रूपों में भगवान् उन्हें उनके इष्ट भोग अवश्य प्रदान करते हैं , परंतु ये भोग क्षणिक होते हैं और केवल क्षुद्र बुद्धि और अविवेकवश ही लोग इन भोगों का पीछा करना अपने धर्म और जीवन का सिद्धांत बना लेते हैं। और, इस तरह से जो कुछ भी आध्यात्मिक लाभ होता है वह देवताओं की ओर ले जानेवाला होता है; वे केवल क्षर प्रकृति के नाना - विध रूपों में स्थित भगवान् को ही अनुभव कर पाते हैं जो कर्म - फल देने वाले होते हैं पर जो प्रकृति से अतीत समग्र भगवान् को पूजते हैं वे यह सब भी ग्रहण करते और इसे दिव्य बना लेते हैं, देवताओं को उनके परम स्वरूप तक, प्रकृति को उसके शिखर तक चढ़ा ले जाते हैं और उनके परे परमेश्वर तक जा पहुंचते हैं, परम पुरूष भगवान् का साक्षत्कार करते और उन्हें प्राप्त होते हैं।<ref>7.23</ref> <ref>7.19</ref>
वे अज्ञानवश अन्य देवतओं की , अपनी इच्छा के अनुकूल भगवान् के अपूर्ण रूपों की शरण लेते हैं। वे अपनी संकीर्णतावश एक - न - एक विधि - नियम और आचार - विचार स्थापित कर लेते हैं जो उनकी प्रकृति की आवश्यकताओं को पूरा करता है। और, इस सब मे उनका अपना अदमय वैयक्तिक निर्णय ही उन्हें चलाता है, वे अपनी प्रकृति की इस तंग आवश्यकता के पीछे ही चलते हैं और उसीको परम सत्य मान लेते हैं, क्योंकि अभीतक उनमें अनंत की व्यापकता को ग्रहण करने की क्षमता नहीं होती यदि उनका विश्वास पूर्ण हो तो, इन रूपों में भगवान् उन्हें उनके इष्ट भोग अवश्य प्रदान करते हैं , परंतु ये भोग क्षणिक होते हैं और केवल क्षुद्र बुद्धि और अविवेकवश ही लोग इन भोगों का पीछा करना अपने धर्म और जीवन का सिद्धांत बना लेते हैं। और, इस तरह से जो कुछ भी आध्यात्मिक लाभ होता है वह देवताओं की ओर ले जानेवाला होता है; वे केवल क्षर प्रकृति के नाना - विध रूपों में स्थित भगवान् को ही अनुभव कर पाते हैं जो कर्म - फल देने वाले होते हैं पर जो प्रकृति से अतीत समग्र भगवान् को पूजते हैं वे यह सब भी ग्रहण करते और इसे दिव्य बना लेते हैं, देवताओं को उनके परम स्वरूप तक, प्रकृति को उसके शिखर तक चढ़ा ले जाते हैं और उनके परे परमेश्वर तक जा पहुंचते हैं, परम पुरूष भगवान् का साक्षत्कार करते और उन्हें प्राप्त होते हैं।<ref>7.23</ref> <ref>7.19</ref>


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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११:१९, २१ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
2.भक्ति -ज्ञान -समन्वय

फिर , जहां ज्ञान नहीं वहां भक्त वासुदेवः सर्वमिति इस समग्र सर्वव्यापी सत्य को जानकर भगवान् की ओर नहीं जाता, बल्कि भगवान् के ऐसे अधूरे नाम और रूप गढ़ता है जो उसकी अपनी ही आवश्यकता , मनोदशा और प्रकृति के प्रतीक मात्र होते हैं और उन्हें वह इसलिये पूजता है कि ये उसकी प्राकृत लालसाओं में सहायक हों या उन लालसाओं को पूर्ण करें वह इस भगवान् के इन्द्र, अग्नि, विष्णु, शिव, देवभूत ईसा या बुद्ध आदि नाम - रूप गढ़ा करता है अथवा यह कल्पना किया करता है कि भगवान् प्राकृत गुणों का कोई समुच्चय अथवा कोई दयामय और प्रेममय ईश्वर या कोई सत्यपरायण और न्याकारी अति कठोर देवता या क्रुद्ध, भयानक और दण्डधर कालानल - स्वरूप महादेव या इनमें से कुछ गुणों के समुच्चय - स्वरूप कोई परमेश्वर हैं और वह बाहर में और मन तथा प्राण में उसीकी वेदी तैयार करता और उसे ही साष्टांग प्रणाम करता और उससे सांसारिक सुख और भोग देने के लिये या घावों को भरने के लिये या अपने भूलभरे कट्टर, बौद्धिक, असहिष्णु ज्ञान के सांपदायिक समर्थन जैसी चीजों की मांग करता है। यह सब एक हदतक सही हैं ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है जो यह जानता हो कि सर्वव्यापी वासुदेव ही यह सब कुछ है। मनुष्य नाना प्रकार की बाहरी इच्छाओं के वशीभूत होते हैं और ये इच्छाएं उनके अंतज्ञान की क्रिया हर लेती हैं।
वे अज्ञानवश अन्य देवतओं की , अपनी इच्छा के अनुकूल भगवान् के अपूर्ण रूपों की शरण लेते हैं। वे अपनी संकीर्णतावश एक - न - एक विधि - नियम और आचार - विचार स्थापित कर लेते हैं जो उनकी प्रकृति की आवश्यकताओं को पूरा करता है। और, इस सब मे उनका अपना अदमय वैयक्तिक निर्णय ही उन्हें चलाता है, वे अपनी प्रकृति की इस तंग आवश्यकता के पीछे ही चलते हैं और उसीको परम सत्य मान लेते हैं, क्योंकि अभीतक उनमें अनंत की व्यापकता को ग्रहण करने की क्षमता नहीं होती यदि उनका विश्वास पूर्ण हो तो, इन रूपों में भगवान् उन्हें उनके इष्ट भोग अवश्य प्रदान करते हैं , परंतु ये भोग क्षणिक होते हैं और केवल क्षुद्र बुद्धि और अविवेकवश ही लोग इन भोगों का पीछा करना अपने धर्म और जीवन का सिद्धांत बना लेते हैं। और, इस तरह से जो कुछ भी आध्यात्मिक लाभ होता है वह देवताओं की ओर ले जानेवाला होता है; वे केवल क्षर प्रकृति के नाना - विध रूपों में स्थित भगवान् को ही अनुभव कर पाते हैं जो कर्म - फल देने वाले होते हैं पर जो प्रकृति से अतीत समग्र भगवान् को पूजते हैं वे यह सब भी ग्रहण करते और इसे दिव्य बना लेते हैं, देवताओं को उनके परम स्वरूप तक, प्रकृति को उसके शिखर तक चढ़ा ले जाते हैं और उनके परे परमेश्वर तक जा पहुंचते हैं, परम पुरूष भगवान् का साक्षत्कार करते और उन्हें प्राप्त होते हैं।[१] [२]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 7.23
  2. 7.19

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