"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 132": अवतरणों में अंतर

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तब उसके कर्मो का एकमात्र हेतु लोकसंग्रह ही हो सकता है, ये सब लोग जो किसी अतिदूरस्थति भागवत आदर्श की और जा रहे हैं, उन्हें एक साथ रखना होगा, उन्हें मोह में गिरने से , बुद्धि - भेद और बुद्धिभ्रंश में जा गिरने से बचाना हो; नहीं तो ये कर्तव्यविमूढ़ और नष्ट - भ्रष्ट हो जायेंगें - दुनिया जो अपने अज्ञान की अंधेरी रात या अंधेरे अर्धप्रकाश में आगे बढ़ती जा रही है उसे यदि श्रेष्ठ पुरूषों के ज्ञानलोक, बल, आचरण, उदाहरण और दृश्य मानक तथा अद्श्य प्रभाव के द्वारा एक साथ न रखा जायेगा , इसे वह रास्ता न दिखाया जायेगा जिसपर चलने में ही इसका कल्याण है तो वह विघटन और विनाश की और सहजरूप से प्रवत्ता होगी। श्रेष्ठ पुरूष अर्थात् वे व्यक्ति जो जनसमूह की सर्वसाधरण पंक्ति और सर्वसाधारण भूमिका से आगे बढे़ हुए हैं , वे ही मनुष्यजात के स्वभावसिद्ध नेता हैं, क्योंकि वे ही जाति को उसके चलने का रास्ता दिखा सकते हैं और वह पैमाना या आदर्श उसके सामने रख सकते हैं जिसके अनुसार वह अपना जीवन बनावे। परंतु देवमनुष्य की यह श्रेष्ठता ऐसी - वैसी नहीं है; इसका प्रभा , इसका उदाहरण इतना सामथ्र्यवान् होता है कि सामानयतः हम जिसे श्रेष्ठ कहते हैं उसमें वह प्रभाव या बल नहीं हो सकता । तब वह जिस उदाहरण को लोगों के सामने रखेगा, वह क्या होगा? वह किसी विधान या प्रमाण को मानकर चलेगा? अपने आशय को और भी अच्छी तरह स्पष्ट करने के लिये भगवान् गुरू, अवतार, अपना ही उदाहरण ? अपना ही मानक अर्जुन के सामने रखते हैं। वे कहते हैं, मैं कर्ममार्ग पर चलता हूं, उस मार्ग पर जिसका सब मनुष्य अनुसरण करते है; तुझे भी कर्ममार्ग पर चलना होगा। जिस प्रकार मैं कर्म करता हूँ उसी प्रकार तुझे भी कर्म करना होगा। मैं कर्मो की आवश्यकता से परे हूं क्योंकि मुझे उनसे कुछ नहीं पाना है; मैं भगवान हूं किसी भी अर्थ की प्रप्ति के लिये मैं इस त्रिलोक में किसी भी पदार्थ या प्राणी का आश्रित नहीं हूं; तथापि मै कर्म करता हॅूं । कर्म करने का यही तरीका और यही भाव मुझे भी ग्रहण करना होगा। मैं पवरमेश्वर ही नियम और मानक हूं; मैं ही वह मार्ग बनाता हूं जिस पर लोग चलते हैं। मैं ही मार्ग हूं और में ही गंतव्य स्थान। पर मैं यह सब उदार और व्यापक रूप से करता हूं जिसका केवल अशं दिखयी देता है और उससे कहीं अधिक अद्ष्ठ रहता है; मनुष्य यथार्थ रूप से मेरे कर्म की रीति को नहीं जानते । जब तू जान और देख सकेगा, जब तू देवमनुष्य बनेगा तब तू ईश्वर की ही एक व्यष्टि - शक्त् हो जायेगा, मनुष्य के लिये मनुष्य - रूप में एक दिव्य दृष्टांत बन जायेगा, वैसी ही जेसे मैं अवतार - रूप में हूँ ।  
तब उसके कर्मो का एकमात्र हेतु लोकसंग्रह ही हो सकता है, ये सब लोग जो किसी अतिदूरस्थति भागवत आदर्श की और जा रहे हैं, उन्हें एक साथ रखना होगा, उन्हें मोह में गिरने से , बुद्धि - भेद और बुद्धिभ्रंश में जा गिरने से बचाना हो; नहीं तो ये कर्तव्यविमूढ़ और नष्ट - भ्रष्ट हो जायेंगें - दुनिया जो अपने अज्ञान की अंधेरी रात या अंधेरे अर्धप्रकाश में आगे बढ़ती जा रही है उसे यदि श्रेष्ठ पुरूषों के ज्ञानलोक, बल, आचरण, उदाहरण और दृश्य मानक तथा अद्श्य प्रभाव के द्वारा एक साथ न रखा जायेगा , इसे वह रास्ता न दिखाया जायेगा जिसपर चलने में ही इसका कल्याण है तो वह विघटन और विनाश की और सहजरूप से प्रवत्ता होगी। श्रेष्ठ पुरूष अर्थात् वे व्यक्ति जो जनसमूह की सर्वसाधरण पंक्ति और सर्वसाधारण भूमिका से आगे बढे़ हुए हैं , वे ही मनुष्यजात के स्वभावसिद्ध नेता हैं, क्योंकि वे ही जाति को उसके चलने का रास्ता दिखा सकते हैं और वह पैमाना या आदर्श उसके सामने रख सकते हैं जिसके अनुसार वह अपना जीवन बनावे। परंतु देवमनुष्य की यह श्रेष्ठता ऐसी - वैसी नहीं है; इसका प्रभा , इसका उदाहरण इतना सामथ्र्यवान् होता है कि सामानयतः हम जिसे श्रेष्ठ कहते हैं उसमें वह प्रभाव या बल नहीं हो सकता । तब वह जिस उदाहरण को लोगों के सामने रखेगा, वह क्या होगा? वह किसी विधान या प्रमाण को मानकर चलेगा? अपने आशय को और भी अच्छी तरह स्पष्ट करने के लिये भगवान् गुरू, अवतार, अपना ही उदाहरण ? अपना ही मानक अर्जुन के सामने रखते हैं। वे कहते हैं, मैं कर्ममार्ग पर चलता हूं, उस मार्ग पर जिसका सब मनुष्य अनुसरण करते है; तुझे भी कर्ममार्ग पर चलना होगा। जिस प्रकार मैं कर्म करता हूँ उसी प्रकार तुझे भी कर्म करना होगा। मैं कर्मो की आवश्यकता से परे हूं क्योंकि मुझे उनसे कुछ नहीं पाना है; मैं भगवान हूं किसी भी अर्थ की प्रप्ति के लिये मैं इस त्रिलोक में किसी भी पदार्थ या प्राणी का आश्रित नहीं हूं; तथापि मै कर्म करता हॅूं । कर्म करने का यही तरीका और यही भाव मुझे भी ग्रहण करना होगा। मैं पवरमेश्वर ही नियम और मानक हूं; मैं ही वह मार्ग बनाता हूं जिस पर लोग चलते हैं। मैं ही मार्ग हूं और में ही गंतव्य स्थान। पर मैं यह सब उदार और व्यापक रूप से करता हूं जिसका केवल अशं दिखयी देता है और उससे कहीं अधिक अद्ष्ठ रहता है; मनुष्य यथार्थ रूप से मेरे कर्म की रीति को नहीं जानते । जब तू जान और देख सकेगा, जब तू देवमनुष्य बनेगा तब तू ईश्वर की ही एक व्यष्टि - शक्त् हो जायेगा, मनुष्य के लिये मनुष्य - रूप में एक दिव्य दृष्टांत बन जायेगा, वैसी ही जेसे मैं अवतार - रूप में हूँ ।  


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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०७:२४, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण

गीता-प्रबंध
14.दिव्य कर्म का सिद्धांत

तब उसके कर्मो का एकमात्र हेतु लोकसंग्रह ही हो सकता है, ये सब लोग जो किसी अतिदूरस्थति भागवत आदर्श की और जा रहे हैं, उन्हें एक साथ रखना होगा, उन्हें मोह में गिरने से , बुद्धि - भेद और बुद्धिभ्रंश में जा गिरने से बचाना हो; नहीं तो ये कर्तव्यविमूढ़ और नष्ट - भ्रष्ट हो जायेंगें - दुनिया जो अपने अज्ञान की अंधेरी रात या अंधेरे अर्धप्रकाश में आगे बढ़ती जा रही है उसे यदि श्रेष्ठ पुरूषों के ज्ञानलोक, बल, आचरण, उदाहरण और दृश्य मानक तथा अद्श्य प्रभाव के द्वारा एक साथ न रखा जायेगा , इसे वह रास्ता न दिखाया जायेगा जिसपर चलने में ही इसका कल्याण है तो वह विघटन और विनाश की और सहजरूप से प्रवत्ता होगी। श्रेष्ठ पुरूष अर्थात् वे व्यक्ति जो जनसमूह की सर्वसाधरण पंक्ति और सर्वसाधारण भूमिका से आगे बढे़ हुए हैं , वे ही मनुष्यजात के स्वभावसिद्ध नेता हैं, क्योंकि वे ही जाति को उसके चलने का रास्ता दिखा सकते हैं और वह पैमाना या आदर्श उसके सामने रख सकते हैं जिसके अनुसार वह अपना जीवन बनावे। परंतु देवमनुष्य की यह श्रेष्ठता ऐसी - वैसी नहीं है; इसका प्रभा , इसका उदाहरण इतना सामथ्र्यवान् होता है कि सामानयतः हम जिसे श्रेष्ठ कहते हैं उसमें वह प्रभाव या बल नहीं हो सकता । तब वह जिस उदाहरण को लोगों के सामने रखेगा, वह क्या होगा? वह किसी विधान या प्रमाण को मानकर चलेगा? अपने आशय को और भी अच्छी तरह स्पष्ट करने के लिये भगवान् गुरू, अवतार, अपना ही उदाहरण ? अपना ही मानक अर्जुन के सामने रखते हैं। वे कहते हैं, मैं कर्ममार्ग पर चलता हूं, उस मार्ग पर जिसका सब मनुष्य अनुसरण करते है; तुझे भी कर्ममार्ग पर चलना होगा। जिस प्रकार मैं कर्म करता हूँ उसी प्रकार तुझे भी कर्म करना होगा। मैं कर्मो की आवश्यकता से परे हूं क्योंकि मुझे उनसे कुछ नहीं पाना है; मैं भगवान हूं किसी भी अर्थ की प्रप्ति के लिये मैं इस त्रिलोक में किसी भी पदार्थ या प्राणी का आश्रित नहीं हूं; तथापि मै कर्म करता हॅूं । कर्म करने का यही तरीका और यही भाव मुझे भी ग्रहण करना होगा। मैं पवरमेश्वर ही नियम और मानक हूं; मैं ही वह मार्ग बनाता हूं जिस पर लोग चलते हैं। मैं ही मार्ग हूं और में ही गंतव्य स्थान। पर मैं यह सब उदार और व्यापक रूप से करता हूं जिसका केवल अशं दिखयी देता है और उससे कहीं अधिक अद्ष्ठ रहता है; मनुष्य यथार्थ रूप से मेरे कर्म की रीति को नहीं जानते । जब तू जान और देख सकेगा, जब तू देवमनुष्य बनेगा तब तू ईश्वर की ही एक व्यष्टि - शक्त् हो जायेगा, मनुष्य के लिये मनुष्य - रूप में एक दिव्य दृष्टांत बन जायेगा, वैसी ही जेसे मैं अवतार - रूप में हूँ ।


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