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और गीता के उपदेशानुसार अपने - आपको अकर्ता जाने तथा सब कर्मो को अपने नहीं बल्कि प्रकृति के जाने , उन्हें उसके गुणों के खेल के रूप में देखे और इसी बुद्धि में स्थित हो जाये, तो क्या इसका परिणम वैसा ही नहीं होगा? सांख्य का पुरूष अनुमंता है, पर उसकी अनुमति निष्क्रिय है, सारा कर्म प्रकृति का है; यह पुरूष अनुमंता सार - रूप से केवल साक्षी और भर्ता है, जगदीश्वर का नियामक सक्रिय चैतन्य नहीं । यह वह पुरूष है जो देखता और ग्रहण करता है , जैसे कोई दर्शक अपने सामने होने वाले अभिनय को देखता और ग्रहण करता है वह पुरूष नहीं जो उस अभिनय को तैयार करके, अपनी ही सत्ता में देखता है और साथ - ही - साथ उसका संचालक और दर्शक भी होता है। इसलिये यदि यह पुरूष प्रकृति के कर्म से अपनी अनुमति हटा ले, यदि उस मिथ्या कर्तृत्वाभिमान को त्याग दे जिससे प्रकृति का सारा खेल जारी रहता है , तो वह उसका भर्ता भी नहीं रह जाता और कर्म बंद हो जाता है , क्योंकि प्रकृति साक्षी वैतन्य पुरूष की प्रशन्नता के लिये यह खेल खेलती और उसीका आश्रय पाकर उसे जारी रख सकती है। इस प्रकार वयह स्पष्ट है कि पुरूाष् - प्रकृति - संबंध के विषय में गीता की धारण वही नहीं है जो सांख्य की है, क्योंकि दोनों में एक ही साधन से एक - दूसरे से सर्वथा भिन्न परिणाम होते हैं; सांख्य के अनुसार पुरूष के मुक्त होते ही कर्म बंद हो जाता है।
 
और गीता के उपदेशानुसार अपने - आपको अकर्ता जाने तथा सब कर्मो को अपने नहीं बल्कि प्रकृति के जाने , उन्हें उसके गुणों के खेल के रूप में देखे और इसी बुद्धि में स्थित हो जाये, तो क्या इसका परिणम वैसा ही नहीं होगा? सांख्य का पुरूष अनुमंता है, पर उसकी अनुमति निष्क्रिय है, सारा कर्म प्रकृति का है; यह पुरूष अनुमंता सार - रूप से केवल साक्षी और भर्ता है, जगदीश्वर का नियामक सक्रिय चैतन्य नहीं । यह वह पुरूष है जो देखता और ग्रहण करता है , जैसे कोई दर्शक अपने सामने होने वाले अभिनय को देखता और ग्रहण करता है वह पुरूष नहीं जो उस अभिनय को तैयार करके, अपनी ही सत्ता में देखता है और साथ - ही - साथ उसका संचालक और दर्शक भी होता है। इसलिये यदि यह पुरूष प्रकृति के कर्म से अपनी अनुमति हटा ले, यदि उस मिथ्या कर्तृत्वाभिमान को त्याग दे जिससे प्रकृति का सारा खेल जारी रहता है , तो वह उसका भर्ता भी नहीं रह जाता और कर्म बंद हो जाता है , क्योंकि प्रकृति साक्षी वैतन्य पुरूष की प्रशन्नता के लिये यह खेल खेलती और उसीका आश्रय पाकर उसे जारी रख सकती है। इस प्रकार वयह स्पष्ट है कि पुरूाष् - प्रकृति - संबंध के विषय में गीता की धारण वही नहीं है जो सांख्य की है, क्योंकि दोनों में एक ही साधन से एक - दूसरे से सर्वथा भिन्न परिणाम होते हैं; सांख्य के अनुसार पुरूष के मुक्त होते ही कर्म बंद हो जाता है।
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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०७:४५, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण

गीता-प्रबंध
22.त्रैगुणातीत्य

तब हमने अपनी अहमात्मक सत्ता और कर्म के प्रकृति द्वारा नियंत्रित होने का व्यावहारिक सत्य तो स्वीकार कर लिया होगा, अपनी अधीनता को भी देख लिया होगा, किंतु हमारे अंदर जो अज आत्मा है , जो गुणों के कर्म से परे है, उसे हम न देख पाये होगें , यह न देख पाये होंगे कि हमारी मुक्ति का द्वार कहां है। प्रकृति और अहंकार ही हमारी संपूर्ण सत्ता नहीं हैं , मुक्त पुरूष भी है। परंतु पुरूष की इस स्वाधीनता का स्वरूप क्या है? प्रचिलित सांख्य दर्शन के अनुसार पुरूष अपनी मूल सत्ता में स्वाधीन है, किंतु इस स्वाधीनता का कारण यह है कि वह अकर्ता है। वह अपने अकर्तृ -स्वरूप पर प्रकृति के कर्म की जो छाया पड़ने देता है उसीसे वह त्रिगुण के कर्मो द्वारा बाह्मतः बंध जाता है और अपनी स्वाधीनता को फिर से तब ही पा सकता है ज वह प्रकृति से अपना संबंध तोड़ दे और फलस्वरूप् प्रकृति के कर्म बंद हो जायें। इस तरह यदि कोई अपने चित्त से इस विचार को हटा दे कि मैं कर्ता हूं या ये मेरे कर्म है।
और गीता के उपदेशानुसार अपने - आपको अकर्ता जाने तथा सब कर्मो को अपने नहीं बल्कि प्रकृति के जाने , उन्हें उसके गुणों के खेल के रूप में देखे और इसी बुद्धि में स्थित हो जाये, तो क्या इसका परिणम वैसा ही नहीं होगा? सांख्य का पुरूष अनुमंता है, पर उसकी अनुमति निष्क्रिय है, सारा कर्म प्रकृति का है; यह पुरूष अनुमंता सार - रूप से केवल साक्षी और भर्ता है, जगदीश्वर का नियामक सक्रिय चैतन्य नहीं । यह वह पुरूष है जो देखता और ग्रहण करता है , जैसे कोई दर्शक अपने सामने होने वाले अभिनय को देखता और ग्रहण करता है वह पुरूष नहीं जो उस अभिनय को तैयार करके, अपनी ही सत्ता में देखता है और साथ - ही - साथ उसका संचालक और दर्शक भी होता है। इसलिये यदि यह पुरूष प्रकृति के कर्म से अपनी अनुमति हटा ले, यदि उस मिथ्या कर्तृत्वाभिमान को त्याग दे जिससे प्रकृति का सारा खेल जारी रहता है , तो वह उसका भर्ता भी नहीं रह जाता और कर्म बंद हो जाता है , क्योंकि प्रकृति साक्षी वैतन्य पुरूष की प्रशन्नता के लिये यह खेल खेलती और उसीका आश्रय पाकर उसे जारी रख सकती है। इस प्रकार वयह स्पष्ट है कि पुरूाष् - प्रकृति - संबंध के विषय में गीता की धारण वही नहीं है जो सांख्य की है, क्योंकि दोनों में एक ही साधन से एक - दूसरे से सर्वथा भिन्न परिणाम होते हैं; सांख्य के अनुसार पुरूष के मुक्त होते ही कर्म बंद हो जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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