"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 35" के अवतरणों में अंतर

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“अपने हृद्देशस्थित भगवान् की, सर्वभाव से, शरण ले; उन्हीं के प्रसाद से तू पराशांति और शाश्वत पद को लाभ करेगा। मैंने तुझे गुह्य से ज्ञान बताया है। अब उस गुह्यतम ज्ञान को, उस परम वचन को सुन जो मैं अब बतलाता हूं। मेरे मन वाला हो जा, मेरा भक्त बन, मेरे लिये यज्ञ कर, और मेरा नमन-पूजन कर; तू निश्चय ही मेरे पास आयेगा, क्योंकि तू मेरा प्रिय है। सब धर्मों का पत्यिाग करके मुझ एक ही शरण ले। मैं तुझे अपने पापों से मुक्त करूंगा; शोक मत कर।“ गीता का प्रतिपादन अपने-आपको तीन सोपानों में बांट लेता है, जिन पर चढ़कर कर्म मानव-स्तर से ऊपर उठकर दिव्य स्तर मैं पहुंच जाता है और वह उच्चतर धर्म की मुक्तावस्था के लिये नीचे के धर्म बंधनों को नीचे ही छोड़ जाता है। पहले सोपान में मनुष्य कामना का त्याग कर, पूर्ण समता के साथ अपने को कर्ता समझता हुआ यज्ञ-रूप से कर्म करेगा, यज्ञ यह वह उन भगवान् के लिये करेगा जो परम हैं और एकमात्र आत्मा हैं, यद्यपि अभी तक उसने इनको स्वयं अपनी सत्ता में अनुभव नहीं किया है। यह आरंभिक सोपान है। दूसरा सोपान है केवल फलेच्छा का त्याग नहीं, बल्कि कर्ता होने के भाव का भी त्याग और अनुभूति की आत्मा सम, अकर्ता, अक्षर तत्व है और सब कर्म विश्व शक्ति के, प्रकृति के हैं जो विषम, कर्त्री और क्षर शक्ति है। अंतिम सोपान है परम आत्मा को वह परम पुरुष जान लेना जो प्रकृति के नियामक हैं, प्रकृतिगत जीव उन्हीं की आंशिक अभिव्यक्ति है, वे ही अपनी पूर्ण परात्पर स्थिति में रहते हुए प्रकृति के द्वारा सारे कर्म कराते हैं।  
 
“अपने हृद्देशस्थित भगवान् की, सर्वभाव से, शरण ले; उन्हीं के प्रसाद से तू पराशांति और शाश्वत पद को लाभ करेगा। मैंने तुझे गुह्य से ज्ञान बताया है। अब उस गुह्यतम ज्ञान को, उस परम वचन को सुन जो मैं अब बतलाता हूं। मेरे मन वाला हो जा, मेरा भक्त बन, मेरे लिये यज्ञ कर, और मेरा नमन-पूजन कर; तू निश्चय ही मेरे पास आयेगा, क्योंकि तू मेरा प्रिय है। सब धर्मों का पत्यिाग करके मुझ एक ही शरण ले। मैं तुझे अपने पापों से मुक्त करूंगा; शोक मत कर।“ गीता का प्रतिपादन अपने-आपको तीन सोपानों में बांट लेता है, जिन पर चढ़कर कर्म मानव-स्तर से ऊपर उठकर दिव्य स्तर मैं पहुंच जाता है और वह उच्चतर धर्म की मुक्तावस्था के लिये नीचे के धर्म बंधनों को नीचे ही छोड़ जाता है। पहले सोपान में मनुष्य कामना का त्याग कर, पूर्ण समता के साथ अपने को कर्ता समझता हुआ यज्ञ-रूप से कर्म करेगा, यज्ञ यह वह उन भगवान् के लिये करेगा जो परम हैं और एकमात्र आत्मा हैं, यद्यपि अभी तक उसने इनको स्वयं अपनी सत्ता में अनुभव नहीं किया है। यह आरंभिक सोपान है। दूसरा सोपान है केवल फलेच्छा का त्याग नहीं, बल्कि कर्ता होने के भाव का भी त्याग और अनुभूति की आत्मा सम, अकर्ता, अक्षर तत्व है और सब कर्म विश्व शक्ति के, प्रकृति के हैं जो विषम, कर्त्री और क्षर शक्ति है। अंतिम सोपान है परम आत्मा को वह परम पुरुष जान लेना जो प्रकृति के नियामक हैं, प्रकृतिगत जीव उन्हीं की आंशिक अभिव्यक्ति है, वे ही अपनी पूर्ण परात्पर स्थिति में रहते हुए प्रकृति के द्वारा सारे कर्म कराते हैं।  
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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०७:५४, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण

गीता-प्रबंध
4.-उपदेश का कर्म

उनके संकल्प के साथ अपने संकल्प का तादात्म्य कर लेना होगा, उनकी चेतना से सचेतन होना होगा और उन्हीं को अपने कर्म का निर्णय और आंरभ करने देना होगा। भगवान् गुरु अपने शिष्य की शंकाओं का जो समाधान करते हैं वह यही है। गीता का परम वचन, गीता का महाकाव्य क्या है सो ढूंढ़कर नहीं निकालना है; गीता स्वयं ही अपने अंतिम श्लोकों में उस महान् संगीता का परम स्वर घोषित करती हैः-

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्ति स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।
 
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद् गुह्यतरं।.....
सर्वगुह्यतमं भूयः श्रृणु मे परमं वचः।।......
 
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्करु ।
मामेवैष्यसि सत्यं प्रतिजाने प्रियाऽसि मे।।
 
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।

“अपने हृद्देशस्थित भगवान् की, सर्वभाव से, शरण ले; उन्हीं के प्रसाद से तू पराशांति और शाश्वत पद को लाभ करेगा। मैंने तुझे गुह्य से ज्ञान बताया है। अब उस गुह्यतम ज्ञान को, उस परम वचन को सुन जो मैं अब बतलाता हूं। मेरे मन वाला हो जा, मेरा भक्त बन, मेरे लिये यज्ञ कर, और मेरा नमन-पूजन कर; तू निश्चय ही मेरे पास आयेगा, क्योंकि तू मेरा प्रिय है। सब धर्मों का पत्यिाग करके मुझ एक ही शरण ले। मैं तुझे अपने पापों से मुक्त करूंगा; शोक मत कर।“ गीता का प्रतिपादन अपने-आपको तीन सोपानों में बांट लेता है, जिन पर चढ़कर कर्म मानव-स्तर से ऊपर उठकर दिव्य स्तर मैं पहुंच जाता है और वह उच्चतर धर्म की मुक्तावस्था के लिये नीचे के धर्म बंधनों को नीचे ही छोड़ जाता है। पहले सोपान में मनुष्य कामना का त्याग कर, पूर्ण समता के साथ अपने को कर्ता समझता हुआ यज्ञ-रूप से कर्म करेगा, यज्ञ यह वह उन भगवान् के लिये करेगा जो परम हैं और एकमात्र आत्मा हैं, यद्यपि अभी तक उसने इनको स्वयं अपनी सत्ता में अनुभव नहीं किया है। यह आरंभिक सोपान है। दूसरा सोपान है केवल फलेच्छा का त्याग नहीं, बल्कि कर्ता होने के भाव का भी त्याग और अनुभूति की आत्मा सम, अकर्ता, अक्षर तत्व है और सब कर्म विश्व शक्ति के, प्रकृति के हैं जो विषम, कर्त्री और क्षर शक्ति है। अंतिम सोपान है परम आत्मा को वह परम पुरुष जान लेना जो प्रकृति के नियामक हैं, प्रकृतिगत जीव उन्हीं की आंशिक अभिव्यक्ति है, वे ही अपनी पूर्ण परात्पर स्थिति में रहते हुए प्रकृति के द्वारा सारे कर्म कराते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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